Thursday, November 30, 2006

कटघरे में मीडिया ट्राएल

अदालत। सुनवाई। मीडिया। फैसला। जिसकी भूमिका सबसे बाद में थी, वो आज सबसे पहले मौजूद है। कैमरों के साथ। विजुअली रिक्रिएशन के साथ। नाटकीय रूपांतरण के साथ। अभियुक्त, गवाह, आरोपी, निर्दोष। सबको जगह देने में मीडिया पहल कर रहा है। मामला हाई प्रोफाइल हो तो टीवी का समय घंटो मौजूद है। और अगर आरोपी या अभियुक्त स्वप्रपंचना का भूखा है तो स्टूडियो तक में वो दिख जाता है। न्याय। फैसला। प्रतिक्रिया। सब दिलाने का आतुर है टीवी। खबर का मर्म कम, कर्म के आयाम ज्यादा तलाशता। जब भी वारदात होती है, तो हादसों के शिकार को इंतजार है टीवी का। वो न्याय प्रक्रिया की लंबी लड़ाई से खौफ खाता है। सो टीवी पर दिखकर सहानुभूति और दबाव पैदा करने की लालसा पाल बैठा है। पर हर दिन की खुराक देते देते टीवी अब न्याय नहीं, वक्त खर्च करने का जरिया बन गया है। आज का टीवी शीर्षक तलाशने में लगा है। कथा कहानी की तलाश रूक सी गई है। अदालतों में करोड़ों मामले है। जेलों में लाखों बंद है। सड़को पर हजारों हादसे हो रहे है। जो मामले हैसियत से जुड़े है, रसूख वाले है, उनकी करता है मीडिया, मीडिया ट्राएल। ये जुमला चल निकला है। मीडिया ट्राएल। दरअसल कौन सा तबका ये जानने को आतुर है, इसका पता नहीं। दिन भर में पन्द्रह बीस मिनट समाचार देखने वाले को क्या कितना दिखाना है, ये तय नहीं। टीवी से न्याय मिलने की एक दास्तान है प्रियदर्शिनी मट्टू की। पर मीडिया ट्राएल के दबाव को राम जेठमलानी खुले तौर पर दोषी करार दे चुके है। जिसे न्याय चाहिए वो चीख रहा है। समर्थक चीख रहे है। वकील चीख रहा है। जज मान रहे है। जनता समझ रही है। पर संतोष सिंह पहली बार रिहा हो जाता है। तो क्या ये सब निरर्थक था। केवल टीवी की आग ने मट्टू मामले को ताप दिया। तकरीबन एक साल पहले फैजाबाद, उत्तरप्रदेश में एक वृद्ध व्यक्ति जेल में अपने चालीस साल गुजार कर आजाद हुआ। उसे मीडिया ग्लेयर मिला। उसका मामला अदालत में बरसों चला। और वो जेल में सड़ता रहा। ये सच हजारों मामलों का है। सच न्यायिक व्यवस्था का है। सच मीडिया से दूर घटते सच का है। मीडिया ग्लेयर में आना आम पीड़ित को नहीं भाता। वो जानता है, कहता है, इससे कुछ नहीं बनता बिगड़ता। टीवी कोई जादू की छड़ी नहीं है बाबू। पर कैमरा चलाने वाले, बाइट लेने वाले को हर बार लगता है, बड़ा स्कूप है। कुछ तो हल्ला मचेगा। दर्शक रीपिटिशन को समझता है।, रिक्रिएशन को देखता है। रिएल्टी को भांपता है औऱ चैनल बदल देता है।

एक सच। भारती यादव। डीपी यादव की बेटी। नीतिश कटारा हत्याकांड मामले की गवाह। दिल्ली की पटियाला कोर्ट में बंद कमरे में गवाही देती है। अंदर अदालत में केवल गिने चुने आवश्यक लोग। पर रात में हर टीवी समाचार चैनल पर आप अदालत के अंदर का नाट्य रूपांतरण देखते है। कैसे। ये सवाल न्यायिक व्यवस्था से है। पत्रकारों से है। और हर दर्शक से भी।

सूचक
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Wednesday, November 22, 2006

टीवी के बारे में अनकही...

मुझे इंतजार था। पर क्यों किसी का ध्यान इस खबर की ओर नहीं गया। क्या इस वजह से क्योंकि
टीवी ने इस खबर को एक बाप के रहम पर उतार दिया।मतलब कि उस तरह नहीं धुना जैसा प्रिंस या राखी सावंत को। बात अनंत की हो रही है। अनंत का अगवा होना एक आम खबर थी, पर उनसे जुड़ा परिवार खास था। वो एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी के बड़े अधिकारी का तीन साल का लड़का था। और ये एक तरह की आपराधिक राजनैतिक खबर थी। जिसके आयाम कई थे।टीवी से इसे पहले कानून व्यवस्था, फिर पिता की रहम और फिर जान की कीमत पर छोड़ने का मन बनाया। कहा कि पिता के आग्रह पर हम अनंत से जुड़ी खबरे नहीं दिखाएंगे। क्या कदम रहा। टीवी की नैतिकता के बारे में सोचना हम आप छोड़ ही चुके है। सेक्स, भ्रमण, अपराध और छींटाकशी के अलावा कम ही ठोस दिखता है। दिखता है तो असर नहीं छोड़ता। क्या आपको पत्थर बनाकर मोम की कामना की जा सकती है। यही हुआ है। पहले असंवेदनशीलता के प्रहार और फिर मानवीय होना की गुहार। खैर हम चोला बदलते रहते है। टीवी ने नैतिकता के नाम पर खबर नहीं चलाई। नतीजा या कहे कि वो सिहरन जो सत्ता को बेध रही थी, ने मजबूर किया ये दबाव बनाने में कि वो वापस ले आए एक तीन साल के अबोध को। पर टीवी ने ये नहीं बताया कि किस तरह एक बाप ने अपनी तकनीकी समझ से बच्चे को वापस लाने में खास भूमिका निभाई। चलिए। जरूरी था। अनंत के वापस आने के बाद। एक बार फिर टीवी ने धज्जियां उड़ाई। पुलिस की अनंत गाथी की। क्या क्या फर्जी गढ़ा गया था। उसे पर्दाफाश करने में टीवी ने हर तरह की कहानी के पेंच खोले। खैर सबक पर गौर करिए। जब भी किसी मानवीय खबर पर टीवी पिल पड़ता है, तो नतीजे किसी न किसी तरह सार्थक हो जाते है। टीआरपी की चिंता में हर रोज नया करने और बांधने की कोशिश मे इस जनसमचार माध्यम ने कुछ गरिमा जरूर खोई है, पर जो बचा रहा है वो कही न कही किसी मूल्य को स्थापित करते है। एक बार जो कही नहीं गया वो गौर करने लायक है। अनंत ने घर पहुंच कर जो खुशी दिखाई, जो आपने हमने टीवी पर देखा। वो खुशी टीवी की बदैलत है। टीवी की बदैलत है आपको ये अहसास कि आप भले ही ज्यादातर शिकार होने पर पर्दे पर नजर आते है।पर न्याय आपके पास आने को तभी तैयार होता है जब आपके साथ जनभावनाएं होती है। जो टीवी बनाता है।

'सूचक'
soochak@gmail.com

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Monday, November 20, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर (11-20 नवम्बर)

एक हफ्ता छोटा नही होता। मालूम है एक दिन में अस्सी से सौ खबरें खत्म हो जाती है। एक हफ्ते में अनुमान के तौर पर एक हजार खबरे। इनमें से ढाई से तीन सौ नई खबरें होती है। बाकी किसी की पूंछ तो कोई किसी का सिर। यानि फालो अप एंड रेगुलर अप। अप का जमाना है। सो हिमेश का अप सुर तीखा हो चला। सुरूर का गुरूर हो गया। नाक में वे गाते है पर नाक पर घमंड आ गया। घमंड ने अंधों पर लाठिया बरसाई। पुलिस को अधिकार है इस देश में कानून को अंधा करने का। सो पिटिए। टीवी ने इसे पीटा। सो गृहमंत्री ने कहा गलती हो गई। हो गई। पर दलित को मारा जाना गलती नहीं होती। जानबूझकर मारा जाता है। जान की कीमत तो वैसे भी नहीं है। सो मारे जाना तब तक खास नहीं होता, जब तक वो संख्या में ज्यादा हो या मुआवजा न मिले। मुआवजा मिला अभिषेक को। यश भारती पुरस्कार। बधाई हो। पिता के करम पर। दोस्त अमर सिंह धरम निभाते रहते है। चुनाव है भईया। देखिए चुनाव भी कितना लोकतांत्रिक हो चला है। जेएनयू में अमेरिकन छात्र चुना जता है। बढ़िया है। वैसे चुना तो था स्वेता ने भी राहुल को। पर टीवी और उससे पहले एक अखबार ने छापा। पीटा। स्वेता ने कहा नहीं पीटा। पर क्या टीवी को यही बच गया बताने को। बताइए। कि कैसे लोग मारे जा रहे है। देश में। मुंबई में गाड़ी चढा दी जाती है। गुड़गांव में सीरियल किलर पकड़ा जाता है। कारण कोई नहीं खोजता। कारण भष्टाचार का भी नहीं खोजा जाता। पर याद किया गया। मंजूनाथ को। याद है आपको। इण्डिन आयल का इंजीनियर। पेट्रोल माफियाओं द्वारा मारा गया। उसे एक टीवी चैनल ने याद किया। अच्छा लगा। पैसा पाना सभी को अच्छा लगता है। पर ऐश को ये मंहगा पड़ा। उनसे पूछताछ की गई। कहा गया कि वे निर्दोष है। निर्दोष पाकिस्तान के साथ फिर बाचतीत जारी हुई। रिकार्ड बनाएंगे हम बातचीत का। रिकार्ड टूटते है। सो खेल में दो युवकों ने सचिन-कुंबले का तोड़ा। ये देखना अच्छा लगा। टीवी इस पूछताछ में जुटा रहा कि भारतीय कितना बेसब्री से कैसीनो रोयाल का इतजार कर रहे है। नीली आंखो वाला, सपाट चेहरे वाला जेम्स बांड। ने काफी रिव्यू कराया अपना। खैर तेलुगू भी बोलता है ये जेम्स बांड। पर सरकारी भाषा बोलना सीखना हो तो मंत्रियों से सीखिए। देखिए ने हमारे पासवान साहब का घर, उनके बेटे का टेलिफोन बिल तक सेल ने भरा। औऱ वे अनजान बने रहे। चलिए मंत्री जी।जनता सब जानती है। जनता ने भी जाना कि ट्रेड फेयर में क्या क्या बिकता है। खिलौने, जूते, आइटम्स और चौंतीस देश के गलियारे। खूब भीड़ जुटी रही। खबर भी आती रही। खबर ये भी आई कि सीलिंग चलती रहेगी। पर टीवी के लिए ये रेगुलर खबर हो गई है। फालो अप जारी है। फालो अप बालीवुड वाले करते रहे है हालीवुड का। जैसे रानी ने किया, रानी मुखर्जी ने, उनके बाडीगार्ड ने पीट डाला। जैसे देश में मौजूद ब्रेंजेलिना, ऐसा ही कहता है टीवी ब्रैड पिट और एंजेलिना जोली को, का बाडीगार्ड अपना एक्शन दिखाता रहा है। सो एफआईआर दर्ज हुई। औऱ जमानत भी। जमानत। देते रहिए टीवी को।

'सूचक'
soochak@gmail.com

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In The Premises Of The National Broadcaster!!!

"Why media needs an insight look? Every time when tv journalist share their account of working , the agony, apathy and insenstivity looms large.You know all and we also. So when a particular case come to us, we get hurted. And this is not in the good faith of journalsim and media. So this is a lesson for us".....Mediayug.

An Open Letter To Mr. Nilanjan Mukhopadhyaya(DD News Research)
Dear Mr. Nilanjan Mukhopadhyaya (DD News Research),
This is with reference to the last conversation we had on the mobile on 17th November 2006. You had asked me to talk to you after I get well from my migraine.
Let me remind you of what happened on that day. You had scheduled my duty in the night shift from 16th and when I came back on 17th noon from the office, I had a severe migraine attack. Then in the evening at around 8.30 p.m., when I called you on your cellphone, Ms. Varsha picked it up. I told her my problem and asked for a leave which she responded with saying that with this attitude, we could not continue together and disconnected. Then I tried getting ready for the pick up as I had no choice, but then I thought of asking for the leave once more as I knew that I had to leave the office in the midnight only because my condition was getting worse. This time, with the same argument, shouting for a couple of minutes, Ms. Varsha again disconnected. Then my husband called up and you picked up the phone. He requested on my behalf to grant a Leave Without Pay very humbly but you arrogantly denied asking to transfer the phone to me. When he gave me the phone, before I could speak out something, you again started shouting at me and threatening me to sack. This time, my husband took the phone from me and asked for your final decision and you were stucked to the same argumentative position of the attitude problem, rather than considering it as prima facie related to the medical problem. He asked you to clear the dues and the conversation ended up. You had asked him that I must talk to you when I get well.
Now, considering the inhuman and exploiting conditions prevailing in your organisation, it is almost impossible for any sensible person to talk to you after the series of events which I had experienced under you in less than two weeks of working with you. Continuing working with you is far from the impossible, as I had been told from some of my aquaintainces who have previously worked with you. They too had a bitter experience of your feudal and autocratic working mechanism, but as you are better aware, the newcomers have no choice except being exploited in the hands of people like you who are currently governing the whole media.
It was shocking to Dr. Hemant Joshi also when I shared the experiences and the conversations I had with you during severe headache. He was deeply disappointed with this as he is aquainted with your democratic and progressive past and I came to you with his reference only. Although, there are many people in the Delhi media circle who never blink their eyelids on these type of daily events.You must be aware of them.
I am very disappointed with what happened between us...as individuals of the same profession as well as in the context of employee and employer dialectics. Far more than that, it is a matter of great sorrow that an exploitative machinery comparable to the feudal structures of the medieval period is operating inside the premises of the country's national broadcaster DD News.
I humbly request you to clear my dues and pay the salary of 12 days i.e. from the day of joining Nov 6th 2006 to Nov 17th 2006 which amounts to Rs. 2000.00 only according to the committed Rs. 5000.00 per month by you. Please send the cheque at my address. I hope that you will do this, although you have not paid the dues of many people who have worked with you in the past.I know them by names and faces.
I am no more in the condition to talk to you as there is no point in it. Please do send my cheque as it is in the larger interest of the media community, specially the newcomers who have a minimum trust on the seasoned journalists like you. You will break this trust completely if you do not pay for what I have experienced in your organisation.
I will not like to go into more technical details regarding the other irregularities going on in your organisation as they are not yet part of my empirical domain.
Regards,
Sheela
(This letter was sent to us by the writer on mediayug@gmail.com. Do feel free to share your media experiences with us at the above email id: Editor)

Monday, November 13, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर (2-10 नवम्बर)

मीडिया खेलता है। न्यूज़रूम खेलते है। राम जेठमलानी कहते है। दोषी कौन है। अदालतें तय करती है। वैसे भी सुबूतों पर ही न्याय टिका है। और टीवी भी। कैसे। आप जो देखते है। उस पर न्याय करते है। खबर सही है या गलत आप नहीं जानते। सो वैसा सोचते है, जैसा देखते है। देखिए। रविवार। छुट्टी का दिन। पर अदालत खुली रही। सद्दाम की छुट्टी जो करनी थी। एक मुल्क की किस्मत का रखवाला खिदमत को तैयार नहीं। सो दे दो फांसी। हालांकि ये किसी टीवी ने नहीं कहा। दरअसल सद्दाम के पूरे शासनकाल में ढाई लाख लोग मारे गए और पिछले दिनों अमेरिकी हमलों में सात लाख। पर मारे दोनों ने। सो सजाए मौत। एक को आज। एक को पता नहीं कब। टीवी न सोचता है, न सोचवा रहा है। सरकार भी नहीं सोच पा रही है।।क्या करे, क्या नहीं। सीलिंग करवानी है। सरकार को कुल्हाड़ी खुद के पैरों में मारनी है। पर अदालत का फरमान। मजबूर, परेशान, हैरान। सरकार और व्यापारी दोनों। वैसे अपनी करनी का फल सरकारें भोग रहीं है। तभी तो अमेरिका में में गधे जीत रहे है। डेमेक्रेट जीत रहे है। लोकतंत्र जीत रहा है। और शायद परमाणु करार हार रहा है। पर जीत भी हो रही है। और बेइज्जती भी। चैम्पियंस ट्राफी में आस्ट्रेलिया जीता। सो मंच पर रिकी पोटिंग और डेमियन मार्टिन ने हारी भारतीय क्रिकेट टीम के आलमबरदार शरद पवार साहब को जाने के कह दिया। वैसे दर्शक बोर हुए। उमराव जान को देखकर। मजा नहीं आया। एक सिनेमा हाल से निकलते दर्शक ने कहा। कैसी कैसी अफवाहें। पर सब बेकार गई। अब शादी का क्या होगा ऐश। उसे भी उतर जाने का संकत दे दिया। दर्शकों ने। कुछ ऐसे ही संकेत मायावती ने मुसलमानों को दिए है। कम से कम टीवी यही बखा रहा है। टीवी पर अमिताब को डाक्टरेट लेते देखा होगा। योग्यता का एक और पैमाना। पर टीवी तो जूनियर अमिताब के हेयर स्टाइल के देखता रहा। देखिए लोकप्रियता भी किस किस चीज से मिल जाती है। धोनी खेलते है। पीटते है। और बालों को लहराते है। और बाल भी कटवाते है। सो इस कटिंग को टीवी के दो महान चैनलों ने कवर किया।क्या करें हमेशा बोरियत भरे खबरें कितना चलाएं। जो गंभीर खबरें है, वे आती है। पर धूप में बरसात की तरह। सियार की शादी की तरह। और देखिए चुनाव भी तो देश में शादी की तरह होते है। यूपी में हुए। नगर निकायों के। हो हल्ले के साथ। गोली बंदूक के साथ। धनबल के बीच। सो जीती जातियां और पार्टियां। दल और बल। हारा वोटर और मतदाता। हारा को पर्यटन भी। जयपुर में नंगानाच किया विदेशियों ने। देश के नियम तो केवल देशी के लिए होत है न। नियम , ताक पर रखे जा चुके है। नागपुर में दलितों के प्रोटेस्ट पर हुए तमाशे को तो देखा होगा। चलिए चलता रहेगा ये सब। जानते रहिए देखते रहिए टीवी।

'सूचक'
soochak@gmail.com

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Wednesday, November 01, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर (24 अक्टूबर -1नवंबर )

क्या देखा इस हफ्ते आपने। खबरें या हीरोज़। देखा ही होगा आपने। लिटिल चैम्प हो या नच बलिए। ये छाए रहे। संचिता, दिवाकर, समीर। मोना सिंह। इन्हें उत्तर भारत ने जम कर देखा। अब ये अलग बात है कि सिम खरीदकर वोटिंग करवाना गलत नहीं है। सो खबरों में जो चला वो कितना याद होगा। सर्वे भी आ गया कि भारतीय न्यूज पांच से दस मिनट के बीच देखते है। लीजिए। वैसे फांसी की दरकार की बात थी। सो कोर्ट ने कही दी जाए। संतोष को फांसी जी जाए। सुशील शर्मा के साथ रखा जाए। कौन सुशील। तंदूर कांड वाला भई। देखिए टीवी इतिहास को कितना कम याद करता है। केवल जीत न्याय की नहीं, भावना की हुई। लोकतंत्र में लड़ते रहने की हुई। लड़ ही रहे थे। पहले प्रधानमंत्री के लिए, फिर उपप्रधानमंत्री के लिए। प्रणब दा। विदेश मंत्री बना दिए गए। एंटनी को डिफेंस। खैर टीवी की इंट्रेस्ट जेपी यादव में रही। दागी मंत्री जी दोबारा मंत्रिमंडल में। मंत्री अगर मुख्य हो तो उसका रसूख खूब होता है। तभी तो कर्नाटक के सीएम के बेटे ने खूब धमाल मचाया। ताकत है। जोड़ो में या ज्योतिष में। ऐश की फिल्म अभिषेक के साथ आ रही है। पिछली बार टीवी ने ब्रेक किया था, कि अजिताब बच्चन कुंडली मिलवाने आए है। इसबार अमिताब चाहते है कि वे बेटे के बेटे के दादा बने। पर ध्यान रखिए इस पेयर की फिल्म आ रही है। और जहां टीवी ने उन्हे घेरा वहां जेपी दत्ता भी थे। बीत में बैठे। खैर अमिताभ को ये सोचना चाहिए कि बच्चों की फिक्र उन्हे जरूर करनी चाहिए। आखिर पोलियो के मामले राजधानी में मिले है। एक दिन तो ऐश्वर्या का जन्मदिन टीवी ने ऐसा मनाया कि लगा वे रियल लाइफ में महान है। वे अकेली तो मिस वर्ल्ड नहीं। और न ही खूबसूरत।पर टीवी प्रचारों में छाई है, सो खूब दिखाने में क्या हर्ज है। दिखे। पीएम भी। सिक्योरिटी लैप्स या कोई साजिश। टीवी सोचता थोड़ा है। माना कि थ्रेट है। माना कि ईमेल है। पर इंसानी गलती तो मान्य है। पर माफ करिए टीवी पर नहीं। तभी तो टीवी पर एंकर न जानते हुए भी बैठते है। और गलत जानकारी देने पर भी माफी नहीं मानते। खैर जानते तो आप भी नहीं। जानते तो मोबाइल को दिल से लगा कर नहीं रखते। अरे भई मर्द की मर्दानगी को खतरा है सेल। ये खबर झूम के चली। पता नहीं जानकारी थी या कुछ था ही नहीं चलाने को। क्योंकि एक चैनल पर तो ब्रेक में सेलफोन का एड ही चला। एड और एड्स में कितना अंतर है। खबर भर का।क्योकि एड़्स के एड तो आप खूब देखते है, पर जब वो तबर बन जाए तो अलग दिखता है। सो बिहार पुलिस में जब एड्स की खबर को एक्सक्यूजिव दिखाकर चलाया गया तो समझ नहीं आया कि ये खबर है या जानकारी। एक और जानकारी। अबू सलेम से जुड़ी। रूकिए उसे फांसी नही होने जा रहा है। लोकतंत्र है भई। सो चुनाव उसका है। सजा भोगे या मजा। सो एक पोस्टर दिखा टीवी पर। कहा गया कि चुनाव लड़ेगी भाई। लड़ने दीजिए। जीतने दीजिए। कौन से अपराधी कम है राजनीति में। आग लगी। सो खबर बनी। रिलायंस के रिफायनरी में धधका। देश में लगा कि कल खाना बन पाएगा या नहीं। आयात करो। पर टीवी को विजुअल एक्सक्लूजिव की चिंता रहा। ये जानना मुश्किल रहा कि असल में इससे असर क्या पड़ेगा। असर पड़ेगा। महिला पर अत्याचार करना भूल जाइए। कानून आ गया है. पर टीवी ने ही कलई खोल दी। की मामले दिखाए कि कानून हो चाहे न हो मानसिकता नहीं बदलेगी। क्यों बदलें। हम ऐसे ही है। यूं ही त्यौहार मनाते है, सेवईयां खाते है, गले मिलते है। ईद मनाते है। अच्छा लगा टीवी पर भाईचारे को देखकर। पर मैच में भाईचारा कम होने लगा है। मैच लड़े जाते है। प्रचार वार करते है। और करार पाई कंपनिया एक दिन का खर्चा नहीं निकाल पाती। खैर ये तो चलता रहेगा। देखते रहिए टीवी।

'सूचक'
soochak@gmail.com

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