Wednesday, January 31, 2007

आधार खोता टीवी..

दंगा भड़का हुआ है टीवी पर। एक मरा। गोरखपुर सुलगा। मोहर्रम के ताजिए रूके। शांति है पर सुकून नहीं। क्या तमाशा है। दिनभर ये बताता रहा टीवी समाचार कि गोरखपुर खतरे की भट्टी में झुलस गया है। पर इस ओर लगे कैमरों की नजर लगातार मर रहे विदर्भ के किसानों की ओर नहीं गई। क्यों। सस्पेंस नहीं है। तनाव नहीं है। दर्शक नहीं है। या टीवी के लिए सांप्रदायिक दंगा ज्यादा आंखे खींचता है। शायद हां। पूर्वी महाराष्ट्र के जिलों में जनवरी में बासठ किसानों ने जान दे दी। आत्महत्या कर ली। जीवन की इहलीला समाप्त कर ली। वे बेबस है। लाचार है। टीवी पर लाचारी नहीं दिखाई जा सकती। वो बेबसी को भी नहीं भुना सकता। वो आंखों को लुभाने वाला मीडिया हो चला है। दंगा उसे प्रशासन, सत्ता और आम आदमी को ताकत दिखाने का मौका देता है। और वो इसे प्रचारों से भुनाता है, पर किसान मरता है। खेती मर रही है। गांव सिमट रहा है। गांव में भी कोक पेप्सी बिकती है। पर वो प्रचार से नहीं मौजूदगी से बिकती है। सो गांवों से टीवी दूर है। और उसकी समस्या को टीवी क्यो दिखाएगा। ये सवाल राज्य सरकार से भी है कि क्यों वो मौतों को मुंह पर हाथ रखकर देख रही है। प्रधानमंत्री दौरा कर चुके है। टीवी उसे दिखा चुका है। पर अब टीवी क्या करे। हर दिन तो लोग मर रहे है। कितना दिखाएं। कर तो दिया हाफ एन आवर का स्पेशल। यही ठहराव है, जहां के आगे टीवी देखना बंद कर देता है। वो अपनी ताकत भूल जाता है। संकुचित, कूपमंडूक और स्वनिर्मित दायरों में खुश। दरअसल खुश कौन नहीं है वो ये जानना नहीं चाहता। उसे लगता है लोग खुशी को देखना चाहते है। पार्टियों, शादियों और क्रिकेट की खुशी। पर क्या ये लोग देखना नहीं चाहते। क्या पता। देश की गरिमा का विषय ऐश- अभिषेक की शादी है या आर्थिक विकास की दौड़ में भाग रहे देश में किसान का मरना। देखना होगा। विदर्भ एक कड़वा सच है। पर विदर्भ ही नहीं, बुंदेलखण्ड, कालाहांडी, अनंतपुर, शोलापुर, मंडला, बेलगाम, बिलासपुर, बस्तर सभी को देखना होगा। आप नहीं देख सकते। टीवी ही एक माध्यम था, जो सच को जैसे का तैसा दिखा सकता था। पर वो कहां खो चुका है, ये तलाशना बाकी है। एक वित्तचित्र सारी हकीकत बयां कर सकता है। पर हाय रे बाजार, टीवी पर डाक्यमेंट्री देखी नहीं जाती। तो क्या सच देखना अब संभव न होगा। किसान मरता रहेगा। गरीबी बढ़ती रहेगी। औऱ असंतुलन भी। शायद हां। क्योंकि टीवी एक जनसंचार माध्यम से एक लाचार सीमित संचार माध्यम नजर आने लगा है। क्या वो सवाल खड़े करने में कमजोर हो चला है। हां, क्योंकि वो सरोकार खो रहा है। वो आधार खो रहा है। क्या इसे वापस पाया जा सकता है। हां, अगर वो खुद को सचाई के बरक्स ऱखकर सच के साथ खड़ा हो पाए,तो यकीन जानिए भारत को बदलना कुछ साल का सपना भर रहेगा। और अभी तो सपना भर है....

"सूचक"
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Tuesday, January 30, 2007

75 वर्ष बनाम डेढ़ घंटे: हिंदी साहित्य उर्फ़ पेज थ्री संवेदना


27 जनवरी 2007 को एक अद्भुत घटना घटी...पता नहीं यह पहले ही हो गया या हमें पता बाद में चला, एक समूचा शहर अपनी तमाम संवेदनाओं, दावों और मानवीयता के साथ मौत की नींद सो गया। जानते तो हम पहले भी थे और अब भी हैं कि दिल्ली की दीवार यूं तो बहुत ठोस होती है और उसे भेद पाने के लिए हरक्यूलिस जैसी ताक़त चाहिए, लेकिन देखा पहली बार...75 वर्ष का जिया एक जीवन पंचतत्व में विलीन हो गया और साथ ही भस्म हो गईं उन लोगों की तमाम संवेदनाएं, मिट गए सबके ओढ़े हुए दुख और छीज गया लेखक होने का झीना परदा...

कमलेश्वर की मौत दरअसल देश की सांस्कृतिक राजधानी और साथ ही राजनीतिक राजधानी के तमाम बौद्धिक नुमाइंदों के बेनकाब हो जाने के लिए एक माध्यम बन गई...जाते-जाते कमलेश्वर यह सबसे ज़रूरी काम कर गए। अंत्येष्टि स्थल लोदी रोड पर जमावड़ा था दिल्ली के तमाम संपादकों, लेखकों और पत्रकारों का... और कहना न होगा कि कौन कितना दुखी था, यह उसके द्वारा टीवी चैनलों को दी जा रही बाइट, चैनलों को दिए जा रहे फोन-इन और पत्रकारों से की जा रही बातचीत में अभिव्यक्त हो रहा था।

एक ओर दूरदर्शन के महानिदेशक और बड़े कवि लीलाधर मंडलोई अपने ही सरकारी चैनल को बाइट देने में लगे हुए थे तो दूसरी ओर चित्रा मुदगल अपने फोन पर कमलेश्वर की जीवनी किसी चैनल को दिए जा रही थीं। नाम बहुत से हैं, किनकी-किनकी बात करें...बात नाम की नहीं है...क्या यह कहने में कोई संकोच हो सकता है कि यह वक्त और जगह बाइट देने की नहीं है...

हमारी दूसरी पंक्ति के लेखक...कुछ युवा और कुछ अधेड़ वहां मौजूद संपादकों और पत्रकारों से जुगाड़ भिड़ा कर इस मौत को शब्दों में ढाल कर सबसे पहले छप जाना चाहते थे...हमारे एक युवा मित्र इस बात को लेकर परेशान थे कि चूंकि अंतिम साक्षात्कार कमलेश्वर का करने का मौका उन्हें ही मिला, इसलिए अब कहां छपने की जुगत लगाई जाए। भागलपुर से आए एक अल्प चर्चित कहानीकार और फोटोग्राफर रंजन श्मशान स्थ‍ल पर साहित्यकारों के बगल में डिफॉल्ट खड़े होकर अपने चेले-चपाटों के द्वारा फोटो खिंचवाने में लगे थे...उनके उत्साह पर रोक लगाने की जब मैंने कोशिश की तो उन्होंने मुझे ही फ्रेम में उतार लेना चाहा...क्या है ये सब। क्या यह मान लिया जाए कि हिंदी प्रदेश की जनता संवेदनहीन हो चुकी है, विवेकहीन हो चुकी है अथवा यह एक शहर की मौत के संकेत हैं...कौन ज़िम्मेदार है।

बात यहीं तक रहती तो भी कम अक्षम्य नहीं है...उसी शाम गांधी शांति प्रतिष्ठान में 4.00 बजे कथाकार शिव कुमार शिव के नए उपन्यास का लोकार्पण और प्रथम सुधा सम्मान समारोह था...सुधा शिव जी की पुत्रवधू का नाम है जिनका दुखद देहांत पिछले वर्ष हो गया। आधे से ज्यादा जनता डेढ़ घंटे के शोक के बाद वहीं पाई गई...हां, हम भी वहां थे यह कहने में कोई संकोच नहीं...हम गए थे देखने तमाशा कि कैसे उड़ते हैं चीथड़े ग़ालिब के...

राजेंद्र यादव, असग़र वजाहत और कई अन्य मंचस्थ...ठीक 4.30 पर...अभी कमलेश्वर की चिता की आग भी शांत नहीं हुई थी। खचाखच भरा हॉल और अपने-अपने आदमियों को मिलने वाले पुरस्कारों के बेकल इंतज़ार में जुटी साहित्यिक भीड़ जिसे पिछली रात हुई मौत से रंच मात्र लेना-देना नहीं था शायद...मैंने शिवजी से पूछा था वहीं पर कि क्या कार्यक्रम स्थगित नहीं किया जा सकता...उन्होंने 'नहीं' में जवाब दिया...माना जा सकता है कि भागलपुर से दिल्ली आई जनता की तकनीकी दिक्कतात रही होंगी...यादव जी और वजाहत साहब का क्या...क्या अपनी संवेदना को बचाने का साहस उनमें भी नहीं....

एक सज्जन हैं अजय नावरिया...दलित आलोचक...उन्हें अंत्येष्टि स्थल पर सभी को खुलेआम यह निमंत्रण देते पाया गया कि आज उन्हें पुरस्कार मिलने वाला है और सभी अवश्य आएं...क्या यह अश्लीलता से कम कुछ भी है...जी हां, उन्हें आलोचक की श्रेणी में पुरस्कार दिया गया...कहने की ज़रूरत नहीं कि क्यों और कैसे। पुरस्कार किन्हें दिए गए और क्यों...ये नाम देखकर आप खुद समझ जाएंगे...हिंदी में कहानीकार रंजन से बेहतर हैं, आलोचक अमरेंद्र और अजय नावरिया से प्रखर और टीवी पत्रकार वर्तिका नंदा से तेज...लेकिन पुरस्कारों की बगिया में एक ही प्रसून खिलता है...यह बात और आगे जाती है, खैर...

तो याद कीजिए पेज थ्री...मधुर भंडारकर की वह फ़िल्म जिसमें शहर में होने वाली मौतों पर नम होने वाली आंखों पर काले चश्मे दिखाए गए थे...अजीब बात है कि दुनिया को देखने वाला सभी का चश्मा लाल है, दिखाने वाला भी लाल...लेकिन मौत हमेशा काली ही दिखाई देती है...और काले में पारदर्शी आंसुओं को छुपाया दिखाया जा सकता है...

75 वर्ष के ए‍क जीवन को डेढ़ घंटे के शोक में बिसार दिया गया...यह हिंदी का पेज थ्री है...दरअसल, दोनों में अब कोई विभाजक रेखा नहीं रही...


अभिषेक

Sunday, January 28, 2007

स्मृतिशेष: कमलेश्वर


कमलेश्वर जी के निधन की ख़बर मुझे तीन घंटे बाद मिली...और आश्चर्य मानिए कि जिस सकते में मैं था उससे ज्यादा अफ़सोस था कि तीन घंटे ग़ुज़र गए राजा निरबंसिया को गए हुए और हमें भनक तक नहीं। मैंने तुरंत उनके घर पर फ़ोन लगाया...फ़ोन उनके नाती ने उठाया यह तो मुझे बाद में पता चला, लेकिन उनका स्वर बुरी ख़बर की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त था।

कैसा शहर है यह...। मैंने तमाम लोगों को तुरंत मोबाइल से संदेश भेजा, अख़बारों में फ़ोन किया...किसी को पता नहीं था कि 1963 में जिस नई कहानी की प्रवर्तक तिकड़ी के एक अदद लेखक कैलाश सक्सेना ने 'दिल्ली में एक मौत' नामक कहानी किसी सेठ दीवानचंद की मौत पर लिखी थी, वह 44 साल बाद उस कमलेश्वर पर लागू हो जाएगी।

अब कई बातें कही जाएंगी, उन्हें‍ तरह-तरह से याद किया जाएगा। सिर्फ एक संस्मरण है दो साल पहले का...जो 75 साल की अवस्था‍ में जी रहे, कैंसर से लड़ रहे एक जीवन को व्याख्यायित करने के लिए काफ़ी है। मौर्या शेरेटन होटल के कॉनफ्रेंस हॉल में सीएनएन नाम के एक अख़बार का लोकार्पण था और कमलेश्वर मुख्य अतिथि थे। सारी औपचारिकताएं पूरी हो जाने के बाद अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में उन्होंने मालिक को सबके सामने नंगा कर के रख दिया। बड़ी शिष्टता और विनम्रता से उन्होंने कहा कि अब तक संपादक का पद अख़बारों में लिखा जाता था और वह प्रच्छन्न ही होता था...बागडोर मालिक के हाथ में होती थी। बेहतर है कि इस अख़बार का मालिक, संपादक, मुद्रक और प्रकाशक एक ही है। कम से कम इससे कोई भ्रम संपादक को लेकर इस अख़बार के संदर्भ में पाठकों को नहीं रहेगा।

ऐसा था कमलेश्वर का साहस, प्रयोग और उनकी मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता...जिस अवस्था में हिंदी के नामवर लेखक देश भर में घूम-घूम कर अपना अमृत महोत्सव मनाते हैं उस अवस्था में कमलेश्वर आख़िर तक लेखकीय मूल्यों और पत्रकारीय स्वतंत्रता के लिए लिखते और लड़ते रहे। उनकी ज़बान और आवाज़ हिंदी में तब तक याद की जाती रहेगी जब तक शब्द बचे रहेंगे, उनके अर्थ बचे रहेंगे और बची रहेगी इंसानी आवाज़...आज़ादी और साहस की...

कमलेश्वर को हमारा शत्-शत् नमन...

अभिषेक
28.01.2007

Tuesday, January 23, 2007

क्यों है टीवी विश्लेषण की जरूरत...

हर विश्लेषण की एक जरूरत होती है। सीमा होती है। उद्देश्य होता है। टीवी का विश्लेषण क्यों। अखबार, पत्रिका या लेखों का तो नहीं होता। फिर पत्रकारिता की इस विधा की चीरफाड़ क्यों। जिस देश में टीवी ने पचपन साल से ज्यादा का समय बिताया हो, तमाम तरह के रंगों को बिखेरा हो, वो आज कहाँ खडा है। ये कौन देख रहा है। दर्शक तो नहीं। जो बहाव जानता समझता है, पर उसे स्वीकार कर लेना, उसकी मजबूरी है। पर समाजशास्त्र से राजनीति, मनोविज्ञान से भाषा और नृविज्ञान से विज्ञान का ज्ञान रखने वाले विश्लेषण को सदैव धारा में स्पीड ब्रेकर की तरह देखते आए है। थोड़ा रूकिए, सोचिए औऱ दुबारा एक्सीलिरेटर दबा दीजिए। ये वक्त देना जरूरी भी है और उपयोगी भी। तभी चलन के विश्लेषण को प्रथम धर्म माना जाता रहा है। फिल्में विश्लेषित की जाती रही है। उनमें समाज दिखने की बात स्वीकारी जाती रही है। आने वाली किताबों का विश्लेषण उनकी ताकत को बताने वाला होता है। खरीदार इससे प्रभावित होता रहा है। पर टीवी का खरीदार सिर्फ गिना चुना,पढ़ा लिखा,सोचा समझा ही नहीं है। वो गरीब भी है, अमीर भी,लिट्रेट भी है इललिट्रेट भी। और तो और एक इकाई भी है समाज का। परिवार में टीवी मांसाहारी भोज नहीं है। जिसे मन आए खाए, जिसे न आए, न खाए। बल्कि टीवी वो घड़ी है जिसमें सबको समय देखना जरूरी हो चला है। तो क्या समय बता रहा है टीवी। बदलते दौर का सच। घर का सच और सच के साथ दिखता झूठ। टीवी की मर्यादाएँ क्या है। दायरा क्या है। लेकिन टीवी वाला ये सवाल भी उठा सकता है कि कौन पूछ रहा है ये सवाल। दर्शक तो नहीं। सही है। दर्शक देख रहा है। पर हर नई खबर से हर नए चलन से, हर नई सूचना से वो सिर्फ तभी अपने आपको नहीं जोड़ता है जब वो जरूरी या लाभकारी ही हो। तभी शायद देश में मनोरंजन चैनल और तरह के चैनलों से ज्यादा देखे जाते है। परिपाटी जो भी। पेश जो भी हो। पर सामाजिक, सांस्कृतिक और धरातलीय आधारों पर ही कोई भी प्रस्तुति ग्रहण की जाती रही है। याद करिए नब्बे के दशक के पहले आपको अंग्रेजी फिल्में हिंदी में डब नहीं मिलती थी। समय बदला,सोच बदली और बदल गया ग्रहण करने का मानक। वैसै आज टीवी पर जो भी दिखाया जा रहा है वो क्या है। ये केवल इस पर निर्भर नहीं कर करता है कि समाज कैसा है। अपितु सवाल यहीं से शुरू होता है। चैनल चलाने वाला भी मानता है कि बाजार हावी है। कंटेंट पर। तभी सीरियल्स में ब्रांडेड चीजें है। फिल्मों में उत्पाद प्रदर्शन है। और समाचारों में एसएमएस का जोर है। टीवी को सच के नजदीक खड़े होने का डर है। सच को बाजार भी नहीं मानता। वो ग्राहक को मानता है, जानता है। सो बेचता है। अब बेचने के लिए प्रचार करना होता है। प्रचार में बहसना होता है। और बहसने में झूठ बोलना होता है। सो टीवी एक झूठ गढ़ रहा है। एक कल्पित झूठ। आपका मध्यमवर्गीय परिवार वैसा नहीं है जैसा टीवी पर दिखता है। आपका रंग रूप वैसा नहीं है जैसा टीवी पर दिखने वालों का है। और न ही आपके साथ घटी खबर वैसी है जैसी दिखाई जा रही है। तमाम बदलावों के साथ रोजाना आप टीवी से जुड़े है। सो चिंता है। सवाल है। और इन्ही सवालो के जवाब में किए जा रहे है विश्लेषण। ये विश्लेषण उस दूरी को दिखाने वाले हैं जो पैदा हो चली है। जाने अनजाने या सोचे समझे। ये विश्लेषण किसी को ये बताना नहीं है कि तुम गलत हो, बल्कि प्रभाव और कुप्रभाव के बीच जा रहे टीवी को जगाने की है। एक जनसंचार माध्यम के तौर पर अपनी पहचान को जानने की जिज्ञासा टीवी खोता जा रहा है। तो क्या बुरा है कि उसे समझाया जाए कि टीवी वो माध्यम है जो बदलाव ला सकता है। उसकी अपनी शक्ति है, अपना मुकाम है। वो घटनाओं का लाइव गवाह है। इतिहास का लाइव विटनेस है। वो जनमत बनाता है,वो फैसले बदलता है। वो अकेले के साथ समाज को जोड़ता है। वो आपको ताकत का अहसास कराता है और वो वर्तमान को भविष्य के करीब खड़ा करता है। और अगर उससे कोई भी ये आशा रखता है कि वो देश-काल और सही के साथ जु़ड़कर चले तो, तर्क क्यों।

मीडियायुग
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Monday, January 22, 2007

नौवें महीने का दर्द और एक आह्वान

साथियों,
काफी दिनों बाद मैं इस ब्‍लॉग पर कुछ लिख रहा हूं। जो लोग इस ब्‍लॉग के आरंभ से लेकर अब तक मुझे अंग्रेजी में लिखने की वजह से गालियां देते थे, उनके लिए मैंने काफी कोशिश की कि मेरे पास कोई ऐसी तकनीक आ सके जिससे मैं रेमिंगटन टाइपराइटर से ऑनलाइन हिंदी में लिख सकूं। मेरे अजीज़ दोस्‍त अविनाश ने आखिरकार मेरी मदद की और मुझे अपनी सुविधा का सॉफ्टवेयर मिल ही गया। आप भी यदि रेमिंगटन टाइपराइटर के मेरी तरह ग़ुलाम हों तो मैं आपकी सेवा में हाज़ि‍र‍ हूं।
ख़ैर, हमारे इस ब्‍लॉग को आठ महीने इस साल की छह तारीख़ को ग़ुज़र गए और हम नौवें महीने में चल रहे हैं। जैसा कि हमने अपने पहले पोस्‍ट में साफ़ किया था, हम टीआरपी के व्‍यापार का सामना और ख़ुलासा करते हुए एसआरपी यानी सोशल रेस्‍पॉन्सिबिलिटी प्‍वाइंट (सामाजिक दायित्‍व सूचकांक) की बात करेंगे और ख़बरों के सामाजिक दायित्‍व की अवधारणा को प्राथमिकता देंगे। इसके अलावा हमने यह भी तय किया था जो ख़बरें मुख्‍यधारा के मीडिया से छूट गई हों, हम उन्‍हें पेश करते हुए मुख्‍यधारा के मीडिया की सकारात्‍मक आलोचना प्रस्‍तुत करेंगे। जितनी हमारी सामान्‍य समझदारी रही और जितने संसाधन रहे, उनके मुताबिक अपनी समयबद्धता के साथ हमने यह काम करने की कोशिश की है, लेकिन अब भी कई अफ़सोस ऐसे हैं जो समय के साथ तीखे होते जा रहे हैं, बल्कि सीने का दर्द नौवें महीने का प्रसव कष्‍ट बन चला है।
ऐसा क्‍यों है- इस पर बात करने से पहले हमें एक बार बीते वक्‍त पर नज़र डालने की ज़रूरत है। न सिर्फ मीडिया की कारगुज़ारियों के संदर्भ में, बल्कि अपनी भूमिका और कार्रवाइयों के संदर्भ में भी। पिछले दिनों, जैसा कि आप भी जानते हैं, मीडिया ने कई ऐसी घटनाओं के संदर्भ में विवादास्‍पद भूमिका निभाई जो हमारे समाज की दशा-दिशा तय करने वाली रहीं। कई घटनाओं को खारिज कर दिया गया, लेना ही मुनासिब नहीं समझा तो कई का उत्‍सव मनाया। मसलन, आप पाएंगे कि पिछले दिनों हमारे यहां विकास के मौजूदा मुहावरे पर सत्‍ता विमर्श जिस तरीके से चला, और राजनीति से लेकर मीडिया में जैसे इसे बरता गया, वह अभूतपूर्व है। चाहे वह दिल्‍ली की झुग्गियों का सफ़ाया हो या मध्‍यवर्गीय आशियानों की सीलिंग, आदिवासियों की ज़मीनों का खनन के लिए कब्‍जाया जाना हो या सिंगुर, बझेडा खुर्द और नंदीग्राम में किसानों पर ज़ुल्‍म और विशेष आर्थिक क्षेत्र का सवाल, किसानों की आत्‍महत्‍या हो या खैरलांजी में दलितों की हत्‍या- ये सभी कुछ विकास के नाम पर किया गया। ऐसा विकास जिसकी कीमत इस देश की उत्‍पादक जनता को विस्‍थापन से चुकानी होती है। यह दरअसल पूरे देश का ही विस्‍थापन है, लेकिन मीडिया में देखिए, इन मुद्दों के प्रति संवेदनहीनता का आलम यह है कि एक आम दर्शक टीवी का यही सोचेगा कि ये कुछ ऐसी छिटपुट घटनाएं हैं जिनका मौजूदा सत्‍ता-समाज से कोई अंतरंग लेना-देना नहीं। हमारा नौवें महीने का दर्द यहीं से शुरू होता है।
यूं तो हम साथियों ने यह मान कर चीज़ें शुरू की थीं कि समूचे जनसंचार परिदृश्‍य पर ही बातें रखी जाएंगी, लेकिन हुआ यह है कि अख़बार और रेडियो जैसे जिन माध्‍यमों में विस्‍थापन का यह दर्द अभिव्‍यक्‍त हुआ भी है, उन्‍हें हमने जाने-अनजाने या तो कम लिया है या भूल गए हैं। सिर्फ टीवी चैनलों से बात बनती नहीं, क्‍योंकि आज की तारीख़ में टीवी माध्‍यम अब भी हमारे जैसे तकनीक भीरू देश में अपरिपक्‍व ही है। एक विशाल तादाद उन पत्रिकाओं और सम-सामयिक पत्रों की है जो विकास के सरकारी मुहावरे को चुनौती दे रहे हैं, अपने ही दायरे में सही। इसके अलावा जनांदोलन अपने आप में महत्‍वपूर्ण हो गए हैं, जो किसी भी मीडिया से ज्‍यादा विश्‍वसनीय ख़बरें मुहैया कराते हैं, भले ही एक पत्रकार उन्‍हें एकपक्षीय कहे। मुझे ऐसा लगता है कि अब हमें खुले तौर पर इस मिथक को नष्‍ट कर देना होगा कि वस्‍तुपरकता एक वास्‍तविकता है। एक पत्रकार होने के नाते मैं यह बात इसलिए कर रहा हूं क्‍योंकि हम, आप और सभी किसी न किसी वास्‍तविकता के पक्ष में अथवा वास्‍तविकता के किसी एक पहलू की ओर ज़रूर होते हैं। फिर अपने पेशे में ऐसा स्‍वीकार करने का साहस क्‍यों नहीं। माना कि व्‍यावसायिक दबाव हैं, तो ब्‍लॉग जैसे माध्‍यम इसीलिए बने हैं।
एक बार सोच कर देखें, कि ज्‍वलंत समस्‍याओं पर क्‍या हमारे पेट में दर्द उठता है। यदि हां, तो क्‍या हम अपने-अपने खोलों में कुछ हलचल पैदा कर पा रहे हैं। यदि हम नंदीग्राम के मसले पर स्‍टोरी लिखते हैं या पैकेज काटते हैं, तो क्‍या इतना जनझुकाव रखते हैं कि सीपीएम के दफ्तर के सामने जाकर जनता के बीच एक नया नारा उछाल सकें। यदि नहीं, तो क्‍या वह वक्‍त अभी नहीं आया है। ब्रेख्‍त ने कहा था, 'आज और अभी/दुनिया को तुम्‍हारी ज़रूरत है।' क्‍या सिर्फ एक लेखक-पत्रकार के रूप में ही, क्‍या कोई और समानांतर भूमिका नहीं बन सकती। क्‍या हस्‍तक्षेप नौकरी से बाहर संभव नहीं।
ये कुछ सवाल हैं जो हम आपकी जनपक्षधरता के नाते उठा रहे हैं। हम चाहते हैं कि एक ऐसा माध्‍यम हो जहां खुल कर बातें हों, सवाल-जवाब हों और हम पक्ष लें। इसीलिए नौवें महीने का यह दर्द आगामी दिनों में एक वेबसाइट की शक्‍ल लेने जा रहा है। हम सिर्फ ब्‍लॉग तक सीमित नहीं रहना चाहते, वेबसाइट इस दिशा में हमारा पहला ठोस कदम होगा जो आप सभी के सहयोग से संभव हो सकता है। एक ऐसी वेबसाइट जिस पर हम लिख सकें, आप लिख सकें और दुनिया का कोई भी व्‍यक्ति लिख सके- ऐसा शब्‍द जो आखिरी आदमी के साथ हो, जनविरोधी सत्‍ता और उसके मीडिया समेत तमाम अंगों के खिलाफ़ हो और एक बेहतर दुनिया की कल्‍पना और प्रयास में सजग हो।
इस लिहाज से हम आप सभी से उम्‍मीद करते हैं कि इस ब्‍लॉग को एक बहुत अच्‍छी संवादात्‍मक वेबसाइट में बदलने के लिए जो भी कुछ ज़रूरी और आपके अनुभवों और समझ के हिसाब से यथासंभव हो, उस पर अपनी प्रतिक्रियाएं देंगे। आपके सुझाव हमारे लिए बहुमूल्‍य हैं- आप अपनी दक्षता और अनुभव के आधार पर रूप से लेकर कथ्‍य तक कुछ भी सुझा सकते हैं। आखिर वह वेबसाइट हम सबकी होगी, उन तमाम लोगों की जिन्‍होंने एक बेहतर मीडिया का सपना देखा है। क्‍योंकि बेहतर मीडिया ही बेहतर दुनिया के लिए बेहतर समझ बना सकता है।
आपके सुझावों का तहेदिल से इंतज़ार...
आपका ही,
अभिषेक श्रीवास्‍तव

Sunday, January 21, 2007

टीवी की गंगा डुबकी...


पाप धुल लो। गंगा में डुबकी। टीवी लगा रहा है। रोजाना। सुबह सवेरे स्क्रीन पर एक एंकर, एक साधु, कल कल बहती गंगा। अर्ध नग्न भक्त। डुबकी की कतार। और कैमरे पर श्रद्धा की पूछ। आस्था का कुंभ है। अनास्थाईयों को लुभा रहा है टीवी। बताता है। केवल मेला नहीं है। जीवन है। बहाव है। कला है। संस्कृति है। और है भीड़। नियंत्रित। व्यवस्थित। औऱ टीवी से दूर। भोर अंधेरे गंगा की गोद में वे डुबकी लगाते है। टीवी पर संवाददाता बताता है। देखिए ये डुबकियां लगाई जा रही है। मानो नई बात हो देश के लिए। पर ये जरूरी है। जिस देश में केवल और केवल रोना रोने का चलन हो, वहां मात्र श्रद्धा और आस्था के बहाव में बहते करोड़ों लोग। एक डुबकी का तीर्थ बटोरने आएं हो, तो आश्चर्य विदेशियों को ही नहीं, हर टीवी देखने वाले को होता है। पावन गंगा। पर यहां भी विरोध दिखा। गंदी गंगा का। साधु बिफर गए। टीवी खुश हुआ। मुद्दा मिला। केवल साधुओं की भेष-भूषा और इंतजामों की सुना सुना कर वे ऊब रहे थे। चलो कमंडल का जल डिब्बे में आया। विजुअल बने। खूब दिखाया। साधु गुस्सा है। टीवी उछालता है। खैर मामला शाही स्नान आने तक दब जाता है। करोड़ों डुबकी लगाते है। हर हर गंगे। नागाओं में होड़ दिखती है। प्रशासन डरा लगता है। टीवी कैमरामैनों में होड़ है। कौन कितनी नग्नता दिखा लेता है। ये सात्विक नग्नता है। सभ्य समाज की समझ से परे। इसे शायद केवल विदेशी ही समझ सकते है। एक कोने में लाठी पर गठरी बांधे भोला भी विस्मित है। वो पटना से नहाने आया है। पर इस हो हल्ले को देखकर सहम जाता है। जैसा साउथ दिल्ली के सफदरजंग इन्क्लेव में बैठे कौशिक प्रधान सहमते है। कहते है -"गाड नोज हाउ वन कैन टेक अ डिप इन दिस राएट"- सच कहते है। नंगों का दंगल है ये। वे गंगे को पूजते है। अपने पराक्रम से भर देते है। उसके बहाव में उफान ला देते है। और छोड़ जाते है। मचलती लहरों के किनारे को। आम आदमी शांति से लंगोट डाल तीन से चार बार डुबकी लगाता है। मुख्यमंत्री अर्ध्य देते है। अखबार कहता है मौलाना मुलायम गंगा में पाप धुल रहे है। खैर। साधु पाप नहीं धुलता अपना पुण्य इस पतित पावना गंगा में छोड़ता है। जिससे आम आदमी जब डुबकी लगाए, तो मोहमाया में फंसे रहने के बावजूद तृप्ति मिले। साधु मल नहीं छोड़ता। वो कल कल गंगा में फल देता है। फल संन्यास की सालों पुरानी साधना का। आम आदमी उसे तीन चार डुबकियों में पा लेता है। और फिर इंतजार करता है। अगले कुंभ का। ये इंतजार टीवी को भी है। अरे भई सुबह की टीआरपी इतनी जो बढ़ गई है।

"सूचक"

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Thursday, January 18, 2007

टीवी की बिगब्रदर 'शिल्पा'

भारत में फसाना। लंदन में रूलाना। टीवी देखने वालों को देश के हिसाब से बहलाया जा रहा है। सेलेब्रिटी बिग ब्रदर और बिगबास में अंतर चैनलों और देश का है। मसाला भी एक सा है। बस देखने वाले की नब्ज पकड़ने में दोनों कामयाब रही। आर्यन वैद्य औऱ अनुपमा में प्यार हो गया। औऱ शिल्पा को शिकार होना पड़ा नस्लवाद का। पर दोनों ही मामलों में टीवी देखने वालों का आंकड़ा और चाव बढ़ गया। खैर। रिएल्टी शो का जमाना है। पर क्या वजहें है कि हर कोई शिल्पा शिल्पा कर रहा है। वजहें टीवी की है। दरअसल चैनल फोर ब्रिटेन का सरकारी चैनल है, जैसे कि बीबीसी। तो वजहें ये भी है कि सरकारी चैनल पर ही नस्लवाद के आरोप लगें, तो क्या सोचा जाएगा। क्या ऐसा अब भी सोचला है ब्रिटेन। भारत में कहानी अलग है। यहां इसी कार्यक्रम का प्रसारण एक निजी चैनल पर हो रहा है, और सीमित दायरे में इसकी पहुंच है। सो अफेयर चले या खींचतान, फर्क बहुत नहीं पड़ता। अब शिल्पा की कहानी में कई पेंच है। अपने ढलते कैरियर में रवानी लाने को उन्होने एक ऐसे कार्यक्रम में शरीर होना स्वीकारा, जो इससे पहले भी अपनी प्रस्तुति में विवादों में रहा है। ये कार्यक्रम भी ब्रिटेन में धार खो रहा था। सो शिल्पा का यहां आना। उनका घुलना मिलना। जलन पैदा करना। खाना बनाना। गाली सुनना। रोना। और रेटिंग का बढ़ना। खैर मुद्दा नस्लवाद का तो है ही, पर रिएल्टी के नाम पर चलने वाले ऐसे शो में आग्रह, पूर्वाग्रह और सोच न झलके तो कैसे होगी रिएल्टी। यहीं वजह है कि वो दिखी। भारत में प्यार में। और लंदन में तकरार में। पर बवाल की वजह है कि लोग अपने प्रति टीवी को जिम्मेदार मानते है। वे टीवी से जुड़े तो है पर आगे जाने में। पीछे घसीटने को नहीं। जिस रंगभेद, नस्लभेद की दुहाऊ टीवी दे रहा है। वो टीवी में नहीं समाज में है। यानि सोच में है। अब अगर सोलह हजार पांच सो शिकायतें आई है तो, संकेत बदलने का है। बदलिए। ये ऐतिहासिक है। एक लोकप्रिय कार्यक्रम के माध्यम से इतिहास से बुनी गई सोच को बदलने का मौका। मौका ये जताने का कि टीवी मनोरंजन भर न होकर परिवर्तन लाने का माध्यम है। इससे सीखना होगा। देश में टीवी ने कम मौकों पर ही अपनी ताकत को समझा है। उसे ऐसे मौकों से सीखना चाहिए कि जनभावनाओं को आगे लाने से वक्त बदलता है। सोच बदलती है। टीवी बदलता है।

'सूचक'
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Sunday, January 14, 2007

'गुरू' का फलसफा

गुरू देखी। एक ऐसा दौर जब टीवी ने निराश किया है। सिनेमा बहलाने से लेकर बन जाने तक तक दास्तान सुना रहा है। चार मानक थे। जो ये बताते है कि फिल्म अच्छी है या बुरी। प्रासंगिकता...मतलब आज के हाल को दिखाती। कहानी और किस्सागोई...मतलब कैसी बुनी फिल्म और क्या है आधार, साथ में कैसे एक कदम को मंजिल देने का किस्सागो। कलाकार और किरदार..कौन है वे जो जाने जाते है, नामी अदाकर, नामी किरदार औऱ इनके बीच पनपता फिल्म का रहस्यमयी बंधन। ये बंधन सिनेमाहाल में ही महसूस किया जा सकता है। बड़ा पर्दा ही बड़े सुख और हकीकत को बयान करने में समर्थ रह गया है। और अंत में संगीत औऱ निर्देशन...गीत एक ऐसा पहलू है जो फिल्म क्रिटिक्स भी सुनता बाचता है, बहाव को देखता है, जगह जगह कान लगाता है औऱ न चाहते हुए भी कहता है गाने तो हिट बन पड़े है। रही बात निर्देशन की तो वो या तो ब्रांड है या प्रयोग। कुछ बेहतर बनाते है तो बनाते है। कुछ बनाना चाहते है तो बनाते है। औऱ कुछ सीख रहे है, गिर रहे है। संभल रहे है। पर फिल्म का पसंद किया जाना रहस्य जैसा नहीं है। थीम, किरदार, प्रांसगिकता और कसी बनावट हो तो फिल्म चर्चा पा जाती है। बाकी तो प्रमोशन का जमाना है। टी-शर्ट बाटों या कोक पिलवाओ। चलिए गुरू की बात। गुरू एक ऐसी फिल्म जो चर्चा में कई कारणों से है। पहला मणिरत्नम की फिल्म। दूसरा धीरूभाई अँबानी की कहानी। तीसरा ऐश-अभिषेक की जोड़ी। चौथा मधुर संगीत औऱ गीत। पांचवा आम आदमी की चाहत और सपने को सच में बदलने की सीख। और छठा रहस्य ये है कि वो फिल्म ही क्या जो आपमें देखने की बेचैनी न पैदा कर दें। दो शब्दों में कहूं तो गुरू, गुरूघंटाल, है। ये फिल्म हर पहलू पर सवाल खड़े करती है। लाइसेंस राज से पीड़ित नायक, गुरूकांत देसाई, महात्मा गांधी की दुहाई देता है। एक दिन में कानून बनता है तो एक दिन में तोड़ने की बात कहता है। हर इंसानी तरकीब के इस्तेमाल की वकालत करता है। दूसरी और फिल्म में फिल्मकार आदर्श की बुनियाद रखता है। मूल्यों को खड़ा करता है। प्रगति और अनियंत्रित विकास पर सवाल करता है। बढ़ने वाले के साथ भावनाएं तो रखता है, पर संदेह के साथ। सही है। पर जीतता कौन है। दो आरोपों और तिरसठ लाख के जुर्माने के साथ नायक गुरू जीतता है। वो अतिरेकी व्यावयासिक भावना के साथ आगे बढ़ने का जूनुनी नायक है। जो बाधाओं को हां कहता है। काटता है। तोड़ता है। मरोड़ता है। और जीतता है। आज भी वो बढ़ता है। उधर सच से घबराता है। सिमटता है। अफसोस जताता है। डरता है। धक्का खाता है। लकवाग्रस्त होता है। पर जवाब देता है। और ये ही जवाब खटकता है। गाँधी के आदर्शों की बात करता है। औऱ देश को इसी तरह आगे ले जाने की ख्वाहिश पेश करता है। हम सीखते है। कि जीतना ही जरूरी है। पास होना ही पढ़ाई है। लड़ना जरूरी है, पर व्यवस्था से नहीं। उससे जो उसे रोक रहा है। ये लड़ाई है प्रगति की। आदर्श, मूल्य, विवेक अपनी जगह। पर देश को आगे बढ़ना है। औऱ गुरू देश को बढ़ा रहा है

सूचक
soochak@gmail.com
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Friday, January 12, 2007

पत्रकार ही सोचेगा...वही बदलेगा

वो आदमखोर है। उसने लाशों के छोटे-छोटे टुकड़े किए। वो बच्चों के साथ सेक्स करता था। वो लाशों के साथ संबंध बनाता था। वो करीने से लाशों से अंग निकलता था। वो मांस खाता था। ये वो बातें हैं जो पिछले हफ्ते टीवी ने हमें आपको सुनाई और पूरी म्यूजिक-इफैक्ट के साथ दिखाई। कही रिकंस्ट्रक्शन के साथ, तो कही ग्राफिक्स के ऊपर। सच क्या है। औऱ जो भी हो। क्या ये सब कहना जरूरी था। घिनौना काम था। दोनों ने जो भी किया। पर क्या टीवी सारे मानकों को तोड़कर भाषा की हदें छोड़कर जो कहे, जैसा कहे। सब चलता है क्या...। किसी ने टीवी पर पूरे तमाशे को और ज्यादा भयावह बनाकर पेश किया तो किसी ने दो कदम आगे जाते हुए आदमखोर होने की बात को प्रमाण के साथ पेश करने की जल्दी दिखाई। निकलकर जो आया हो। पर किसी को पचा नहीं। दोनों का नारको टेस्ट चलता रहा। खुलासे भी चलते रहे। किसी ने कहा हमने बताया था कि वो आदमखोर है। पर कहीं ये भी छपा कि उसने केवल कोशिश की थी। पर उलट दिया था। खैर मैं क्यों आपको बेचैन कर रहा हूं। ये सवाल ही जवाब है। जो हम देखते है, वो सोचते है, उस सारे मामले की जांच, सोच, दिशा उन्ही खुलासों से तय होती है। जैसे अब कही भी बच्चा गायब हो, निठारी से जोड़कर टीवी वालों को देखना भाता है। एक राइस मिल में लाशें मिली। निशाने निठारी के नजदीक तलाशे जाने लगे। और तो और कई चैनलों पर स्लग भी निठारीनुमा हो गए। ऐसे में ये सवाल अपने आप में ही जायज हो जाता कि कितना देखना है और कितना दिखाना है। कितना बेचना है और कितना बचाना है। क्या खबर के नाम पर हर जानकारी देना दर्शक को बांधे रखता है। बीमारी बताइए। दोष बताइए। दोषी बताइए। पर नाट्य रूपांतरण क्यों। क्या बच्चे को समझाना है या एडल्ट को। खैर दोष केवल पत्रकारों पर देना उचित नहीं है। टीवी चैनलों के एसी कमरों में बैठे वीडियो एडिटरों को इफैक्ट यूज करने में पीड़ा सुख आने लगा है। वे झमाझम के चक्कर में ऐसे प्रयोग कर रहे है जो अभी भी पत्रकारों की कल्पनाशक्ति से दूर है। सो वो तर्क से परे है। पैकेज, वो खबर जो टीवी पर चलता है, को रोचक, जोरदार, भयावह और सुखनुमा बनाने को जहां स्क्रिप्ट पर कलमें शब्दाडंबर रच रही है, वहीं मशीनों पर बैठा तकनीकी हो चुका दिमाग, रच रहा है रंग, संगीत औऱ अनचाहे इफैक्ट। एक देखने वाले से पूछा तो उसने कहा कि - शब्द खो जाते है, तस्वीरें खेलती है। समझ नहीं आता कि दिखाना क्या चाहते है, दिखा क्या रहे है। जैसे नशे में नशेड़ी की दुनिया के खोई खोई सी तस्वीरें। खैर सामान्य हो कर सोचिए। क्या वो खबर वहीं है जो आप दफ्तर में लेकर पहुंचते है, और कुछ घंटों बाद रंग तरंग के साथ वो बनकर पेश होती है। पत्रकार ही सोचेगा। वहीं बदलेगा। वहीं चाहेगा। तो परिवर्तन आएगा। इंतजार है.....

'सूचक'
soochak@gmaiol.com

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2006: TV & Radio...

How market feels about 2006? What TV and Radio had done? What good and bad happened on tv and radio ? What predictions and prejudice tv and radio portrays? How it all benefitted to market and advertiser? Every question that a target website has...


See two links on 2006 TV and Radio....


http://www.exchange4media.com/annual/2006/rw.html

http://images.agencyfaqs.com/mailer/radiocity/2007/jan/newsletter.html

Thursday, January 04, 2007

Army Attempts to Redefine Free Speech

When does political speech become a crime punishable by imprisonment? When the Army doesn't like what it hears. One journalist shares the battle she and her source face against censorship.
By Sarah Olson, AlterNet.
Click on the following link to read the whole story
http://www.alternet.org/rights/46142/

Tuesday, January 02, 2007

टीवी कैमरों से दूर गड्ढे

प्रिंस, कालू, अवधेश...। ये तीन किरदार उन गड्ढों के है, जो लापरवाही से जान लेने को खुले थे। तीनों बच्चें इनमें गिरे। जो बचा वो टीवी पर इतिहास रच गया। सारे मानक तोड़ गया। दो दिनों तक टीवी पर रहा। ये किस्सा ज्यादा पुराना नहीं है। प्रिंस हरियाणा के करनाल के एक गांव में गिरा। खबर को खबरिया चैनलोंने हाथो-हाथ लिया। और दो दिनों तक देश के सामने प्रिंस का रिएल्टी शो रहा। प्रिंस बचा भी। पर जिस रिएल्टी शो को टीवी ने लगातार पेश किया वो आगे होने वाली घटनाओं में नहीं दिखा। क्यों। क्यों एक बार टीवी कहता है कि अपना फर्ज निभा रहा है। और क्यों वो नहीं बचा पा रहा है कालू और अवधेश को। सवाल टीवी से इसलिए है क्योंकि वो ही दिखाता आया है। खैर जानिए। चैनलों को पता है। कि तमाशा एक बार पैदा किया जाता है। दर्शक को एक बार मजबूर किया जा सकता है। पल पल सस्पेंस एक बार दिखाया जा सकता है। वैसी ही घटना दुबारा हो तो दर्शक भले ही सोचें कि ये बच्चा भी टीवी को बचाना चाहिए, पर टीवी जानता है कि पके बर्तन को फिर नहीं आग में पकाया जाता। वो फूट जाता है। उसमें दाग पड़ जाते। पर लापरवाही पर उसका फोकस तो कम से कम होना ही चाहिए। क्यों गैंडे की खाल बन चुका प्रशासन और समाज उन्हे गंभीरता से नहीं ले रहा है। एक प्रिंस के बाद भी गड्ढे खुले है। बच्चे गिर रहे है। तमाशा हल्के में दिखाया जा रहा है। पर देखने वाला नहीं समझ पा रहा है कि क्यो बार बार गानों की तरह ये रिपीट हो रहे है। टीवी भी इसे समझाने में असफल रहा है। और आज भी गड्ढों के करीब कई प्रिंस, कालू और अवधेश खेल रहे है। टीवी कैमरों से दूर।

सूचक
soochak@gmail.com

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Monday, January 01, 2007

खबरों से दूर, नए साल का तमाशा भरपूर

मुबारक हो। इस सदी का सातवां कदम। टीवी पर हंगामा मचा रहा। कही मल्लिका। कही राजू। कही नाच। तो कही गलबहियां करते पेयर। तो इन सब के बीच नया साल मनाना टीवी को भाता है। नए रेजोल्यूशन के बारे में पूछने पर कोई कैमरे पर कहता है कि वो ज्यादा घूमेगा। ज्यादा खाए पिएगा। और एक ने तो कहा ज्यादा सिगरेट पिऊंगी। भला हो। तो ३१ दिसम्बर का सूरज ढलते ही टीवी पर रोशनी फैल गई। एंकर कहता है.. और आप देख सकते है कि किस तरह लोग नए साल के स्वागत में नाच रहे है, झूम रहे है, खुश हो रहे है...। खैर नया तो नया है। पर हंसी के नमूने छाए रहे। कुछ कार्यक्रमों से पहचान बना चुके हंसोड़ समाचार चैनलों पर साल के मश-हूरों को खींचते रहे। क्या खीचें। भौंड़ापन ही ज्यादा खिंचा। क्यों जररूत पड़ी इस भौंडेपन की। क्या हंसना हंसाना ही धर्म बन चुका है। और वो भी समाचार चैनलों का। पूरा दिन ऐसा लगा कि कही न गम है और न कही रूसवाई। मानता हूं कि कामेडी फिल्म भी देखनी चाहिए। पर क्या बदलते साल में सचाई से दूर जाकर। चलिए तर्क है। कुतर्क के साथ। पर सच भी है। एक ऐसे साल में जब देश ने विकास और अवसान दोनों देखा हो, तो टीवी पर साल के आखिरी रात को केवल नाच, गाना, ठुमके, विदूषक, एस्ट्रोलाजी और भौंड़ी नकल देखना नहीं सुहाता। फिर क्या देखें। साल भर में ऐसी तमाम प्रेरक और बदलावकारी घटनाएं हुई जो रोचक भी रही। और तो और अगर केवल सबक ही लेना हो तो राष्ट्रीय चैनल से लिया जा सकता था। दो एंकर, दो अतिथि और पूरे देश से संपर्क। गंभीर बातें, चटपटे अनुभव और बीच बीच में स्वाभाविक होता संचार। खैर इसे पुराना फार्मेट कहकर खारिज किया जा सकता है। पर वास्तविकता के करीब लगा। लोग मंदिरों में जाकर भी नए साल का इंतजार कर रहे थे। तमाम समाचार चैनलों पर भविष्य की छवि भी अखरने वाली लगी। क्यों जानना है भविष्य। क्यों बताना है। श्रम के महत्व की बात को तो कही भी नहीं परोसा गया। एक देश जिसमें हजारों बोलियां, पहनावा, व्यंजन और माटी माटी के लोग बसे हो वहां खबर ये है कि सब नाच गा रहे है। सब हंस रहे है। सब भविष्य जानने को आतुर है। टीवी को जानना पड़ेगा अपना भविष्य। दिखता तो सीमित औऱ संकुचित ही है। बहरहाल नववर्ष मंगलमय हो...

सूचक
soochak@gmail.com

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