Wednesday, February 28, 2007

आम आदमी की जेब जानती है बजट

हिंदी में बजट । मानो आवाज देते कलाकार टीवी पर देश को अर्थशास्त्र समझाने आ गए हो। पत्रकारिता में अनुवाद की अहमियत है। खबर छुपी होती है हर अनुवाद में। पर अंग्रेजी में वित्तमंत्री के भाषण का अधकचरा,वाक्यों के व्याकरण बिना, न आगा न पीछा वाला हाल करते टीवी के अनुवादक बजट का कचट निकाल रहे थे। सभी प्रमुख समाचार चैनलों ने इस धर्म या नकल को अपनाना जरूरी समझा। दर्शक,जैसे मेरे मकान मालिक ने कहा कि केवल अर्थशास्त्र का ग्यान ही आपको बजट नहीं समझा सकता, बजट को बोलते वक्त समझने की जरूरत ही क्या है। शायद इसी वजह से पिछले कई सालों में जो वित्तमंत्री कहते थे, उसे बाद में ही समझा जाता रहा है। पर टीवी चैनलों को नया करना है। सो वे करते है। हिंदी अनुवाद या हिंदी में छपी आर्थिक समीक्छा से भी आप बजट को समझ जाए, ये कहना मुश्किल है। हां व्यापारी के लिए टैक्स और अपने लिए टैक्स का अंतर आप खूब जानते है। वैसे भी जो कमा रहा है,वो बचाना भी जानता है। पर आज की युवा पीढी को वित्तीय वर्ष के अंत में इन्कम टैक्स भरने की जद्दोजहद से जूझते देख समझ आ जाता है कि बजट समझना कितना मुश्किल है। वैसे टीवी ने जो सरलता दी है, वो दुरुहता से कम नहीं है। देखिए, टैक्स के आगे जो चीज आपको थोड़ी बहुत पल्ले पड़ती है वो राजस्व और राजकोषीय घाटा होता है। नौकरी की तैयारियों वाले छात्र इसे याद कर लेते है। फिर बारी आती है क्या सस्ता हुआ और क्या मंहगा। कल के अखबार में भी यही चींजे रंगबिरंगी तस्वीरों के साथ देखी जा सकती है। फिर आर्थिक विकास दर और विदेशी मुद्रा की बारी आता है। इसके आगे जानने में मेरे ख्याल से न आपको रूचि रहती है और न ही आम आदमी को। हाल की मंहगाई ने एक चीज और आपको याद करा दी है। मुद्रास्फीति यानि इन्फलेशन। इसके बढने पर मंहगाई कैसे बढती है,ये समझना मुश्किल है। पर लोग मंहगाई की मार झेल रहे है। चीजों की कमी के वक्त बाजार में सामानों का दाम बढ़ जाता है,और इससे सीधी जुड़ी होती है मुद्रास्फीति दर। तो मंहगांई को बढने से रोकने के लिए रेल बजट में भाड़ा नहीं बढ़ा तो आम बजट पर भी इसका असर देखा गया। असर वैसे सबसे ज्यादा दिखाया सेंसेक्स ने। पहले भी गिरा और बाद में भी। पर एक बात जो गौर करने लायक है वो ये कि बाजार को वित्तमंत्री क्यों नाराज करना चाहते है।उन्होने शेयरों पर मिलने वाले लाभांश पर लगने वाले कर को बढ़ा दिया है। क्या सेंसेक्स की कमाई पर वित्तमंत्री की नजर है। वे आम आदमी को रिझाने के लिए इनकम टैक्स नहीं बढ़ाते,और छूट भी देते है। हालांकि कस्टम,एक्साइज, एक्सपोर्ट ड्यूटी में वो कमी करते है। पर सेवा कर का दायरा बढ़ा देते है। और फ्रिंज बेनेफिट टैक्स का भी। खैर ज्यादा टैक्निकल न होते हुए कहा जा सकता है कि आम आदमी को कितना मिला और कितना छूटा, ये केवल आमदनी वाले की जेब ही जानती है।

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Monday, February 26, 2007

बिन सिक्योरिटी रेल चली


रेल चल निकली है। लालू यादव ने टीवी पर देश को हरी झंडी दिखाते हुए एक लोकलुभावन बजट पेश किया। पर जो टीवी पर दिखता रहा वो भी रेल के डिब्बे में दिखने वाली रंगबिरंगी दुनिया से कम नहीं था। चटख रंग,आते जाते ग्राफिक्स,दाएं-बाएं होते विजुअल्स,खाना खाते रेलमंत्री,टिकर पर एक बात दोहराते चैनल। कुछ मजा नहीं आया। वैसे भी लालू के बजट के ज्यादा ही जमीनी होने से चैनलों को उसे पेश करने के तरीके को ज्यादा ही रंगरंगीला बनाना पड़ता है। जैसे अब नामों को ही ले लीजिए। सब लालू के ईर्द गिर्द घूमते नजर आते है। ये एक व्यक्ति की सबसे बड़ी सफलता कही जा सकती है कि वो छा जाए। विषय से ज्यादा। टीवी को लालू अपने मसखरेपन की वजह से प्यारे है। और जनता को वे अपनी नीतियों की वजह से। रेल को बीस हजार करोड़ का लाभांश मिला। यात्री किरायों में कमी की गई। माल ढुलाई में कमी,सुविधाओं को बढ़ाने का वादा और अनरिजर्वड क्लास में सीटों पर गद्दी लगवाने तक ध्यान रखा गया है। सो इसे आप क्या कहेंगे। इस आने वाले साल के लिए वजट भी इक्तीस हजार करोड़ का रखा गया है। आठ नए गरीब रथ,बत्तीस नई गाड़िया,आठ सौ नए डिब्बे,हर रेल में और अनरिजर्वड डिब्बे,टीटीई को हाथ में कम्प्यूटर, १३९ का इंक्व्यारी नम्बर। और बहुत कुछ। तो क्या ये सब बताता है कि रेल का हाल दुरूस्त है। क्या लालू चैन से बंशी बजा सकते है। और बड़े पद की दावेदारी भी कर सकते है। राजनीति के हिसाब से सही लगने वाला फैसला कही आगे चलकर रेल को निजीकरण के रास्ते पर न ले जाए। आज जितनी सहूलियतों को रेलमंत्री बांट रहे है, वो अगला नहीं कर पाया तो क्या। रेल में निजी दखल को लालू अभी टालते है, लेकिन बाजार को सस्ता देकर वे क्या सही दिशा में जा रहे है। जितने आतंकवादी हादसे पिछले साल रेलों में हुए है,उस पर रेलमंत्री चुप क्यों हैं। क्या रेल की सिक्योरिटी की जिम्मेदारी किसी और की है। जनता खुश,उद्योग खुश,नेता खुश। सब खुश, पर ट्रेनों में पचास रूपए देकर कुछ भी ले जाने वाला भी खुश है। वो कुछ भी कही भी ले जा रहा है। ट्रेनों में अगर सब्जी,दूध जा रहा है तो पेट्रोल,विस्फोटक भी आर पार हो रहा है।पूरे बजट में सिक्योरिटी का सवाल नदारद है। टीवी भी रंगबिरंगी दिखावट में जुटा है। भूल जाता है कि अभी दो हफ्ते पहले पुरानी दिल्ली से चढ़ी छाछठ जाने अब इस दुनिया में नहीं है। उनके लिए कौन दोषी है। कौन देख रहा है। एक टीवी चैनल ने चलाया कि सीसीटीवी कैमरे पांच मिनट बाद रिकार्ड करते है और वो भी ब्लैक एंड व्हाइट। तो रेल के आधुनिकीकरण का क्या। रेल में मनोरंजन तो ठीक है लालूजी,पर रेल में किसी व्यक्ति को जो सबसे पहले फिक्र होती है वो है अपनी जान और माल की। उम्मीद है अगले रेल बजट तक ये समझ में आ जाएगा देश को। और हां टीवी को भी।


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Thursday, February 22, 2007

कहिए साइज क्या है!

साइज क्या हो। क्या 'साइज' मायने रखता है। इन सवालों पर अगर टीवी अपनी छाया दिखाए तो बहस क्या होगी। मुझे उम्मीद है कि पहले के दो वाक्यों से आप संदर्भ समझ सकते है। संदर्भ ही नहीं वो सत्य भी जो कहने में मसालेदार कतई नहीं होता। दोपहर बारह बजे, एक अंग्रेजी समाचार चैनल, दिन गुरूवार। बहस। आईसीएमआर ने पिछले साल के आखिरी महीने में दो साल के शोध के बाद ये बताया कि बाजार में मौजूद कंडोम भारतीय लिंग के हिसाब से बडे है। बस खबर चल निकली। इसकी नतीजा सम्भोग के दौरान कई तरह की दिक्कतों के तौर पर देखा जा सकता है। पर टीवी ने इसे खामोशी से गुजर जाने दिया। आज यानि गुरूवार को दोपहर बारह बजे एक चैनल को क्या सूझी कि वो इस पर दो समझदारों के साथ "वन साइज डजेंट फिट फार एवरी वन" के नाम से बहस करे। आप यकीन नहीं मानेंगे। बहुतों ने ये देखा भी नहीं होगा। चैनल अभी अभी नम्बर वन एलीट बना है। तो सवाल ये है कि क्या ये बहसे अपनी मर्यादा जान ती है। क्या वे ये समझती है कि वे क्या परोस रही है। जिस कार्यक्रम की बात यहीं हो रही है, उसमें तो सभी हंस हंस कर ये बता रहे थे कि साइज से क्या, क्यो औऱ कैसे। निहायत ही दोमुंहापन भरा। वे हंस क्यो रहे थे। शर्म से। वे इन बातों को समझाने या समझने के लिए नहीं बल्कि आपकी हया को बताने के लिए ज्यादा दिखा रहे थे। एक पुरूष पत्रिका के संपादक औऱ एक चिकित्सक से जारी ये बहस केवल साइज औऱ कंडोम के संबंधों को बताने वाली रहती तो ठीक था, पर बार बार साइज पर हंसने वाले ये लोग अपनी सामाजिक उलझनों को जता जा रहे थे। वे वैग्यानिक परिभाषाओं या चिकित्सा पहलू से भी बात नहीं कह सकते थे। टीवी जो है। वे कठिनता से बात नहीं समझाता। सो बात आई गई हो गई। पर जो सवाल छूट गया उसका क्या। क्या खुलेपन के नाम पर जो माहौल हम जी रहे है, उस पर बात करने में हम अब भी हिचकते है। जो हम सोचते है, उसे खुलकर कह पाना अभी भी मुश्किल है। या हम अभी सचमुच बदले नहीं है। या हम बदलना नहीं चाहते। हम साइज के चक्कर में जीना पसंद करते है। टीवी ने जो बदलाव लाए है वे कितने हल्के है कि हम मोटी चमड़े वाले उन्हे ओढ़ लते है, जीते है, सोचते है, पर कहते नहीं। कहेंगे तो विरोधाभास दिखेगा। सच दिखेगा। और सवाल खड़ा हो जाएगा। मर्यादा टीवी ने खो दी है। पर समाज नहीं खोना चाहता। सो गाहे बगाहे हंस हंस कर वो दिखाता है कि हम नहीं बदले हैं। और शायद न बदलेंगे।

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Saturday, February 17, 2007

मैं निर्दोष हूं..


एक दंपत्ति। कई जिंदगियों को लेने के आरोपी। देश की उच्चतम अदालत ने कहा कि मौत दे दो। मामला इससे आगे नहीं जा सकता है देश में। पर टीवी को क्या इसका पता है। शायद नहीं। तभी तो दो दिन सजा पाए पति पत्नी को लाइव दिखाता है। उनसे पूछता है कि क्या किए थे आठ कत्ल। और जाहिर है जवाब ना ही होता। पर टीवी ने इस पर दो दिन क्यों दिए। ये किसे देखना था। क्यो देखना था। क्यो दिखाना था। ओछी लोकप्रियता का अनैतिक तमाशा या अपनी ताकत को जाहिर करने का एक और शो। टीवी के एक चैनल पर जारी ये सामाजिक विद्रूपता कई सवाल खड़े कर देती है। एक दंपत्ति पर संपत्ति का मामला। २००१ का हादसा। एक विधायक रेलु राम पुनिया की बेटी और दामाद आरोपी। सोनिया और संजीव को सेशन कोर्ट ने मौत की सजा दी थी। हाईकोर्ट मे उसे उम्रकैद में बदला था। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने कहा जघन्यता है। पर टीवी को ये सब समझ नहीं आया। दोनों को पकड़ा। और बैठा लिया। कहा बोलो। फोन करिए। सवाल पूछिए। मानो भविष्य बाचने वाले बैठें है। मानो वे कहेंगे कि हां हमने की थी अपने पिता, मां, भाई, भाभी और छोटे छोटे तीन मासूमों का हत्या। राड से पीटकर। टीवी ने फिर चलाया। चार सौ करोड़ की संपत्ति थी। और इसे ही चाहते थे वे। लेकिन सवाल ये है कि जब कोर्ट ने, और सर्वोच्च कोर्ट ने मौत की सजा सुना दी थी, तो क्यो जारी थी ये कहानी। क्यो हिमाकत दिखा रहा था टीवी। अपनी संप्रभुता को भूलते हुए। दर्शक इसे देख रहा था। वो इतनी गहराई में सोचता है कि नहीं , इसे समझ पाना मुश्किल है। हकीकत को बढ़ा चढा कर दिखाने वाला टीवी समाज के बदलाव को विद्रूपता के नजरिए से दिखा रहा था। वो गलत को सही कहने का मौका दे रहा था। वो अपराधी को मौका दे रहा था। वो रूख दिखा रहा था। कभी आरोपी स्टूडियों में आता है। सर उठाता है। औऱ जेल जाता है। कभी अभियुक्त हर फैसले के बाद कहता है कि वो निर्दोष है। उसे फँसाया गया है। तो टीवी इसे क्यो दिखाता है। बार बार। क्यो जनता की दया का पात्र बनाता है। क्यो रियाया के दिल में न्यायपालिका के खिलाफ एक तेवर पैदा कर रहा है। क्यो अपने आप को सर्वोच्च मान रहा है। ये ऐसे सवाल है जो ऐसे तमाशे खड़े करने वालों को परेशान नहीं करते। वे केवल आंखों का ख्याल रखते है। देखने वाली आंखे। समाज या न्याय की नहीं। बल्कि दर्शक की। वे ऐसे माहौल को बना रहे है, जो हर गलत को सही मानने पर मजबूर कर रहा है। वे दो चार सौ एसएमएस से ये बताने में लगे है कि समाज ऐसा सोच रहा है। वे टीवी पर फोन करके सवाल पूछने वालों से ये दिखा रहे हैं कि सब गलत है वो सही है। वे दिखा जो रहे है। उनके पत्रकार अब लोगों को बटोरने में लगे है। कोई अभियुक्त के रिश्तेदारों के आंसू दिखा रहा है तो कोई उनसे खफा लोगों के मर्म। न जाने कहां ले जा रहे है विषय औऱ वस्तु को। वस्तुपरकता खो चुकी है। व्यक्तिवादिता हावी हो रही है। एक जाते जान की कोई कीमत नहीं है। जबकि जो जान लेने पर उतारू है उसे जगह दी जा रही है। कैसे पर्दा है ये। क्या ये समाज के सच को बताकर खुद अलग खड़े होने में यकीन रखते है। या शामिल होकर किसी कातिल का हौसला बढ़ा रहे है। आओ, मारो, सजा पाओ, और हम तुम्हे देंगे एक मौका अपनी दलील रखने का। ये खतरनाक संकेत है। एक समाज को सचाई के फैसले से दूर ले जाना का घिनौना नाटक। जो जारी है। और अगर जारी रही तो आप भी एक दिन पाएंगे कि आपके साथ हुए हादसे का अपराधी टीवी पर चीख रहा है। मैं निर्दोष हूं।

सूचक



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Monday, February 12, 2007

क्या देश सांपों से प्यार करता है!

"क्या देश सांपों से प्यार करता है"। पिछले हफ्ते दो बार शाम को टीवी देखने का मौका मिला। दोनों बार सांप ही दिखा। ये अजब संजोग था। पिछले महीने एक साहित्यिक पत्रिका ने अपना इलेक्ट्रानिक मीडिया का अंक छापा था। एक चैनल के प्रमुख ने लिखा था कि दूसरे चैनल पर ज्यादा देर तक चलने वाली खबर का पीछा करना मजबूरी है। चाहे खबर कोई भी हो। तो भई दो चैनल एक साथ सांप - सांप खेल रहे थे। एक बाबा के शरीर में नागमणि को खोज रहा था, तो दूसरा एक सांप से डरे एक व्यक्ति की कथा बाच रहा था। न जाने कौन सा उत्पाद किसे जानकारी दे रहा था। पर एक बात तो साफ हो रही थी, कि जनता यही देखना चाहती है। क्यों है न। खेद है। रूकावट है, जैसे जुमले अब नदारद हो चले है। जनता की राय अब उन्ही मु्द्दों पर ली जाती है, जो लुभावनी बातें ही निकालने वाली है। जैसे - क्या शिल्पा शेट्टी के साथ जो हो रहा है वो सही है या गलत। अमेरिका और इजराइल की देशभक्ति के बरक्स खड़ी हमारी राष्ट्रीयता और देशभक्ति में केवल इतना अंतर है कि वो बुरे वक्त में भी खड़े होने का साहस नहीं खोती। और यही नजर आता है टीवी देखने वाले में। मतलब बेबसी में दर्शक अपने बच्चे को कार्टून के आगे सिमटता पाता है। बेबसी में वो घर की बीवी और बेटी को अपने परिवार से ज्यादा सोप ओपेरा के किरदार की ज्यादा सोचते पाता है। बेबसी में वो खबरों को देखना चाहता है, पर क्या परोसा जाएगा ये उसे पता नहीं। एमएमएस को दिखाने के दौर में वो बेटी बेटे के सामने कैसे खबरों को देखता होगा। या निठारी कांड के बाद, वहशियाना ढंग से लिखी गई टीवी कथाओं को वो कैसे अपने बच्चों के सामने देखे। बेबसी। जैसी मतदाता को है। कि सही नेता नहीं है, दल नहीं है। वैसी ही दर्शक को है। सही प्रोग्राम नहीं है, चैनल नहीं है। ये अतिश्योक्ति नहीं है। आप दिन भऱ डिस्कवरी या हिस्ट्री चैनल नहीं देख सकते है। हंसने के लिए हमेशा लाफ्टर चैंलेज नहीं देखा जा सकता। और समय बिताने के लिए हमेशा फिल्में नहीं। ये निराशावाद भी नहीं है। क्योंकि आपके पास देखने के लिए कुछेक ही विकल्प ही है। सुबह में भक्ति, दोपहर में सीरियल और रात में सोप ओपेरा। बचा पांच से दस मिनट समाचार। या कहें तो अचार। नतीजा क्या होगा। इसका। देखना कम होगा। ये बना भी इस वजह से है कि घर में घर नहीं है। आपस में प्यार नहीं है। आफिस के बाद समाज नहीं है। घर में समय नहीं है। और टीवी में कम से कम चैनल तो है, वो आपके रिमोट पर बदल तो जाता है। पर इसका प्रभाव दिखने लगा है। हम बदल सकते है, पर आधारविहीन बदलना हमारी फितरत नहीं है। सो हमें बदलाव जड़ वाले भाते है। हमें देखना अच्छा लगता है। पर जब इसमें सार खो जाता है, तो हम बदलना जानते है। ये बदलाव ही बदलेगा। ये मानना बेवकूफी होगी कि अचानक सब कुछ देशज हो जाएगा, और उसमें वो दिखेगा, जो सचाई है। बाजार दिखेगा, लेकिन खरीदार के अनुरूप। क्रेडिट कार्ड के हिसाब से नहीं। बाजार लुभाए, पर समाज के बड़े वर्ग को ध्यान में ऱखकर, तो बेहतर। वैसे टीवी बदल सकता है। और सांप को दिखाने में जो मिलता है, वो इंसान की पीड़ा, खुशी, उम्मीद, सपने दिखाकर भी तो पाया जा सकता है। क्यों क्या कहना है।

सूचक
soochak@gmail.com


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Sunday, February 11, 2007

Blogs Transform Mideast Social Dialogue

CAIRO, Egypt (AP) -- Wael Abbas hasn't been arrested by Egyptian police, but the blogger fears it could happen any day.



http://news.wired.com/dynamic/stories/M/MIDEAST_BLOGGING?SITE=WIRE&SECTION=HOME&TEMPLATE=DEFAULT&CTIME=2007-02-09-14-24-18

Saturday, February 10, 2007

Prof. Shamsul Islam's open letter to Rahul Dravid

Dear Rahul Dravid,
Namaskar!

You, presently, lead the cricket team of India and wear the National
Flag, Tri-colour while playing for India in different parts of the
globe. You must be well aware of the fact that this Tri-colour
represents a Secular-Democratic India and team led by you which
includes players from different religions and regions of the country,
undoubtedly, symbolize the same reality. I hope you are familiar with
the glorious heritage which the National Flag and a Secular-Democratic
polity represent. These are the products of great anti-colonial
struggle and ruthless fight against theocratic politics represented by organizations like the Muslim League, the RSS and the Hindu Mahasabha. Despite the partition of
India on the basis of religion mainly forced by Muslim League and
dastardly killing of Father of the Nation by persons affiliated to the
Hindu Mahasabha and the RSS, India chose to remain a non-theocratic
state. That is the significance of the Nation which you and your team
represent and the Flag which you display on your costumes.......
Whole letter is on this link....

Friday, February 09, 2007

ग्लोबल वार्मिंग-ठण्डी टीवी

गर्मी बढ़ रही है। तापमान में उबलने को पृथ्वी बढ़ रही है। ये नजारा आपको अपने आस पास दिखने लगा है। जनसंचार माध्यमों में इसकी भनक कम ही दिख रही है। क्यों। दो तारीख को इंटर-गर्वंमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज ने अपनी चौथी रिपोर्ट में साफ कह दिया कि मानव जिम्मेदार है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए। पर उस रात टीवी के केवल दो अंग्रेजी चैनलों ने खबर को दिखाया। हालांकि डीडी न्यूज ने इसे पूरी जगह दी। पर क्या थी ये खबर और क्या होंगे इसके असर ये समझना अभी भी संभव नहीं हो पाया है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए नब्बे फीसदी गतिविधियां मानवीय है। ये खतरनाक खुलासा है। जिसके नतीजे आने वाले सालों में हमें आपको देखने है। धरती के गर्म होने से केवल पर्यावरण ही नहीं बदलेगा, जिंदगी भी बदल जाएगी। हर साल एक लाख साठ हजार लोग ग्लोबल वार्मिंग से मर जाते है। और २०२० तक ये आंकड़ा दोगुना हो जाएगा। समुद्रों के स्तर बढ़ जाएंगे और समु्द्र तटीय शहरों के डूब जाने के खतरे लहराएंगे। खेती करने के माहौल बदल जाएंगे और जमीन पर हर तरह की फसल नहीं उगाई जा पाएगी। और तो और मौसमों का मजा गुजरे जमाने की बात हो जाएगी। ये बड़ी वजहें जो डराती नहीं है। बड़ी जो हैं। भई अमेरिका इराक में उत्पात मचाए, इससे हमें क्या। अंत्तर्राष्ट्रीय मामला है। वैसे ही जैसे हम ग्लोबल वार्मिंग को लेकर सोचते है। और हमारे संचार माध्यम इसे लेकर भी हमें सचेत नहीं करते। तो क्या किया जाए। आप के सवेरे जगने से लेकर रात तक आप तीन या संचार माध्यमों से किसी न किसी तरह ये जान पाते है कि ऐसा हुआ है। पर ग्लोबल वार्मिंग को लेकर अबी तक जनजागरूकता नहीं दिखती है। लोग सोचते है कि ये तो सबके साथ होना वाला असर है। जैसे एक झटके में पृथ्वी पर से आबादी का गायब हो जाना। हर रोज आप गर्म हो रहे हैं। आपके घर, कार औऱ आफिस के एसी से निकने वाला गर्म धुआं माहौल को उबलने वाला बना रहा है। और आप इसके लिए खुद को तैयार भी नहीं कर रहे है। तो क्या आप किसी चमत्कार के भरोसे है कि ग्रीनहाउस गैसों को छोड़ने वाले देश एक दिन में सब खत्म कर देंगे। या विकासशील देश, बस विकसित को कोसते रहेंगे। खतरे के सिर पर आने के बाद आप अब भी जगे नहीं है। गलती आपकी नहीं हैं, गलती माहौल को सामान्य बताने वाले संचार माध्यमों की है। देखा जाए तो टीवी पर दिन भर तमाशा खूब होता है, पर वो आपको ये नहीं बताता कि आप एक आग के बेहद पास खड़े है। देखा जाए तो रेडियो पर गाने और शब्दों का झिझला नाच हर मिनट बज रहा है, पर बातों बातों में भी वो आपको नहीं कहता कि तापमान बढ़ रहा है। क्या ये ऐसी मांग है जो नाजायज है। लगती नहीं। पर है। क्योंकि मैटेरेलिज्म का जमाना है। मोबाइल है, कार है, व्यापार है और है गर्म जिंदगी। जो झुलसने को करीब खड़ी है। देखिए कौन क्या दिखा रहा है। और इसे देखना ही आपकी नियति है। आपका रिमोट में अब बटन ज्यादा और टीवी पर खबरें कम हो गई, मालूम होती है।

“सूचक”
soochak@gmail.com


http://www.bbc.co.uk/hindi/science/story/2007/02/070202_global_warming-report.shtml

http://timesofindia.indiatimes.com/articleshow/1556551.cms

http://www.hindustantimes.com/2007/Feb/02/181_1918014,00050003.htm

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Wednesday, February 07, 2007

न्यूज चैनलों का 'अकेलापन'

कहां है संवाददाता। टीवी पर वो बोलता दिखता है। लोगों से दूर। ये बहस आज की वर्चुअल दुनिया में मौजूं है। दरअसल टीवी चैनलों को दिन भर आगे बढ़ाने वाले 'कर्ताधर्ता' कैसे करते है अपना काम। समझिए। टीवी न्यूज़ चैनल एक ऐसी संस्था होती है, जो तकरीबन दो सौ से पांच सौ लोगों से चलने वाला पेशा है। पेशा। इस पेशे में अब आंतरिक संबंध नहीं बनते। जिंदगिया नहीं बांची जाती। बांची जाती है तो लफड़े औऱ चक्कर। न्यूज चैनलों के आफिस में हर आदमी तन्हा है। काम के संबंध पनपने लगे है। बरसात के जोंक की तरह। दरअसल एक न्यूज चैनल में मुख्यत चार से पांच इकाइयां होती है। इनपुट, आउटपुट, एसाइनमेंट, पीसीआर एवं टेक्निकल। ये सब एक निकाय की तरह काम करते है। मतलब इनपुट रिपोर्टरों से मिलने वाली खबरों को तय करता है। आउटपुट उन्हे पेश करने का काम करता है। मसलन स्क्रिप्टिंग, वीडियो एडिटिंग आदि। एसाइंमेंट संवाददाताओं और खबरों के लिए चीजों का इंतजाम करता है। मसलन ओबी-डीएसएनजी वैन या अतिथियों को लाइन-अप करना आदि। और पीसीआर यानि प्राइमरी कंट्रोल रूम से लाइव-रिकार्डेड जा रहे प्रसारणों को नियंत्रित किया जाता है। मतलब मशीनों का संजाल। मशीनों से कार्यक्रमों और समाचारों को प्रसारित करने की फाइनल स्टेज। रही बात टेक्निकल स्टाफ की तो मशीनों- कम्प्यूटरर्स, स्विचिंग, इनकोडर डीकोडर, लाइटों आदि का ख्याल रखने वाले। वैसे एक बात सीधे तौर पर समझ लीजिए, जो एक चीज आपको किसी भी न्यूज चैनल के दफ्तर में सबसे ज्यादा दिखेगी, इंसान से ज्यादा, वो है कम्प्यूटर्स। सारा खेल मशीनी हो चली है। संवाददाता भी। आप अब खबरों में भी इसकी झलक देख सकते है। भीड़ में अब संवाददाता कम दिखता है। उसे असहजता महसूस होती है। वो 'आकवर्ड' महसूस करता है। इसीलिए खबरों में भी आपको दिखावटीपन दिखने लगा है। दिन भर में चलने वाली अस्सी से सौ खबरों में से आठ से दस खबरो में ही चलने वाली बाइट (वो बात जो टीवी के माइक पर कोई कहता है) खुले तौर पर ली जाती है। भीड़ भडक्के में। अब तर्क ये भी है कि चैनलों की अपनी खबरें होती है, इसलिए बाइटें तन्हा होती है। पर संवाददाता भीड़ में खोता हुआ महसूस होता है, सो एसी जर्नलिज्म करता है। जैसा वे एडिटर करते है, जो कमरों में बैठकर, अंग्रेजी में सोचकर, लैपटाप पर बुनकर हिंदी समाचरा की गाथा को आगे बढा रहे है। वे कुछ शब्दों से बंधे है, उनमें एक शब्द 'टीआरपी' है। टेलिविजन रेटिंग प्वाइंट। ये वो आंकड़ा है जो हर शुक्रवार को आता है किसने कितनी देर देखा आपका चैनल। औऱ इसक सीधा संबंध होता है एडवर्टाइटिंग रेवेन्यू से। यानि चैनल चलाने के लिए पैसा। जो समाचारों के बीच दिखने वाले प्रचार से आता है। पर संवाददाता अपने भीड़ में प्रचार से दूर होता जा रहा है। गुटों में वे दिखते है। कभी सुप्रीम कोर्ट के बाह तो कभी किसी प्रेस कांफ्रेस में। पर वे पत्रकार कम नजर आने लगे है। सवाल कम दागने लगे है। अकेले में बाइट सब लेना चाहते है। और यही वजह है कि टीवी पर अकेलापन दिखने लगा है। वो पूरे समाज, देश औऱ संस्कृति का नहीं, बल्कि कुछ वर्गों का टीवी हो चला है।

"सूचक"
soochak@gmail.com

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Is Manmohan Singh a Washington appointee?

A Prattler's Tale

(Memoirs of Ashok Mitra, chief economic adviser to government of India when Mrs. Indira Gandhi and former Finance Minister of West Bengal)

(Book Review by) MJ Akbar

Deep into Dr Ashok Mitra's new book, A Prattler's Tale: Bengal, Marxism and Governance (Samya, Rs 595), I began to feel a growing sense of irritation. Here was this virtually ceaseless, seamless sequence of the most wonderful political anecdotes I had read in years, and so many of them lost the last-mile edge because the author had refused to name names, although the descriptions took you near enough the identity.Dr Mitra's career is packed with "former" designations -- chairman of the Agricultural Prices Commission and chief economic adviser to government of India when Mrs Indira Gandhi was prime minister (she called him Ashok), finance minister to Jyoti Basu after the Left Front triumph in Bengal in 1977 -- and his memoirs are a treasure house of incident, perception, analysis, and sheer good fun, replete with the kind of story that is a highlight of the epicurean adda, or gossip, sessions that were and are a preferred privilege of the Kolkata Bengali elite.This book will be exploited by the intelligent historian and should be enjoyed by anyone remotely interested in public affairs. Dr Mitra has a justified reputation for fearless honesty. So why had he hidden so many names?And then, ouch! I came across a comment about me that was sharp to the point of being merciless. Relief followed: Ashokda, which is how I have called him for well over two decades, did not mention my name.I went down on a metaphorical knee to offer thanks to God, in whom Dr Mitra does not believe, and the author, in whom Dr Mitra does.Was the comment accurate? Yes. It was absolutely correct and I fully deserved the toxic barb. Dr Ashok Mitra is honest, but he is not ruthlessly honest. Phew.Mine was a case of trivia, but the absence of names in one story was of serious import. Dr Mitra has a startling revelation about the surprise appointment of Dr Manmohan Singh as PV Narasimha Rao's finance minister in 1991.....

Whole article is on this link.....

http://docs.google.com/View?docid=dgnwt3dd_2fmtwxd&revision=_published

(MJ Akbar is Chief Editor of the Asian Age)

Tuesday, February 06, 2007

आगे जहां और भी है...

क्या है आगे। कैसा होगा भविष्य का संचार। एक नजर में आप चौंकने वाले प्रयोगों से दो-चार हो सकते है। मोबाइल, लैपटाप, इंटरनेट और इनका सम्मिश्रण कैसा होगा। ज्यादातर संचार के साधनों का प्रयोग करने वाले उसके सारे प्रयोगों से अनभिग्य ही रहते है। किसी भी संचार सेवा का मूल उद्देश्य पूरा होने के बाद उससे मिलने वाली सहूलियतों का शुल्क देना अभी भारत में शौकीनों की फेहरिस्त में ही आता है। जैसे मोबाइल पर इंटरनेट करना, एमएमएस ब्लूटूथ या इंफ्रारेड से भेजना, इंटरनेट से खरीदारी करना, या आनलाइन कोर्स करना, लैपटाप से अपने घरेलू काम करना आदि। ये तस्वीर कुछ आधुनिक समाज के बरक्स खड़ी होती है। जिसे अपनाने में माहौल का बड़ा हाथ होता है। मोबाइल कैमरे से फोटो खींचना भारतीय को समझ में आने लगा है। पर उसे डाउनलोड करना अभी भी तकनीकी या शौक का पहलू है। तो कैसा होगा ये सामूहिक विकास। कैसा होगा आपके हाथ में रहने वाले उपकरणों से सूचना फैलने का समाज। धुंधला ही सही। पर झलक दिखने लगी है। आपके घर में न मौजूद रेडियो को आपने अपने मोबाइल में पा लिया है। शहरों में एफएम बज रहा है। और एक नई संगीतमय आवाज, आज मनोरंजन और अल्प जरूरी सूचना देने भर में व्यस्त है, कुछ बदल रही है। जैसे सड़कें जाम है। ये गाना फला सन् में गाया गया। इस गीत से जुड़े ये किस्से मशहूर है। चलिए रेडियो अब तीन सौ से ज्यादा शहरों में धड़क रहा है। पर सूचना के पैमाने पर इसे स्वतंत्रता मिलनी बाकी है। ये एक जनसंचार तभी होगा, जब ये हर कहीं की आवाज को समा सकेगा। और हर कही आप जुड़ जाएंगे दुनिया से। सैटेलाइट रेडियो का आपके घरों में बजना दुनिया की दास्तान रखने में कारगर होगा। टीवी रूक रहा है। लाइव प्रोग्राम के बीच टीवी को रोक दीजिए। फिर चला लीजिए। क्या बताता है ये। यानि आप अपने आपको वक्त दे सकते है। सोचने का वक्त, समझने का वक्त। पर बड़ा बदलाव डीटीएच, डायरेक्ट टू होम और कैस, कंडिशनल एक्सेस सिस्टम है। यानि आपकी इच्छा का टीवी दर्शन। पर ये इच्छा कंटेंट का नहीं। चैनलों का है। मसलन, घर में अंग्रेजी या मलयालम चले या न चले। पर स्वतंत्रता देखने की मिलेगी। मांग पर फिल्म। बच्चों के लिए स्पेशल डेवेलप कंटेंट। यानि कम्प्यूटर से आपकी दूरी बढ़ सकती है। टीवी का ये बदलाव आपको दुनिया के बेहरतरीन चैनलों से जोड़ देगा। जो एक समाज के संचार विकास में खासा योगदान देंगे। टीवी पर इंटरनेट मिलना और गेम्स खेलने को अभी भारतीय दर्शक नहीं रूझान बना पाया है। सो बच्चों को खुले में खेलने देना ही बेहतर होगा। कार्टून पर आंशिक प्रतिबंध आप लगा सकते है। अब रही कम्प्यूटर के विकास की बात तो, ये दिन प्रतिदिन अपना स्वरूप छोटा करता जाएगा। कभी लैप तो कभी पॉम। इससे आपका जीवन दूभर होना तय है। कंपनी अगर साथ में कम्प्यूटर देती है तो सेवा लेगी चौबीस घंटे। इसे जीवन में गणित की घुसपैठ ही मानिए।

पर जो एक चीज आपको निहायत ही आलसी बनाएगी, वो भी तकनीक ही होगी। आप मोबाइल के एक मैसेज से शापिंग कर सकेंगे। घर बैठें सारे बिल जमा कर सकेंगे। टीवी पर कुछ भी देख सकेंगें। रेडियो से मनचाहा गाना गवा सकेंगे। लैपटाप से घर बैठे काम कर सकेंगे। पामटाप से मीटिंग में मौजूद रहेंगे। और सफर के दौरान वीडियों कांनफ्रेसिंग से कही भी मौजूद रह सकेंगे। तो क्या तैयार है इस बदलती दुनिया का हिस्सा होने के लिए...

आगे आने वाले लेखों में आपको बताएंगे कि टीवी क्या क्या हो जाएगा आपके दस्तरखान में....

"सूचक"
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Thursday, February 01, 2007

Mother India

"We find this article interesting and relevant. By publishing it, we seem you like it and give you proper response to boost the morale of writer".

Mediayug

Mother India

Mother India has been a favourite film in our peasant family. With Do Bigha jameen this film portrays the Rural India in the same way as depicted by Munshi Prem Chand in his epic novel godan. I first saw the film in my childhood. I enjoyed the film anytime whenevr it was telecasted on small screen as I never miss an opportunity to see Teesri Kasam. Recently I saw Mother India once again and it seems to be the most relevent film till this date, as I feel. No less than Twenty thousand farmers died victimised by Globalistion since 1998. Bidarbh has becom famous for suicides. suicide by a farmer does not stun any one today. It is a dull routine of everyday life in Rural India. I find a new meaning of Samu`s leaving his family and the fight launched by his wife , the mother India. The bleeding continues and no river , no ocean in this world seems to sustain without the blood of peasants worldwide. This is globalisation. Is any one interested to do a remake of Mother India in the Sez context as they have done so many times?.....

Whole article is on this link...

http://docs.google.com/View?docid=dg4xjx99_0c2993j&revision=_published

Palash Biswas
palashbiswas_kl@rediffmail.com

Contact: Palash C Biswas, Gosto Kanan, Sodepur, Kolkata-700110, India)

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