Friday, September 28, 2007

एफएम रेडियो के नए वार

“नेपाली को इंडियन आईडल बना दिया, अब हमारा घर, महल्ला का चौकीदारी कौन करेगा जी”


ये शब्द रेड एफएम के एक रेडियो जॉकी नितिन के थे। जिसकी तपिश अब सिक्किम में देखी जा रही है। ये शब्द उस मानसिकता से निकले है, जो सालों से एक वीर कौम को देश की सेवा में निरंतर देखे जाने के बाद भी कायम है। बहादुर, नाम से ही हम सारे नेपालियों को समझते है। माने बहादुरी गुण नहीं, पेशा हो गया।

रेडियो पर दिनभर बकवास को पेश करने वाले जबान को पेशा बनाने वाले प्रस्तोताओं को अपने शब्दों का कीमत ये वाक्या ही समझा सकता है। देश भर में तीन सौ एफएम रेडियो चैनल है और दिन भर में अगर शब्दों की बरसात का अंदाजा लगाया जाए तो ये देश की जनसंख्या के आधे पर तो बैठेगी।

इस खास वाक्ये में क्योंकि इण्डियन आईडल का विजेता प्रशांत तमांग जुड़ा था, तो ये मुद्दा बन गया, लेकिन भाषाई तबको में नए खुले रेडियो चैनल क्या दिन भर में ऐसी तमाम गलतियां नहीं दोहराते होंगे। सवाल ये है कि क्या रेडियो को प्रचार के बीत गाना सुनाने का यंत्र मान लिया गया है। क्या रेडियो की रचनात्मकता और भूमिका केवल समय गुजारने के लिए पेश किए जाने वाले कार्यक्रमों में समा गई है।

आज रेडियो की बेहतरीन पेशकश करने वाले भी जानते है कि बाजार को साथ लेकर चलना कितना जरूरी है। और यहीं से शुरू हो जाता है सांस्कृतिक हल्के पन का एक तमाशा।

सितम्बर 24 की रात को नितिन ने विजेता के लिए जो शब्द कहे, वो केवल शब्द नहीं मानसिकता की सही तस्वीर दिखाता है। रेडियो जॉकी पूरी तैयारी के साथ ही स्टूडियो आते है। लेकिन काम का दबाव इन्हे अलग जुमले गढ़ने से रोकता है। सो निकलता वो है जो कहीं से काम का न हो या फिर किसी न किसी को कमजोर करता है।

रेडियो की नई भूमिका के लिए कोई मानदण्ड है कि नहीं ये पता करना आसान नहीं है। दिल्ली, लखनऊ, मुंबई या और महानगरों में कई नामों से जारी एफएम एक कपड़े में अलग अलग चेहरे से लगते है।

आने वाले दिनों में रेडियों की पहुंच छोटे शहरों से जुड़े गांवों तक होगी। और तब क्या किसान खेतों में गाना सुनकर खेती करेगा। या बेरोजगार अपना दिन इसी बकवास के बीच गुजार देगा।

बीते दिनों सरकार ने कहा कि उसे निजी रेडियो पर समाचार प्रस्तुत करने देने में कोई दिक्कत नहीं है, बशर्ते उस पर कोई नजर रखे। आज तो किसी की नजर है नहीं, आगे क्या होगा भगवान जाने।

इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल है कि क्या रोडियो को टाइमपास बनाने में इन रेडियो जॉकियो की सबसे बड़ी भूमिका है। और अगर है तो क्या लगता है कि रेडियो का भविष्य केवल दाम और नाम के बीच गाना बजाने की बची है।

http://sikkimnews.blogspot.com/2007/09/idol-ridiculed-protests-in-darjeeling.html
http://sikkimnews.blogspot.com/2007/09/24-hours-kalimpong-bandh-over-rj-nitin.html

Soochak
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Thursday, September 27, 2007

अखबार और उसकी खबर

पहले पन्ने के लिए अखबारों की प्राथमिकता

भूमिका
प्रक्रिया
खबरों का विषय
कहाँ से आयी है खबरें
प्रभाव क्षेत्र (राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय/प्रादेशिक/स्थानीय)
प्रस्तुति
स्रोत
चित्रों का प्रयोग
प्राथमिकताओं में तुलना
पहले पन्ने के लिए अखबारों की प्राथमिकता: प्रमुख निष्कर्ष

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तालिकाएं

तालिका 1: खबरों का विषय

तालिका 2 : कहाँ से आयी है खबरें

तालिका 3 : प्रभाव क्षेत्र (राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय/प्रादेशिक/स्थानीय) :

तालिका 4 : प्रस्तुति

तालिका 5 : स्रोत

तालिका 6 : चित्रों का प्रयोग


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भूमिका


अखबार लंबे समय से प्रामाणिक सूचना का स्रोत रहे हैं. आज संचार के नए नए माध्यमों के आ जाने के बाद भी हालत यह है कि बहुत से लोग टीवी पर खबर देखने के बाद अगले दिन के अखबार से उसे ' कन्फर्म' करते हैं.

पहले पन्ने को अखबार का आईना माना जाता है. इस पर छपी खबरों का आम जनता पर व्यापक प्रभाव पडता है. इन विषयो के प्रति लोगों में जागरुकता भी बढती है. कई बार पहले पन्ने की खबरें उस दिन की अन्य घटनाओं की महत्ता को मापने का पैमाना भी बनती है. एक वरिष्ठ पत्रकार के शब्दों में "अखबार के पहले पन्ने पर छपी खबरें उस दिन का इतिहास तय करती हैं."

इसलिए अखबारों की जिम्मेदारी बनाती है की वह पहले पन्ने पर ऐसी खबरों को छापें जिनका आमजन से व्यापक सरोकार हो, जिनके बारे में जानना देश व समाज के विकास के लिए जरुरी हो और जो लंबे समय तक प्रभाव रखने वाले हों.

अखबार किन मुद्दों को प्राथमिकता देते हैं, यह पहले पन्ने पर छपी खबरों से स्पष्ट हो जाता है. इसलिए पहले पन्ने पर छपी खबरों के प्रति उनकी प्राथमिकता के बारे में जानना महत्वपूर्ण है. इस समय देश में हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के अखबार बड़ी संख्या में पढे जाते हैं. दोनों ही भाषाओं के अखबारों का अपना ख़ास पाठक वर्ग है. इसलिए दोनों की प्राथमिकताओं का अलग- अलग विश्लेषण भी जरुरी है.

दोनों भाषाओ के अखबारों की प्राथमिकताओं को जानने के लिए सीएमएस मीडिया लैब द्वारा अगस्त 2007 में प्रकाशित प्रमुख हिन्दी और अंग्रेजी दैनिकों के पहले पन्ने का अध्ययन किया गया.

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प्रक्रिया

1-31 अगस्त के बीच प्रकाशित हिन्दी दैनिकों हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, नवभारत टाइम्स और राष्ट्रीय सहारा व अंग्रेजी दैनिकों द हिन्दू, द इंडियन एक्स्प्रेस, द टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स के पहले पन्ने पर का अध्ययन किया गया.

इनमें छपी खबरों का निम्नलिखित आधारों पर विश्लेषण किया गया.

खबरों का विषय
कहां से आयी हैं
प्रभाव क्षेत्र (अंतर्राष्ट्रीय/राष्ट्रीय/प्रादेशिक/स्थानीय),
प्रारूप,
स्रोत,
चित्रों का प्रयोग और
हिन्दी व अंग्रेजी अखबारों की प्राथमिकताओं में तुलना.


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खबरों का विषय

दोनों ही भाषाओं के अखबारों में राजनीति की खबरों को सबसे ज्यादा प्राथमिकता दी गयी है. इसके बाद अपराध को प्राथमिकता दी गयी है. वहीं कला- संस्कृति, पर्यावरण, वन्य जीवन, फैशन, जीवन-शैली, मौसम, कृषि और मीडिया जैसे महत्वपूर्ण विषयों को दोनों ही भाषाओं के अखबारों ने नजरअंदाज किया. अखबारों के पहले पन्ने पर इन विषयों से न के बराबर खबरें छपी.

राजनीति व अपराध पर की खबरों की संख्या आर्थिक मामलों के खबरों के दोगुना से ज्यादा है. वहीं विकास संबंधी अन्य विषयों से कई गुना ज्यादा संख्या में राजनीति व अपराध की खबरें छपी.

अलग अलग विषयों की खबरों को मिली प्राथमिकता का विश्लेषण आगे किया जा रहा है.

राजनीति : दोनों भाषाओं के अखबारों में पहले पन्ने पर राजनीति की खबरें सबसे ज्यादा छपी. हालांकि अंग्रेजी अखबारों ने इस विषय को ज्यादा (हिन्दी के मुकाबले 3% ज्यादा) कवरेज दी. उनमें पहले पन्ने पर छपी 23% खबरें इस विषय से थीं. हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने पर इस विषय की 20% खबरें छपीं.

अपराध : दोनों ही भाषा के पत्रों की दूसरी प्राथमिकता अपराध विषय है. दोनों ने अपराध की खबरों को बराबर प्राथमिकता दी. हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने की 13% खबरें इस विषय पर हैं. वहीं अंग्रेजी अखबारों मे इस विषय के अखबारों की संख्या 12% है.

अंतर्राष्ट्रीय : अंतर्राष्ट्रीय मामलों की खबरों को भी अखबारों पहले पन्ने पर प्रमुखता दी. इस विषय पर हिन्दी अखबारों में अंग्रेजी के मुकाबले ज्यादा खबरें छपी. हिन्दी अखबारों मे पहले पन्ने पर 12% खबरें इस विषय से हैं. वहीं अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर 9% खबरें इस विषय से हैं.

न्याय-व्यवस्था : दोनों भाषाओं के पत्रों ने न्याय- व्यवस्था को बराबर प्राथमिकता दी. दोनों भाषाओं के अखबारों मे पहले पन्ने पर इस विषय के खबरों की संख्या 9-9% है.

आर्थिक मामले : हिन्दी अखबारों में व्यापार/ आर्थिक मामलों की खबरें अंग्रेजी से ज्यादा छपी. हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने पर औसतन 7% खबरें आर्थिक मामलों से थी वहीं अंग्रेजी अखबारों में पहले पन्ने पर 5% खबरें इस विषय से थीं.

मानवीय रुचि: मानवीय रुचि की खबरों को दोनों भाषाओं के अखबारों ने बराबर प्राथमिकता दी. दोनों के पहले पन्ने पर इस विषय से 6% खबरें थी.

खेल : खेल की खबरों को दोनों अखबारों पहले पन्ने पर लगभग बराबर प्रमुखता दी. हालांकि हिन्दी अखबारों में इनकी संख्या अंग्रेजी के मुकाबले थोडी ज्यादा है. हिन्दी अखबारों में पहले पन्ने पर खेल की खबरों की संख्या कुल खबरों का 7% थी. वहीं अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर कुल समाचारों का 6% खेल समाचार थे.

सुरक्षा : राष्ट्रीय सुरक्षा की खबरों को हिन्दी से ज्यादा प्राथमिकता अंग्रेजी अखबारों ने दी. इनके पहले पन्ने पर 5% खबरें राष्ट्रीय सुरक्षा विषय से थी. हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने पर इन खबरों की संख्या कुल खबरों का 3% थी.

फ़िल्म : फिल्म, मनोरंजन व सेलिब्रेटी से जुडी खबरों को हिन्दी और अंग्रेजी अखबारों ने बराबर प्राथमिकता दी. दोनों भाषाओं के अखबारों के पहले पन्ने पर इन विषयों से 4-4% खबरें छपी.

जननीति/शासन :
जननीतियों और शासन की खबरों को दोनों भाषाओं के अखबारों ने बराबर प्राथमिकता दी. दोनों के पहले पन्ने पर कुल खबरों का 4-4% इस विषय थीं.

दुर्घटना/प्राकृतिक आपदा :
दुर्घटनाओं व प्राकृतिक आपदाओं की खबरों को भी दोनों भाषा के पत्रों ने समान प्रमुखता दी. दोनों ही भाषाओं के पत्रों के पहले पन्नों पर इस विषय की लगभग 3% खबरें छपी.


कानून-व्यवस्था :
हिन्दी अखबारों ने पहले पन्ने पर कानून व्यवस्था की खबरों को ज्यादा संख्या में (अंग्रेजी के मुकाबले) प्रकाशित किया. हिन्दी पत्रों के पहले पन्ने पर कुल खबरों की 3% संख्या इस विषय से थी. वहीं अंग्रेजी अखबारों में इस पन्ने पर 2% खबरें इस विषय से थी.

भ्रष्टाचार:
भ्रष्टाचार की खबरों की कवरेज में दोनों भाषाओं के अखबारों में बडा अंतर है. हिन्दी अखबारों ने अंग्रेजी के दोगुने से ज्यादा संख्या में भ्रष्टाचार की खबरों को पहले पन्ने पर छापा. हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने पर इस विषय के खबरों की संख्या कुल खबरों का लगभग 5% थी. वहीं अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर मात्र 2% खबरें इस विषय से थीं.

शिक्षा : शिक्षा की खबरों को दोनों भाषाओं के अखबारों ने बराबर महत्व दिया. दोनों के पहले पन्ने पर छपी 2% खबरें शिक्षा से थीं.

नागरिक मामले: नागरिक मामलों से जुडी खबरों को हिन्दी अखबारों ने अपेक्षाकृत ज्यादा प्राथमिकता दी. इनके पहले पन्ने पर 4% खबरें नागरिक मामलों की थी. वहीं अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर इस विषय की 3% खबरें छपी.

स्वास्थ्य : स्वास्थ्य की खबरों को दोनों भाषाओं के अखबारों ने बहुत कम प्राथमिकता दी. दोनों के पहले पन्ने पर कुल खबरों का 1% इस विषय से थीं.

विज्ञान और प्रौद्योगिकी :

विज्ञान और प्रौद्योगिकी की खबरों को हिन्दी अखबारों ने पहले पन्ने पर अंग्रेजी के मुकाबले अधिक प्राथमिकता दी. हालांकि इनकी संख्या हिन्दी अखबारों में छपी अन्य खबरों की तुलना में बहुत कम है. हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने पर कुल खबरों की महज 1% संख्या इस विषय से थी. वहीं अंग्रेजी अखबारों में इस पन्ने पर विज्ञान व प्रौद्योगिकी से न के बराबर खबरें छपीं.

अन्य विषय : दोनों भाषाओं के अखबारों ने अन्य विषयों की खबरों को बराबर प्राथमिकता दी. दोनों के पहले पन्ने पर 2-2% खबरें अन्य विषयों की थी.

*** धार्मिक विषय की खबरें सिर्फ हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने पर छपी. इनकी संख्या इस पन्ने पर छपी कुल खबरों की संख्या का 1% थी. वहीं मौसम की खबर सिर्फ अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर छपी. इनकी भी संख्या अंग्रेजी पत्रों के पहले पन्ने पर छपी खबरों का 1% थी.

राजनीति व भ्रष्टाचार को छोडकर शेष विषयों के प्रति दोनों अखबारों की प्राथमिकताओं में खास अंतर नहीं है. राजनीति की खबरों को अंग्रेजी अखबारों में प्राथमिकता मिली वहीं भ्रष्टाचार की खबरों को हिन्दी अखबारों में ज्यादा प्राथमिकता दी गयी.

तालिका 1: खबरों का विषय

विषय अंग्रेजी
अखबार
हिन्दी
अखबार

खबरों की संख्या (%)
अंतर्राष्ट्रीय 9 6
राजनीति 23 20
सुरक्षा 5 4
आर्थिक मामले 5 5
खेल 6 7
कला/संस्कृति 0 0
अपराध 12 12
न्याय-व्यवस्था 9 10
पर्यावरण व वन्य जीवन 0 0
मानवीय रुचि 6 6
स्वास्थ्य 2 1
दुर्घटना/प्राकृतिक आपदा 3 3
कानून-व्यवस्था 2 4
विज्ञान और प्रौद्योगिकी 0 1
फ़िल्म 4 4
धार्मिक 0 1
शिक्षा 2 2
नागरिक मामले 3 4
फैशन व जीवन शैली 0 0
मौसम 1 0
जननिति/शासन 4 3
भ्रष्टाचार 2 5
कृषि 0 0
मीडिया 0 0
अन्य 2 2
कुल 100 100


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कहाँ से आयी है खबरें
दोनों ही भाषाओं के अखबारों में पहले पन्ने पर अधिकतर दिल्ली से आयी खबरें थी. ग्रामीण क्षेत्रों, चेन्नै और कोलकाता से आयी खबरों को न के बराबर जगह दी गयी हैं. इस पन्ने पर दिल्ली आयी खबरों की संख्या लगभग 61.5% है वहीं ग्रामीण क्षेत्रों, चेन्नै और कोलकाता तीनों वर्गों की खबरों की कुल संख्या लगभग 1% है.

अलग अलग जगहों से आयी खबरों को मिली प्राथमिकता का विश्लेषण आगे किया जा रहा है.

दिल्ली : दिल्ली से आयी खबरें लगभग सभी अखबारों के पहले पन्ने पर प्रमुखता से छपी. यहां से आयी खबरों को हिन्दी अखबारों ने अंग्रेजी के मुकाबले ज्यादा तरजीह दी. हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने पर 66 फीसदी खबरें दिल्ली से आयी जबकि अंग्रेजी अखबारों मे इस पन्ने पर दिल्ली से आयी खबरें (57%) थी.

अंतर्राष्ट्रीय :दूसरे देशों से आयी खबरों को अखबारों दोनों भाषाओं के अखबारों ने लगभग बराबर प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया. अंग्रेजी अखबारों मे पहले पन्ने पर विदेश से आयी खबरों की संख्या 11% थी. वहीं हिन्दी अखबारों में इन खबरों की संख्या 10% थी.

अन्य शहर (राजधानियों को छोडकर) :अन्य शहरों से आयी खबरें भी लगभग सभी अखबारों के पहले पन्ने पर प्रमुखता से छपी. इन शहरों से आयी खबरों को हिन्दी अखबारों ने अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया. इनके पहले पन्ने पर अन्य शहरों से आयी 12% खबरें छपी जबकि अंग्रेजी अखबारों में पहले पन्ने पर इन शहरों से आयी 10% खबरें छपी.

राजधानी (महानगरों को छोडकर): राज्यों की राजधानियों को अंग्रेजी अखबार ज्यादा प्राथमिकता देते हैं. अंग्रेजी अखबारों ने पहले पन्ने पर राज्यों की राजधानियों से आयी खबरों को हिन्दी अखबारों के दुगुने से भी ज्यादा संख्या में प्रकाशित किया. अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर राजधानियो से आयी 12% खबरें थी वहीं हिन्दी अखबारों में पहले पन्ने पर इनकी संख्या महज 5% रही.

ग्रामीण क्षेत्र : ग्रामीण इलाकों के प्रति दोनों भाषाओं के अखबार उदासीन हैं. लगभग सभी अखबारों के पहले पन्ने पर ग्रामीण क्षेत्रों से आयी खबरों की संख्या नगण्य है.

चेन्नै /कोलकाता : महानगर होने के बावजूद चेन्नै और कोलकाता से आयी खबरों को अखबारों के पहले पन्ने पर न के बराबर जगह मिली है. हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने पर इन दोनों जगहों से आयी खबरें न के बराबर छपी. अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर कोलकाता से आयी 1% खबरें छपी.

मुम्बई : अंग्रेजी अखबारों ने मुंबई से आयी खबरों को हिन्दी अखबारों के मुकाबले अधिक प्राथमिकता दी. इनके पहले पन्ने पर मुंबई से आयी खबरों की संख्या कुल खबरों का 10% थी. वहीं हिन्दी अखबारों में पहले पन्ने पर मुंबई से आयी खबरों की संख्या कुल खबरों का 8% थी.

इस तरह स्प्ष्ट हो जाता है कि सभी अखबारों की पहली प्राथमिकता दिल्ली है और सुदूर के इलाकों में इनकी दिलचस्पी कम है.

तालिका 2 : कहाँ से आयी है खबरें

विषय - अंग्रेजी
अखबार
हिन्दी
अखबार


खबरों की संख्या (% में)
दिल्ली 51 65
मुम्बई 10 8
चेन्नै 0 0
कोलकाता 1 0
राजधानी 15 5
ग्रामीण क्षेत्र 0 0
अंतर्राष्ट्रीय 10 10
अन्य शहर 13 12
कुल 100 100



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प्रभाव क्षेत्र (राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय/प्रादेशिक/स्थानीय)

राष्ट्रीय : राष्ट्रीय प्रभाव की खबरों को अखबारों ने पहले पन्ने की लिए सबसे ज्यादा प्राथमिकता दी है. पहले पन्ने पर छपी दस में से चार खबरें राष्ट्रीय प्रभाव की रहती हैं. दोनों भाषाओं के अखबारों को अलग अलग देखें तो राष्ट्रीय प्रभाव वाली खबरों को दी गयी प्राथमिकता में ज्यादा अंतर नहीं है.

हिन्दी अखबारों के प्रथम पृष्ठ के 41% समाचार इस विषय से हैं, वहीं अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर भी इस विषय की खबरों की संख्या 38% है.

प्रादेशिक : इसके बाद प्रादेशिक स्तर पर प्रभाव रखने वाले खबरों को अंग्रेजी अखबारों ने हिन्दी के मुकाबले ज्यादा प्रमुखता दी. इनके पहले पन्ने पर 36% खबरें प्रादेशिक प्रभाव वाली थी. वहीं हिन्दी अखबारों में पहले पन्ने पर इन खबरों की संख्या 30% थी.

अंतर्राष्ट्रीय : दोनों भाषा के अखबारों में अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव वाले समाचारों को पहले पन्ने पर स्थान दिया गया है. हालांकि इनकी संख्या राष्ट्रीय और प्रादेशिक प्रभाव वाली खबरों की तुलना में बहुत कम है.

अंग्रेजी अखबारों ने अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव वाले समाचारों को हिन्दी अखबारों के मुकाबले ज्यादा प्राथमिकता दी. अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर इनकी संख्या कुल खबरों का 18% थी जबकि हिन्दी अखबारों मे कुल खबरों का 15% अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव वाली खबरें थी.

स्थानीय :
पहले पन्ने पर स्थानीय महत्त्व के समाचारों को सबसे कम प्रमुखता मिली है. हिन्दी अखबारों ने अंग्रेजी के मुकाबले लगभग दुगुनी संख्या में स्थानीय महत्व के समाचारों को पहले पन्ने पर जगह दी.

हिन्दी अखबारों में पहले पन्ने पर स्थानीय महत्व की 15% खबरें छपी. वहीं अंग्रेजी अखबारों में पहले पन्ने पर 8% खबरें स्थानीय प्रभाव की थी.

तालिका 3 : प्रभाव क्षेत्र (राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय/प्रादेशिक/स्थानीय) :

प्रभाव क्षेत्र अंग्रेजी अखबार हिन्दी अखबार
खबरों की संख्या (% में)
स्थानीय 8 15
राष्ट्रीय 38 41
प्रादेशिक 36 30
अंतर्राष्ट्रीय 18 15
कुल 100 100


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प्रस्तुति
खबरों की प्रस्तुति से भी उनको दी गई महत्ता का पता चलता है. इस खण्ड मे देखा गया है की कितनी खबरों को सामान्य समाचार, विश्लेषण, फीचर या अन्य रूपों में प्रस्तुत किया गया है.

प्रस्तुति को लेकर दोनों भाषाओं के पत्रों में खास अंतर नहीं है. दोनों भाषाओं के अखबारों में पहले पन्ने पर सामान्य समाचारों की प्रधानता है. विश्लेषण कम संख्या मे हैं, फीचर और अन्य रूप तो बहुत ही कम हैं.

दोनों ही भाषाओं के अखबारों में पहले पन्ने पर छपी दस में नौ खबरें सामान्य समाचार के रूप में होती है. हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने सामान्य समाचारों की संख्या पर 93% है. अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर कुल खबरों का 91% सामान्य समाचार के रूप में छपे.

अंग्रेजी अखबारों में विश्लेषणों की संख्या हिन्दी के मुकाबले 1.5 गुना है. अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर कुल खबरों का 6% विश्लेषण के रूप में छपे. जबकि हिन्दी अखबारों में इनकी संख्या 4% है.

फीचरों और अन्य प्रस्तुतियों की संख्या दोनों भाषाओं के अखबारों में बराबर है. दोनो भाषाओं के पत्रों में फीचरों की संख्या 1-1% और अन्य प्रस्तुतियों की संख्या 2-2% है.

तालिका 4 : प्रस्तुति

प्रस्तुति अंग्रेजी अखबार हिन्दी अखबार
खबरों की संख्या (% में)
समाचार 91 93
विश्लेषण 6 4
फीचर 1 1
अन्य 2 2
कुल 100 100

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स्रोत
खबरों के लिए प्रयोग किये जा रहे स्रोत यह स्पष्ट करते हैं कि उन खबरों के प्रति अखबार कितने गंभीर हैं. स्रोत के विश्लेषण से हम पाते हैं महत्वपूर्ण मुद्दों को कवर करने के लिए अखबार अपने संवाददाताओं को रखते हैं. अधिकतर अखबारों ने पहले पन्ने पर अपने पत्रकारों की खबरों को प्राथमिकता दी.

इस पन्ने की खबरों के लिए कम ही अखबार समाचार समितियों पर निर्भर हैं. जहां अखबारों के संवाददाता नहीं हैं वहां की खबरें संवाद समितियों से ली गयी. कई बार संवाददाताओं और समाचार समितियों का प्रयोग संयुक्त रूप से किया गया.

अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर उनके संवाददातओं द्वारा भेजी गयी खबरों की संख्या कुल खबरों का 76% थी वहीं हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने के 70% ऐसी खबरें थी.

समाचार समितियों को हिन्दी अखबारों ने ज्यादा प्राथमिकता दी. हिन्दी अखबारों ने पहले पन्ने पर अंग्रेजी के मुकाबले चार गुना संख्या में समाचार समितियों की खबरों को प्रकाशित किया. हिन्दी अखबारों में पहले पन्ने पर समितियों की खबरों की संख्या कुल खबरों का 24% है. अंग्रेजी अखबारों में पहले पन्ने पर मात्र 6% खबरें समाचार समितियों की हैं.

अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर 14% खबरें ऐसी थी जिनके लिए संवाददाता और समितियों दोनों स्रोतों का प्रयोग किया गया. हिन्दी के तीन अखबारों ने सिर्फ एक एक बार ऐसा किया है.

कुछ मामलों में अखबारों ने खबरों के स्रोत का उल्लेख नहीं किया. दोनों भाषाओं के अखबारों में पहले पन्ने पर 4% खबरें ऐसी हैं जिनके स्रोत का जिक्र नहीं किया गया.

तालिका 5 : स्रोत

स्रोत अंग्रेजी अखबार हिन्दी अखबार
खबरों की संख्या (% में)
संवाद समिति 6 26
संवाददाता 76 70
दोनों 14 0
अज्ञात 4 4
कुल 100 100


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चित्रों का प्रयोग
कहा गया है कि "एक चित्र हजार शब्दों के बराबर होता है". अखबारों इस कथन की पुष्ट किया है. दोनों भाषाओ के अखबारों में पहले पन्ने के लगभग आधे समाचारों के साथ चित्रों का प्रयोग किया गया है. कई बार तो सिर्फ़ चित्र ही छापे गए हैं.

चित्रों के मामले में दोनों भाषाओं के अखबारों की प्राथमिकताएं भिन्न हैं. हिन्दी अखबारों ने अंग्रेजी के मुकाबले 15% ज्यादा खबरों के साथ चित्र छापा. हिन्दी अखबारों में पहले पन्ने पर 62% खबरों के साथ चित्र छपे जबकि अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर 47% के खबरों साथ चित्र प्रकाशित किये गये.

हिन्दी अखबारों में ऐसी खबरों की संख्या कम (अंग्रेजी से 11% कम) है जिनके साथ चित्र नहीं छपे. अंग्रेजी में अखबारों के पहले पन्ने पर 43% ख़बरें बिना चित्र के छपी. वहीं हिन्दी अखबारों मे पहले पन्ने पर 32% खबरों के साथ कोई चित्र प्रकाशित नहीं हुआ.

खबर के रूप में सिर्फ चित्र को अंग्रेजी अखबारों ने अधिक प्रमुखता दी है. अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर 10% समाचार ऐसे थे जिनमें सिर्फ चित्र था. हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने पर ऐसे समाचारों की संख्या 6% थी.

तालिका 6 : चित्रों का प्रयोग :

चित्र अंग्रेजी अखबार हिन्दी अखबार
खबरों की संख्या (% में)
खबरों के साथ चित्र 47 62
बिना चित्र की खबरें 43 32
सिर्फ चित्र 10 6
कुल 100 100


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प्राथमिकताओं में तुलना
हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओ के अखबारों की प्राथामिकताओ में कोई बड़ा अन्तर नही है. खबरों के स्थान, प्रभाव क्षेत्र, प्रस्तुति और चित्र आदि के मामलो में तो स्थिति लगभग एक जैसी ही है. विषयो और स्रोत के संदर्भ में मामूली सा अन्तर है.
हिन्दी अखबार खबरों के लिए समाचार समितियों पर अंग्रेजी अखबारों के मुकाबले ज्यादा निर्भर हैं. लगभग सभी पत्रों की पहली प्राथमिकता उनके पत्रकार है.

विभिन्न विषयो की खबरों की संख्या तो लगभग बराबर है. अंतर्राष्ट्रीय मामले, राष्ट्रीय राजनीति और सुरक्षा जैसे विषयों की संख्या अंग्रेजी अखबारों में ज्यादा है. शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, व्यापार, अर्थ-व्यवस्था व नागरिक मामलो जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे सभी अखबारों में हाशिए पर हैं. राजनीति व अपराध की खबरें ही पहले पन्ने पर छायी हुई हैं.

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पहले पन्ने के लिए अखबारों की प्राथमिकता: प्रमुख निष्कर्ष
चार प्रमुख हिन्दी दैनिकों हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा व नवभारत टाइम्स और चार प्रमुख अंग्रेजी दैनिकों हिन्दुस्तान टाइम्स, द टाइम्स ऑफ इंडिया, द हिन्दू और द इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने के समाचारों के अध्ययन से निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त हुए.

राजनीति की खबरें अखबारों की पहली प्राथमिकता है. इस पन्ने पर औसतन 16.5% खबरें राजनीति से रहती हैं. अंग्रेजी अखबार राजनीति की खबरों को ज्यादा (हिन्दी के मुकाबले 3% ज्यादा) प्राथमिकता देते हैं.
दोनों भाषाओं के अखबारों में राजनीति के बाद अपराध की खबरों को प्रमुखता दी जाती है. पहले पन्ने पर औसतन 12.5% समाचार इस विषय से हैं.

शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थ-व्यवस्था, कृषि-व्यापर व बुनियादी सुविधाएं जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को पहले पन्ने पर बहुत कम जगह दी जा रही है. पहले पन्ने पर छपी इन विषयों की खबरों को मिला दें तो वह कुल खबरों की संख्या का दस फीसदी हैं.
राष्ट्रीय महत्व की खबरें पहले पन्ने पर प्रमुखता से छपती हैं. इस पन्ने पर 10 में से 4 खबरें राष्ट्रीय महत्व की रहती हैं. दोनों भाषाओं के अखबारों ने इन खबरों को लगभग बराबर प्राथमिकता दी.

पहले पन्ने पर दिल्ली से आयी खबरें सबसे ज्यादा संख्या में रहती हैं. दस में छः खबरें दिल्ली से होती हैं. हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने पर 41% खबरें राष्ट्रीय प्रभाव वाली थी जबकि अंग्रेजी अखबारों में पहले पन्ने पर ऐसी खबरों की संख्या 38% है.

ग्रामीण इलाकों की खबरों को पहले पन्ने पर नही के बराबर जगह दी जाती है. हिन्दी के तीन और और अंग्रेजी के एक अखबार ने पहले पन्ने पर सिर्फ एक एक खबर को जगह दी.

विश्लेषण और फीचर के रूप में बहुत कम खबरें छपती हैं. दोनों रूपों को मिलाकर औसतन 6% खबरें रहती हैं.

पहले पन्ने पर संस्थान के पत्रकारों द्वारा भेजी गयी खबरों की संख्या ज्यादा रहती है. इसके बाद समाचार समितियों से आयी खबरों की संख्या रहती है.

अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर उनके संवाददातओं द्वारा भेजी गयी खबरों की संख्या कुल खबरों का 76% थी वहीं हिन्दी अखबारों के पहले पन्ने के 70% ऐसी खबरें थी.

अंग्रेजी अखबार स्रोत के रूप में कई बार समाचार समितियों और अपने पत्रकारों दोनों का प्रयोग संयुक्त रूप से करते हैं. हिन्दी के तीन अखबारों ने सिर्फ एक एक बार ऐसा किया है. जबकि अंग्रेजी अखबारों के पहले पन्ने पर 14% खबरें ऐसी थी.

पहले पन्ने पर चित्रों का प्रयोग प्रमुखता से होता है. कई बार समाचार के रूप में केवल चित्र भी प्रकाशित किए जाते हैं.
औसतन 8% चित्र ऐसे हैं जिनके साथ टेक्स्ट नहीं छापा गया है.

कुछ मामलों को छोड कर हिन्दी और अंग्रेजी अखबारों की प्राथमिकताएं एक जैसी हैं. मुख्य अंतर खबरों के स्रोत में है. अंतर्राष्ट्रीय मामले, राजनीति और सुरक्षा विषयों की खबरों की संख्या में दोनों भाषाई अखबारों में थोडा- बहुत अंतर है.


* स्रोत : सीएमएस मीडिया लैब
अध्ययन अवधि : अगस्त 2007
.
******
# जिन अखबारों का अध्ययन किया गया :


* अंग्रेजी अखबार

हिन्दुस्तान टाइम्स
द टाइम्स ऑफ इंडिया
द हिन्दू
द इंडियन एक्सप्रेस

* हिन्दी अखबार

राष्ट्रीय सहारा
हिन्दुस्तान
दैनिक जागरण
नवभारत टाइम्स
******

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Tuesday, September 25, 2007

WOMEN JOURNALISTS CALL FOR PUBLIC DEBATE








Press Release

WOMEN JOURNALISTS CALL FOR PUBLIC DEBATE

ON BROADCAST BILL AND CONTENT CODE

The Network of Women in Media, India registers its concern about the Broadcast Bill (Broadcasting Services Regulation Bill, 2007 and Content Code (Self-Regulation Guidelines for the Broadcasting Sector). As media professionals aware of the important role of media in society, we welcome the long-delayed effort towards media regulation, which is a feature of all mature democracies that respect the fundamental human right to freedom of expression, of which freedom of the press/media is a crucial part. The Supreme Court of India has also clearly stated that the airwaves belong to the public and that their use is to be regulated by a public authority in the interests of the public.

We are disturbed about the non-transparent and non-inclusive process of drafting the legislation, and the absence of public consultation and informed debate.


We question the claim of Minister for Information and Broadcasting Priya Ranjan Dasmunsi that only "the broadcast media" are opposed to the establishment of a broadcasting regulatory authority. Several independent and informed commentators have expressed their reservations about the Bill as well as the nature of the authority outlined in it. Many have also argued against the draft Code and for professional, ethics-based self-regulation. We urge the Ministry to place on its website the written responses it has received to the draft documents, some of which contain serious and detailed comments and recommendations.

We also question Mr Dasmunsi's assertion that, besides cable operators, "consumer groups, NGOs and women's groups," support the Ministry's efforts to regulate the media. It is incumbent upon him to make public the identity of those who participated in the discussions, ostensibly on behalf of the public. Such transparency will create a more conducive environment for the necessary open debate on media regulation in India.

Twelve years ago, the Supreme Court directed the central government to take steps to establish an independent public regulatory authority -- representative of all classes and interests in society. Unfortunately, the Broadcasting Authority of India (BRAI), as described in the Bill, cannot be seen as autonomous, considering the overarching influence of the government. We firmly believe that only a genuinely autonomous institution will have any credibility.

The NWMI holds that:

1.. The first step towards media regulation that respects and protects freedom of expression is the setting up of a properly constituted, competent and independent public authority empowered with a clear mandate and guaranteed autonomy.

2.. While we share the evidently widespread public concern about the functioning of sections of the media in recent times, we believe knee-jerk reactions to media malpractices do not bode well for media regulation in a democracy. The regulation of mass media in the public interest must maintain the necessary complex and delicate balance between the market and the state so that neither can interfere with freedom of expression and thereby prevent the media from serving the public.

3.. The draft Broadcast Bill and Content Code do not meet the standards expected of the world's most populous democracy with a long tradition of a vigorous and vibrant media playing a critical but constructive role in the polity.


We therefore call upon the I&B Ministry to issue a series of consultation papers on different aspects of media regulation and to initiate a participatory and informed public debate involving media professionals and journalists' associations, among other sections of civil society. We believe media regulation is too critical an issue to be decided upon without broad consultation.

Sincerely,

Rajashri Dasgupta (Kolkata)

Vasanthi Hariprakash (Bangalore)

Manipadma Jena (Bhubaneswar)

Ammu Joseph (Bangalore)

Anjali Mathur (Mumbai)

Meena Menon (Mumbai)

Laxmi Murthy (Delhi/Kathmandu)

Jyoti Punwani (Mumbai)

Kalpana Sharma (Mumbai)

Charumathi Supraja (Hyderabad)

Shree Venkatram (Delhi)

On behalf of The Network of Women in Media, India

Courtesy:
www.nwmindia.org







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Monday, September 24, 2007

टीवी पत्रकारिता के लिए खुद को बदलने का वक्त

एक दिन में क्या क्या बदल सकता है। ये सवाल आप तीन वजहों से पूछिए। पहला, एक निजी समाचार चैनल को एक महीने की बंदी का फरमान जारी हुआ। दूसरा, एक लड़की ने अपने आप को काम के बोझ, या किसी तनाव में खत्म कर डाला, लड़की टीवी पत्रकार थी। एक दिन में होने वाली इन दो घटनाओं के रिश्ते टीवी पत्रकारिता से इतने गहरे है कि इस दाग को अपने दामन से वो हटा नहीं पाएगा।

टीवी के लिए ये एक ठहराव है। जहां से अब जब वो आगे बढ़ेगा, तो उसे सोचना, समझना और फूंक फूंक कर कदम बढ़ाना होगा। ये झटके उसकी निजी और सामाजिक गलतियों से पनपे है। एक दिन एक खबर में अपनी सफलता के परचम को देखते हुए किन्ही मासूमों को फ्रेम करने वाले एक पत्रकार को एक दिन की सफलता ने ले डूबा, तो टीवी के मायाजाल में उलझी एक लड़की को जिंदगी में मनचाहा न मिलने पर जिंदगी के नाता तोड़ लेना ही रास्ता दिखा।

एक खबर से लोकतंत्र में मिले अधिकार को हाशिए पर लाया जा सकता है। इसकी मिसाल बनी टीवी की एक खबर ने टीवी पत्रकारिता के चरम को हिला कर रख दिया है। लेकिन इसके पीछे एक सच, जो अब एक मौत के बाद चुभने वाला बन चुका है। एक पत्रकार को क्या मार डालता है। उसका काम। उसका नाम या उसके प्रति जिम्मेदारों का असंवेदनशील चेहरा।

कई पहलू उभरे एक महिला पत्रकार की मौत से। छोटे बड़े शहरों, हर तरह के सामाजिक वर्गो, हर तरह की पारिवारिक ढांचों से आने वाले युवक-युवती। सबमें टीवी को लेकर चाहत है, दिखने की चाहत। टीवी की मांग के अनुरूप, इन सुंदर चेहरों को इस्तेमाल भी किया जाता है। उन्हे तव्वजो मिलती है। लेकिन इसी से बढ़ जाती है उनकी अपेक्षाएं। टीवी पत्रकारिता में बहुमुखी होने के अपने लाभ है। लेकिन इनके साथ आब्जेक्टिव होना चुनौती है।

एक पत्रकार की मौत और चैनल को लगे कोमा के बीच जो सबसे कमजोर कड़ी है वो है एक लड़की। स्टिंग में भी एक लड़की को गलत दिलासे के जरिए इस्तेमाल किया गया। और मौत के पीछे भी लड़की की लिखा वजह, उसको दी जा रही प्रताड़ना रही। ऐसे में सवाल है कि गलती किसकी ओर से हो रही है। कौन ज्यादा अपेक्षा कर रहा है। काम करवाने वाला या काम करने वाली।

टीवी को जो भी दिखना है, वो उसकी बुनियादी सोच से ही बनता है। अगर टीवी चैनल एक नारी को किसी भी तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं तो निश्चित ही मीडिया में भी काम कर रही महिलाओं की स्थिति उम्दा नहीं होगी। फिल्मी पर्दे पर नंगई और कास्टिंग काउच के रिश्ते को समाज समझता है। टीवी में उसके स्वरूप को वो अब धीरे धीरे करके देख रहा है।

क्या समाज को ऐसी घटनाओं, बंदी और मौत, से कोई फर्क पड़ता है। क्या इससे इस पेशे की गरिमा पर कोई आंच आने वाली है। क्या मर रही टीवी पत्रकारिता को आने वाले समय में नई सांस और फांस के लिए तैयार रहना चाहिए। सवाल कई है लेकिन जवाब देने के लिए कोई आगे नहीं आता दिखता।

खुद की गरिमा से खेलकर टीवी पत्रकारिता ने एक तरह से खुद के खोखलेपन को दर्शाया है। आदर्शी बुनियादी उसूलों से परे होकर वो एक ऐसा कल्पना लोक गढ़ चुका है जहां सोच की सीमितता ही सत्य है।

हमें इसे लेकर गंभीर चिंतन करना चाहिए। क्योंकि खबरों से आप ही नहीं आपका परिवार भी प्रभावित होता है। और ये परिवार एक समाज का हिस्सा है।

सूचक
soochak@gmail.com

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Sunday, September 23, 2007

What is the Broadcasting Bill?




Posted online: Saturday, September 22, 2007 at 0000 hrs IST

While the need for a Broadcasting Bill has been talked about since
1997, it was only in 2006 that the UPA Government with Priya Ranjan
Dasmunsi as the Union Information & Broadcasting Minister brought out
the draft for the Broadcasting Services Regulation Bill. The Bill,
said the I&B Ministry, will regulate the broadcast services with
several private TV channels around now. The draft bill, which calls
for the setting up of a separate Broadcast Regulatory Authority of
India (BRAI), has covered four major areas in its ambit, which would
call for major corporate restructuring by media companies—foreign and
domestic—operating in India. These include content, cross media
ownership, subscriptions and live sports feeds. Anubhuti Vishnoi
explains

• What regulations govern TV services as of now?
Cable Television Networks Regulation Act, 1995 is the basic governing
system for all TV channels related issues. However, the Ministry has
been of the view for years now that the increase in the number of TV
channels requires a special set of laws in keeping with the times and
with provision for a regulatory mechanism.

• What is Content Code?
Along with the draft broadcasting Bill, the Ministry has also
formulated a content code to regulate the programme "quality" being
aired by broadcasters and to "protect the consumers interests",
national interests and right to privacy.

• Why is the broadcasting industry against the Bill and the Content Code?
The big issue is the Government's "intention" to control or regulate
programme content. The industry feels that the Government plans to
infringe on their rights as a free media through the two proposed
regulations and says that "draconian" laws will be applied, especially
against news channels, under the ambit of the Bill if it is allowed to
go through. A stringent Content Code and clauses like "national
interest" and right to privacy of a citizen may spell the death knell
for investigative journalism and sting operations for broadcasters.
The other problem with the Bill is that in an age when citizens are
bombarded with news/views through various media (newspapers, cable and
satellite TV, Internet, radio and mobile phones), it seeks to enforce
outdated concepts of the media and dominance as per broadcasters. The
draft Bill, they point out, says that no broadcasting service provider
can own more than 20 per cent of another broadcasting network service
provider. BRAI is also liable to government control, say broadcasters.

• Status of the proposed Bill and Content Code
While the I&B Ministry planned to take the Bill to Parliament this
monsoon session, vehement opposition from the broadcasters has forced
a re-think. So while the Ministry still maintains that it will
definitely get in a regulation, it is consulting stakeholders. The
ministry Content Code may make way for a "self-regulating content
code" being chalked out by the National Broadcasters' Association
(NBA). The draft bill on which various states are also being consulted
still has the ministry and the broadcasters on opposite ends.

Courtesy:




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Saturday, September 22, 2007

चिट्ठों में मीडिया जगत

बीते हफ्तों में काफी कुछ ऐसा गुजरा है जो आने वाले वक्त में हर किस्म के मीडिया का चेहरा बदल सकता है। ये खुद की गलतियों से सीखने का समय है। अगर एक चैनल को एक महीने के लिए बंद करना सही है तो एक लड़की की मौत से भी कई सच्चाईयां सामने आई हैं। देखना है कि आने वाले समय में कितना सीखता है मीडिया। बहरहाल बीते हफ्तों में कई ब्लागरों ने मीडिया पर काफी कुछ लिखा। कुछ चिट्ठे।
मीडिया से जुड़े लोगों से विन्रम निवेदन

मिडडे पत्रकारों को 4 माह की सजा: देखिए उन्होंने लिखा क्या था?

जरा ध्यान दें

क्या मीडिया में महिला होना गुनाह है

बुद्धू-बक्से की पत्रकारिता और राष्ट्रीय शर्म

सितारों को मिला सही सबक

ब्‍लॉग का फैलता महाजाल

करात का रहस्य : इंडिया टुडे

नहीं

औकात में रहे मीडिया और उनके नुमाइन्‍दे

हल्की होती राजनीतिक रिपोर्टिंग...

हंसी क्यों इतनी मंहगी

हम बातें कम, प्रवचन ज्यादा करते हैं

रेडियो समाचार: अखबार व आम आदमी के प्राण

और खबर फैल गयी

मीडियायुग

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Sunday, September 16, 2007

A mail to DEVELOPMENT

To: chairman@nhai.org, ksramasubban@nhai.org, nirmaljitsingh@nhai.org, avsinha@nhai.org,kandaswamy@nhai.org,didar@nhai.org

CC: info@aajtak.com, info@sahara-one.com,feedback@ndtv.com,mediayug@gmail.com, feedback@in.startv.com,info@saharasamay.com


This is a mail regarding the apathy of Roads! India is a booming economy and tranportation plays a big role in higher results. We always discuss about bad condition of roads and other economic barriers. The mailer sent this mail to all he can judge, to address this problem. Though its seems a very remote problem to some of us, but it persist in all India. And by this mail intiative, we can create a uproar, about the apathy. Media has the responsibilities to play a important role in the development of Democracy. Economy, Society and Political Consciousness is vital to any country.

Mail was sent to all national channels, and some of the groups have regional channels. This is surely a news item for them, in terms of development of economy.But, till date we are never seen a National Highway Story. Hope we can judge the mail as a starter, and take responsibilty to aware the authorities about the big issues of country.


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REMINDER NO1.

Dear Sir,

I am resident of Thane city, Maharashtra state and I regularly commute through National highway no 8. The condition of this road is really pathetic. [From Dahisar to Virar] Accidents take place on a regular basis because of pot holes and horrible condition of the road. I sincerely request you to kindly look into the matter or direct this mail to the concerned. I really feel that if this point is addressed immediately can save many valuable lives.

Regards
Rajesh Kulkarni
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REMINDER NO 2.

Dear Sir, I presume my earlier complaints about bad roads [ national highway no 8] has not been dealt with. I understand that this problem of mine and everybody holds no real importance to you. What are you waiting for? a few more lives to be taken on account of this ruthless roads, a few more accidents to shake you in the real sense. I hope your wait does nor bear any fruits because I am more concerned about the innumerable commuters driving on this road and innumerable people going along the road than the irresponsible attitude of national highway authorities. I hope the photographs I am enclosing herewith will be an eyeopener for you.

regards
Rajesh Kulkarni.
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PHOTOS Media Yug Got from the mailer:



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Sunday, September 09, 2007

एक खबर, एक पत्रकार, और टूटता विश्वास

एक स्टिंग। एक निशाना। एक शिकार। एक पत्रकार। और टीवी चैनलों को एक नसीहत। कि संभले। ये लोकतंत्र है। वे चौथे स्तंभ है। लेकिन उनकी चाहतों में किसी इंसान की जिंदगी पिस जाए तो सवाल बड़ा हो जाता है। जिस पत्रकार ने एक महिला की जिंदगी पर दाग लगाए वो कल थाने में फूट फूट कर रो रहा था। कह रहा था कि रिपोर्टर के रूप में स्थापित होना चाहता था। इसलिए हर बेइमानी को अपना लिया था। गलती उसकी जितनी है, उससे ज्यादा उस माहौल की है, जिसने उसे ये समझाया था कि पत्रकारिता इंसानी अधिकारों के ऊपर है।

स्टिंग पर लोकतंत्र के सारे स्तंभ सवाल खड़े करते रहे है। ये निजता पर हमला है। ये दवाब का हथियार है। ये टीआरपी की चाहत का नतीजा है। हर दिन चैनलों को स्टिंग के घटिया से बढ़िया फुटेज मिलती रहती है। वे कभी कभी बिना नापे तौले इन पर खेलते है। और कर देते है किसी एक जिंदगी को ताउम्र के लिए दागदार।

एक लालच ने उमा खुराना को अरोड़ा की बात मानने पर मजबूर किया। और एक लालच ने एक चैनल और एक नए पत्रकार से वो करवाया, जो केवल नाजायज ही नहीं, समाज के लिए खतरा भी है। एक बड़े चैनल पर चले एक स्टिंग के बाद एक छोटा अधिकारी संवाददाता को फोन करके कहता है। नौकरी से तो केवल सस्पेंड हुआ हूं। लेकिन धन्यवाद। अब सब जानते है कि मैं दलाल हूं। काम मेरे जरिए करवाए जा सकते है। मेरी कमाई बढ़ गई है। ये सच है।

बदनाम होने को भी नाम कमाना माना जा रहा है। समाज की सोच बदल चुकी है। विश्वास और खबर के नाते टूट चुके है। अब खबर के बाद क्या होगा ये खबर करने वाले को पता नहीं है। वो केवल या तो खानापूर्ति में खबरें करता है या उसे होना है नाम वाला। बदनामी की कीमत पर भी।

बीते दिनों सूचना एवं प्रसार मंत्रालय ने आंकड़ो के खेल को समझाने वाली कंपनी को चेताया है। चैनलों पर लगाम कसने की उसकी हसरत को चैनल अपने कर्म से बढ़ावा दे रहे है। वे भाग रहे है एक तमाशे के पीछे। और एक दिन इस तमाशे में मदारी के हाथ बंदरों की तरह नांचेंगे ये चैनल।

खबरों में मसाला दिखाकर वे जनता के साथ हंसने और टांट का रिश्ता बना चुके है। सूचना और मनोरंजन की देहरी पर वे नग्नना औरक अपराध दिखा रहे है। समाज को खुली आंखों से खून और देह बना रहे है।

स्टिंग की मर्यादा को भुला चुके चैनल अब असमंजस में है। एक ने दूसरे की गलती को भुनाना भी चालू कर दिया है। हर कोई नैतिकता के लिए काम कर रहा है। मानो सबने रामायण और महाभारत से कुछ सीख लिया है। चैनलों पर श्लोक तो नहीं कूटनीति साफ दिख रही है।

ये वो आगाज है, जो अंत के नजदीक जाती दिखती है। एक खबर को दूसरा काटे को समाज खबर पर विश्वास कैसे पैदा करेगा। और अगर विश्वास का संकट पैदा होगा तो समाज कहां देखेगा।

समाचार चैनलों को सोचना है। उन्हे देखना है। कि दिखाना क्या है। दबाव किस पर बनाना है। लाभ किसे पहुंचाना है। उसे पत्रकार बनाना है। खबर चलाना है। और ऐसा केवल विश्वास और समझ से हो सकता है। उम्मीद है कि कहीं तो कोई पत्रकारिता के लिए काम कर रहा होगा।

सूचक

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Geetanjali Nagpal and a Comment from life...


Why Geetanjali Nagpal is on News Channels? She abuse herself and destroy her life for some adiiction and passion. She is a perfect a example for blind youth, who are heading and enjoying a life of FUN. Well there are more issues to discuss, specially regarding the media coverage. But in this furore, a person from Germany make a comment. He want back his wife, Gitanjali Nagpal, for his child....

MediaYug got this link....This is all Robert has to say...and full content for India News Channels to play Sunday....

http://www.sheetudeep.com/blog/lifestyle/husband-robert-and-son-arthur-are-waiting-for-geetanjali-nagpal/

Media Yug

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Friday, September 07, 2007

Giving voice to the voiceless


In his Ramon Magsaysay Award acceptance speech in Manila on August 31, P. Sainath, Rural Affairs Editor of The Hindu, spoke of the legacy bequeathed to Indian journalism by freedom fighters who doubled up as journalists, and said he was accepting the award on behalf of the same tradition of giving voice to the voiceless. Mr. Sainath won the award in the Journalism, Literature and CreativeCommunication category for his "passionate commitment as a journalist to restore the rural poor to India's national consciouness." This is the text of the speech:


This is the 60th year of Indian independence. A freedom fought for and won on a vision that placed our humblest citizens at the centre of action and of the future. A struggle that brought the world's then mightiest empire to its knees. A struggle which saw the birth of a new nation, with a populace overwhelmingly illiterate, yet aiming at and committed to building a democracy the world could be proud of. A people who, one freedom fighter predicted, would make the deaf hear and the blind see. They did.


Today, the generation of Indians who took part in that great struggle have mostly died out, though their achievements have not. The few who remain are in their late 80s or 90s. As one of them told me recently: "We fought to expel the colonial ruler, but not only for that. We fought for a just and honourable nation, for a good society."I am now recording the lives of these last stalwarts of a generation I was not part of, but which I so deeply admire. A struggle that preceded my birth, but in which my own values are rooted. In their names, with those principles, and for their selflessness, I accept this great award.


In that great battle for freedom, a tiny press played a mighty role. So vital did it become, that every national leader worth his or her salt, across the political spectrum, also doubled up as a journalist. Small and vulnerable as they were, the journalists of that time also sought to give voice to the voiceless and speak for those who could not. Their rewards were banning, imprisonment, exile and worse. But they bequeathed to Indian journalism a legacy I am proud of and on behalf of which tradition, I accept this award today.


For the vision that generation stood for, the values it embodied, are no longer so secure as they once were. A nation founded on principles of egalitarianism embedded in its Constitution, now witnesses the growth of inequality on a scale not seen since the days of the Colonial Raj. A nation that ranks fourth in the world's list of dollar billionaires, ranks 126th in human development. A crisis in the countryside has seen agriculture — on which close to 60 per cent of the population, or over 600 million people, depend — descend into the doldrums. It has seen rural employment crash. It has driven hundreds of thousands from villages towards towns and cities in search of jobs that are not there. It has pushed millions deeper into debt and has seen, according to the government itself, over 112,000 farmers take their own lives in distress in a decade. This time around, though, the response of a media politically free but chained by profit, has not been anywhere as inspiring. Front pages and prime time are the turf of film stars, fashion shows and the entrenched privilege of the elite. Rural India, where the greatest battles of our freedom were fought, is pretty low down in the media's priority list. There are, as always, exceptions.


The paper I work for, The Hindu, has consistently given space to the chronicling of our greatest agrarian crisis since the eve of the Green Revolution. And across the country are countless journalists who, despite active discouragement from their managements, seek to place people above profit in their reporting. Who try desperately to warn their audiences of what is going on at the bottom end of the spectrum and the dangers to democracy that this involves. On behalf of all of them, all these colleagues of mine, I accept this award.


In nearly 14 years of reporting India's villages full time, I have felt honoured and humbled by the generosity of some of the poorest people in the world. People who constantly bring home to you the Mahatma's great line: `Live simply, that others might simply live.' But a people we today sideline and marginalise in the path of development we now pursue. A people in distress, even despair, who still manage to awe me with their human and humane values. On their behalf too, I accept the Ramon Magsaysay award.