Sunday, January 27, 2008

मैं पढ़ना चाहता हूं...

इस मेल को भेजने वाले की जो दरकार है, वो मायने रखती है। कांवेट स्कूल में अपने बच्चे के दाखिले की दरकार। पढ़ने की इच्छा की दरकार। हमें पता है कि पढ़ाई लिखाई का क्या बुनियादी रोल है। ईमेल भेजने वाले ने अपनी पूरी दास्तान लिखी है। ऐसा कोई भी लिख सकता है। हमें इसकी जांच पड़ताल की जरूरत इस वजह से महसूस नहीं हुई, क्योंकि इनकी भेजी गई अपील को हम केवल जगह दे रहें है। जिसे भी इससे संवेदना हो वो आगे जा सकता है। अपील तकरीबन पचास लोगों को भेजी गई है। जिनमें टीवी समाचार और प्रिंट मीडिया के कई नाम है।

मीडियायुग को भी भेजे गए इस ईमेल में हिंदी शायद भेजने वाले के पुत्र ने ही लिखी है, जो एक स्तरीय पढ़ाई लिखाई की आस रखता है। पिता के लिए अंग्रेजी में किसी ने लिखा लगता है।

लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आज के युग में किसी बच्चे के मौलिक पढ़ाई लिखाई के अधिकार की अगुवाई कौन करेगा। क्या आप। क्या हम। या मीडिया।

मीडियायुग

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Appeal for education help for a minor child admission in good convent school

New Delhi

Mr. Parhalad Kumar Aggarwal, who was born in tribal area of Lang village of Ambika Pur region of Madhya Pradesh now residing in Delhi, has always faced tough times in his life right from his childhood. Firstly his mother has been a mentally retarded person because of whom his educated father also became homeless as he could not manage his business and property and also could not pay enough attention towards his children. Mr. Parhalad Kumar Aggarwal some how grew up facing such hardship in his life and he could not get that education as a child which he deserved like other children but he walked on the way of social work as it has been seen generally that such child either go for some criminal way or become victim of some anti-social habits. But Mr. Parhalad Kumar Aggarwal kept himself miles away from all these things, rather Mr. Parhalad Kumar Aggarwal made an objective as " I have faced the hardship in my life and no body came in front to hold my hand and help me, I will always help at my level-best whoever will come to seek my help". Mr. Parhalad Kumar Aggarwal was also getting success in his this objective but some mean people tried to divert him from his way for their own political benefits. Still Mr. Parhalad Kumar Aggarwal kept going on his way of honesty and helping others steadily. Mr. Parhalad Kumar Aggarwal has also been attacked several times. His wife who is a religious and God-faithing lady always help and supported him in his good deed. In spite of all this, as Mr. Parhalad Kumar Aggarwal is financially weak, is unable to give his children that education which they deserve. He wants to give his children international-level education so that as he has been deprived of quality education in his childhood, his children may not be deprived off. But Mr. Parhalad Kumar Aggarwal's son (Prankur, aging 5 years resident of Delhi, India) is not getting admission to any convent school, the biggest reason of which is his poorness. Will you not help such social worker who always believes in god, who has always faced bad times in his life and has always help those who has come to seek his help? If you will help Mr. Parhalad Kumar Aggarwal to seek admission for his son (Prankur) in a good convent school, then Mr. Aggarwal who though is unable to give you something in return but will definitely pray to God for your happiness.

Please give this appeal a suitable place in your news paper.


Parhalad Kumar Aggarwal
B-58/149, Guru Nanak Pura, Laxmi Nagar, Delhi-110092
Contact No.- 00919911099737
E-mail: parhlad_aggarwal@yahoo.co.in

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मोमबत्ती पकड़े प्राकुंर

देल्ही

मधय पर्देश के अम्बीकापुर के लंग्गाँव के आदीवासी छेत्र मी पैदा हुए परह्लाद कुमार का जीवन बचपन से ही मुसीबतों से घीरा रहा पहले तो ब्चापेन्न से ही माँ मानसिक रोगी थी जीसके वीयोग मे सीक्सित पीता भी बेघर हो गए ।
ओर अपने संपती और कारोबार को संभाल नही सके और न ही अपने ब्चों की देख भाल कर पाए दोनो ब्च्हे किसे तरह दर दर की ठोकर खा कर बडे हो गए । परह्लाद कुमार ने समाज सेवा का रास्ता अपनाया जबकि इसे मामलो मी ज्यदटर बच्चे गुनाह का रास्ता ही अपनाते है । या फिर गलत रस्ते पेर चल पड़ते है । पर परह्लाद इन सब बातो से कोसो दूर है । जबकि परह्लाद कुमार ने उदेसय बनाया है जिस तरह मैं दर दर की ठोकर खाता रहा ओर मेरा कीसी ने हाथ नही थमा पर मैं जरूरत मंद लोगो की मदद करुगा । ओर उस के लिए फाउंडेशन फॉर कमान मन की स्थापना भी की । मज्दुरु को गिर रही इमारत से बचाने मी अपने जन पेर खेल कर निकला जो की न्यूज़ पेपर ओर टीवी चॅनल ने भी देख्या था । रेल मी भीख मग रहे ब्च्हू को गुंडों के चुगल से निकल क्र आश्रम मे दाखिल करवाया । दलीत ब्ची jis का बलात्कर हो गया था जस्टिस दीलाने मे मदद की । लापता ब्च्हू को पता लगाने मी सरकार पेर जोर लगाने मे भोतज्यदा धरना पेर्दार्सन किया । मजदुर लोगो को मजदूरी दिलाने की लडाई लड़ी । पर कुछ लोगो ने अपने राजनीती चमकने के लिए उनके रासते मी उडचन भी डाली । हमले भी करवाए। फीर भी परह्लाद कुमार अपने रस्ते से टस से मस नही हुआ । समाज सेवा मी उसका साथ देने वाले उसके साथी ओर दर्म पत्नी ने इस्वर की रह पेर चलने वाले परह्लाद कुमार का पुरा सहयोग दिया । किन्तु इन सब के बाबजूद परह्लाद कुमार अर्थिक रूप से पेरेसान है । ओर अपने बच्चो को भ शिक्षा नही दे पा रहा है जो देने चाहिऐ । बह चाहता है की उसके बच्चे भी विस्ब्स्त्रीय सीख ले ओर जो शिक्षा की कमी उस मे रही है । उस की ब्चोचो मी न रहे । पर्न्तो परह्लाद के बेटे परंकुर को कान्वेंट श्कूल दाखिला नही मिल रह है । जिस की सब से बडी बजह है उस की गरीबी । कया आप इसे समाज सेवी प्रभु के रस्ते पेर चलने वाले दर दर की ठोकर खा कर भी गरीबो की सेवा करनी वाले परह्लाद की सहायता नही करेगे । यदी आप परह्लाद के बेटे परंकुर को किसी अच्छे स्चूल मी शिक्षा दिलाने मी सहयोग करते है तो परह्लाद कुमार परभू से परथाना करगा की आपका जीवन परभू खुसेयो से भर दे । कुर्प्या इसे अपने समाचार पत्र मी जगह देने की कुर्पा केरे.

parhlad kumar aggarwal
b58/149 guru nanak pura laxmi nagar delhi 110092
phone 00919911099737

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Saturday, January 26, 2008

जय हिंद, जय भारत

जय हिंद, जय भारत
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। जो आज के दिन को समझते है, वे इसे महज छुट्टी के तौर पर नहीं देखते। टीवी के माध्यम से आज का दिन एक तरह का भुला बिसरा गीत सरीखा है। जिन्होने भी आज सुबह इंडिया गेट पर प्रधानमंत्री का अमर जवानों को श्रद्धांजलि और बाद में राजपथ पर राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की अगवाई में सेना और झांकियों की छटा देखी होगी, वे लोकतंत्र की गरिमा को समझने से वाकिफ हो पाएं होंगे। दूरदर्शन की महत्ता शायद आज जैसे दिनों में ज्यादा समझी जा सकती है। सुबह पहले रिनी खन्ना और फिर सेना के कई अधिकारियों की आवाज में देश का गरिमागान भाता है। निजी चैनलों पर केवल लोगो और स्क्रीन पर तिरंगा फहराने की प्रथा से कई गुना आगे जाते हुए दूरदर्शन आज के दिन, लोकतंत्र की गाथा, अमर जवानों का साहस, सेनाओं की सलामी और तरह तरह की जानकारियों को देकर पूरे सजीव प्रसारण को लुभावना और कशिश वाला बनाता है। हमारे देश में राष्ट्रभक्ति से जुड़े गीत भी अब दिनों के लिए बजने लगे है। वो बजते है, तो मन में कुछ सुरसुराहट होती है। अच्छा लगता है।

दूरदर्शन की सजीव प्रस्तुति को सारे समाचार चैनल दिखाकर जिस मानस को संतुष्ट करना अपना कर्तव्य समझते है, उसी को रोजाना देश के हित से अलग बहलाकर वे भले ही भला न कर रहें हो, लेकिन कभी कभी सभी चैनलों पर एक ही दृश्य का चलना एक माला के मोती जैसा अहसास देता है।

संविधान को देश ने आज से ५९ साल पहले अपनाया था। और उसमें अभी तक सौ के करीब बदलाव किए गए। जनता को शायद पंचायती राज से जुड़ा संविधान में बदलाव तो याद होगा। लेकिन बहुत से ऐसे बदलाव जारी है, जो अब पता नहीं चलते। ये जानना जरूरी है और जरूरत भी।

टीवी पर तोपों की सलामी, तिरंगे का फहराना, सेनाओं की कदमताल, सैनिकों का गरजना और आकाश से फूल बरसाते विमानों के नजारे अपने लोकतंत्र में फैले हर रंग की बयां करते है। शायद कंटेंटविहीन कलरबार की तरह। लेकिन, इसके बाद जो भी टीवी पर आता है, वो जनमानस को तभी भाता है जब उसमें लोकतंत्र की गरिमा और सूचना के ताकत का अहसास हो। ये भले ही कोरी कल्पना हो, लेकिन आप तभी तक इंसान है, जब आप अपने मूल्यों, कर्तव्यों और अधिकारों से लैस है।

जय हिंद, जय भारत।




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Thursday, January 24, 2008

समाज सेवा या 'स्‍वयं' सेवा




मीडिया में कभी-कभार ऐसी घटनाएं होती हैं जिन्‍हें दुर्भाग्‍यपुर्ण और हास्‍यास्‍पद एक साथ कहा जा सकता है...हाल ही में दी संडे इंडियन के एक पत्रकार ने एक स्‍टोरी की है जो मशहूर बचपन बचाओ आंदोलन के बारे में है...पता चला है कि इस स्‍टोरी पर संस्‍था के प्रमुख कैलाश सत्‍यार्थी द्वारा उन्‍हें जान से लेकर नौकरी से निकलवाने तक की धमकियां दी जा रही हैं...इतना तक तो ठीक है, लेकिन इससे भी दुर्भाग्‍यपूर्ण यह है कि उसी पत्रिका के कुछ लोग इस पत्रकार समेत उसके संपादक के खिलाफ बाकायदा हरवे-हथियार लेकर खड़े हो गए हैं क्‍योंकि परसों विश्‍वस्‍त सूत्रों के मुताबिक कैलाश सत्‍यार्थी ने हमेशा की तरह अपनी अंटी ढीली करते हुए कुछ सिक्‍के बरसा दिए हैं। हम पहले भी सुनते आए हैं कि किस तरह सत्‍यार्थी अपने दो-चार विश्‍वस्‍त पत्रकार गुर्गों के माध्‍यम से मीडिया को मैनेज करते रहे हैं, लेकिन पहली बार ऐसा उदाहरण सजीव प्रस्‍तुत है। हालांकि, इससे पहले भी दी संडे पोस्‍ट के पत्रकार अजय प्रकाश को एक स्‍टोरी पर उनसे ऐसी ही धमकियां मिल चुकी हैं। आखिर इस स्‍टोरी में ऐसा क्‍या है...पढ़ने पर तो नहीं समझ आता कि वस्‍तुपरकता के मानदंडों पर कहीं भी यह चूक रही हो...क्‍या कैलाश सत्‍यार्थी को इतना भी पचनीय नहीं...खुद ही पढ़ लें.....लेकिन उससे पहले यह बता दें कि जो रिपोर्ट नीचे दी जा रही है वह पत्रकार द्वारा फाइल की गई मूल रिपोर्ट है...इसमें से सत्‍यार्थी द्वारा धमकियां दिए जाने समेत कुछ और तथ्‍य प्रकाशित रिपोर्ट में से हटा दिए गए हैं...

हरेक महान शुरुआत आखिरकार लड़खड़ाने को अभिशप्त होती है. प्रत्येक महान यात्रा कहीं-न-कहीं तो समाप्त होती ही है. -संत ऑगस्‍तीन

भारत के संदर्भ में भी यह बात नई नहीं है, बात आप चाहे जिस भी क्षेत्र की कर लें. यही बात समाज की सेवा के महान उद्देश्य और परोपकार के महान धर्म को ध्यान में रखकर शुरु हुई गैर-सरकारी, सामाजिक या फिर स्वयंसेवी संगठनों के साथ भी लागू होती है. जो विचारक या निर्देशक इनकी शुरुआत करता है. ताजा मामले की बात हम बचपन बचाओ आंदोलन, ग्लोबल मार्च या असोशिएशन फॉर वोलंटरी एक्शन(आवा) से कर सकते हैं. ये तीन नाम इस वजह से क्योंकि इन संस्थाओं का ढांचा ही ऐसा है. सारे एक-दूजे से जुड़े और अलग भी. ऊपर से इस मामले के पेंचोखम इतने कि आम आदमी तो उनको समझने में ही तमाम हो जाए या उसे यह शेर याद आ जाए- जो उलझी थी कभी आदम के हाथों, वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूं. बहरहाल, मामला अभी टटका और ताजा है. इस पूरे मसले में तमाम नामचीन शख्सियतें उलझीं हैं और साथ ही मीडिया भी अपना अमला पसारे है. पूरे फसाद की जड़ में है दिल्ली-हरियाणा सीमा पर स्थित इब्राहिमपुर में मौजूद बालिका मुक्ति आश्रम. कभी हमसफर रहे दो लोग ही अब एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले बैठे हैं. तलवारें तन चुकी हैं, बखिया उधेड़ी जा रही है, आरोप-प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं और दोनों ही खेमे एक-दूजे के चरित्र हनन पर आमादा हैं.
बहरहाल, मामले को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाकर इस पूरे घटनाक्रम का इतिहास जानना होगा. बालश्रम को खत्म करने और बंधुआ मजदूरों को बचाने के पवित्र उद्देश्य को ध्यान में रखकर दो महानुभाव इकट्ठा हुए. ये दोनों ही आज काफी नामचीन हैं-स्वामी अग्निवेश और कैलाश सत्यार्थी. 80 के दशक में शुरु हुआ यह सफर काफी मशहूर हुआ और सफल भी. इसका नाम फिलहाल बचपन बचाओ आंदोलन है, पर इसकी शुरुआत बंधुआ मुक्ति मोर्चा ने की थी और उस वक्त संस्था के तौर पर साउथ एशियन कोलिशन अगेंस्ट चाइल्ड सर्विटयूड (साक्स) का निर्माण किया गया. इसमें पेंच केवल एक आया, जब 93-94 में स्वामी अग्निवेश इस आंदोलन से अलग हो गए.
बहरहाल स्वामी अग्निवेश से इस मसले पर जब पड़ताल की गई, तो उन्होंने कुछ ऐसा बयान दिया, ''देखिए, असल में बंधुआ मुक्ति मोर्चा(बीएमएम) ने ही इस पूरे आंदोलन की शुरुआत की थी. आप जो आश्रम देखकर आ रहे हैं, वह भी असल में बीएमएम का ही बनाया हुआ था. बाद में मुझे महसूस हुआ कि कैलाश जी उसका और भी कोई इस्तेमाल करना चाह रहे हैं. उसी समय हम दोनों में कुछ बातचीत हुई और मैंने अलग होने का फैसला कर लिया. '' खैर, अब आते हैं तात्कालिक मसले पर.
फिलहाल विवाद की जड़ में है बालिका मुक्ति आश्रम और कभी कैलाश सत्यार्थी की करीबी सहयोगी और इसकी संचालिका रहीं सुमन ही खम ठोंककर मैदान में आ खड़ी हुई हैं. लाखों रुपए मूल्य की यह संपत्ति किसी व्यक्ति ने संस्था को दी थी और शायद यही वजह है-तलवारें खिंचने की. मामला तब सुर्खियों में आया, जब पिछले महीने मीडिया में यहां की कुछ लड़कियों के यौन-शोषण की खबरें आईं. वे लड़कियां उत्तर प्रदेश के सोनभद्र से लाई गईं थीं और आश्रम में रह रही थीं. बच्चियों ने मसाज करवाने की बात भी स्वीकारी. साथ ही सुमन और संगीता मिंज(फिलहाल आश्रम की केयरटेकर) पर तो दलाली के भी आरोप लगे. बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) के राष्ट्रीय महासचिव राकेश सेंगर इसे कुछ ऐसे बयान करते हैं, ''देखिए, हम व्यक्तिगत आरोप नहीं लगाना चाहते, लेकिन आप रांची जाकर पता करें तो इनके खिलाफ कई मामले दर्ज पाएंगे. उन पर तो एफसीआरए के तहत भी आंतरिक कार्रवाई चल रही है. उन्होंने 2004 में अपनी एक अलग संस्था द चाइल्ड ट्रस्ट बनाई और संस्था की संपत्ति को निजी तौर पर इस्तेमाल किया. अपने लिए गाड़ी खरीदी और कई सारी वित्तीय अनियमितताएं की. हमारे पास सारे जरूरी कागजात हैं और आप उनको देख सकते हैं. ''
हालांकि सुमन का इस मसले पर कुछ और ही कहना है. वह कहती हैं, ''ये सारे आरोप निराधार और बेबुनियाद हैं. मैं किसी भी जांच के लिए तैयार हूं. दरअसल यह सारा कुछ आश्रम पर कब्जा करने को लेकर है. उन्होंने तो मेरे कमरे को भी हथिया लिया और मेरे सामान को उठा लिया. आप खुद जाकर देख सकते हैं कि आश्रम में सुरक्षा के लिए हमें पुलिस से गुहार करनी पड़ी है. कैलाश जी ने संस्था में अपनी बीवी और बेटे को स्थापित कर यह सारा झमेला खड़ा किया है. अगर मैं इतनी ही बुरी थी तो 22 सालों तक ये चुप क्यों रहे और मुझे बर्दाश्त क्यों करते रहे?''
खैर, अब जरा पीछे की ओर लौट कर इस पूरे विवाद की जड़ देखें. साक्स से बीबीए की यात्रा में कई पड़ाव आए. संस्था जैसे-जैसे बढ़ती गई, विवाद भी गहराते गए. आखिरकार 2004 में यह तय किया गया कि आवा एक मातृसंस्था रह जाएगी और इसके बैनर तले सेव द चाइल्डहुड फाउंडेशन, बाल आश्रम ट्रस्ट, ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर और द चाइल्ड ट्रस्ट बनाए जाएंगे. यही से पूरा बवाल शुरु हुआ. सुमन का कहना है, ''आप खुद देख सकते हैं कि कैलाश जी ने किस तरह अपने प्रभाव का दुरुपयोग किया. अपनी पत्नी को तो उन्होंने सेव द चाइल्डहुड...का अध्यक्ष बना दिया, तो बेटे को बाल आश्रम...का. ग्लोबल मार्च...के तो वह खुद ही मुख्तार हैं. इसके अलावा उनकी पत्नी के ट्रस्ट में ही उन्होंने सारे संसाधनों का रुख कर दिया. यही सब विवाद की जड़ में है. ''
हालांकि इस संवाददाता ने जब बीबीए के वर्तमान अध्यक्ष रमेश गुप्ता से बात की, तो उनका कुछ और ही कहना था. वह बताते हैं, ''हमने तो सुमन को हमेशा ही सम्मान दिया है. लेकिन जब उसकी हरकतें नाकाबिले-बर्दाश्त हो गई तो हमें मामले को उजागर करना ही पड़ा. हमने तो उसे एक खुला पत्र भी लिखा है, उससे आप सारी बातें जान सकते हैं. उसने एक भी निर्णय का सम्मान नहीं किया. कभी भी वित्तीय पारदर्शिता नहीं दिखाई और आवा के संसाधनों का दुरुपयोग कर अपनी खुद की संस्था को पालती-पोसती रही. खुद को तो उसने जैहादी के तौर पर प्रोजेक्ट कर दिया, लेकिन बाकी साथियों का नाम भी नहीं लिया. यह सचमुच अफसोसनाक है. '' राकेश सेंगर तो उनसे भी एक कदम आगे बढ़कर आरोप लगाते हैं कि जबरिया निकालने वगैरह की बात बिल्कुल बेबुनियाद है. बाल आश्रम की लीज तो वैसे भी 31 दिसंबर को खत्म हो रही थी. फिर इस्तीफा भी उनसे जबरन नहीं लिया गया. जब उन्होंने संस्था छोड़ दी तो फिर वैसे ही आश्रम में उनके बने रहने की कोई तुक नहीं थी. जहां तक उनके कमरे से कुछ लेने की बात है, तो यह तो बिल्कुल अनर्गल प्रलाप है. आप खुद ही बताएं किसी स्वयंसेवी संस्था में काम करनेवाली महिला के पास 2 किलो सोना कहां से आ गया?
हालांकि, कैलाश सत्यार्थी इस पूरे विवाद से पल्ला झाड़ लेते हैं. वह कहते हैं, ''भई, मेरा तो न बाल आश्रम और न ही बालिका आश्रम से कोई लेना-देना है. वहां से तो मैं डेढ़ साल पहले ही अलग हो गया था. आप मुझसे ग्लोबल मार्च के बारे में पूछें तो कुछ बता सकता हूं.'' हालांकि अपने परिवार के बारे में पूछने पर वह बिफर पड़े. इस संवाददाता को धमकी भरे लहजे में कैलाश जी ने कहा, ''अगर मेरा बेटा या पत्नी किसी संस्था का नेतृत्व करने लायक हैं तो इसमें गलत क्या है? वैसे भी वे दूसरे संस्थानों से जुड़े हैं. आप बेबुनियाद बातें न करें, वरना आपका करियर भी खतरे में पड़ सकता है. ''
हालांकि इसके ठीक उलट राकेश सेंगर का कहना है कि अगर कैलाश जी के बेटे की बात साबित हो जाए तो वह सामाजिक जीवन ही छोड़ देंगे. बहरहाल, आरोपों की इस झड़ी में नुकसान सबसे ज्यादा तो उन बच्चों का हो रहा है, जिनका जीवन सुधारने के मकसद से इस आंदोलन की शुरुआत हुई है. साथ ही कुछ सवाल ऐसे हैं, जिनके जवाब खोजने होंगे. मसलन, वे लड़कियां अब कहां हैं, जिन्होंने मीडिया के सामने आकर मसाज की बात कबूल की थी? फिर मीडिया पर भी कुछ उंगलियां उठेंगी. जैसे, क्या हरेक रिपोर्टर ने इब्राहिमपुर जाकर पड़ताल की थी? जब यह संवाददाता बालिका आश्रम में पहुंचा, तो नजारा कुछ और ही था. वहां बाकायदा सारे काम सामान्य तौर पर ही हो रहे थे. फिलहाल वहां 25 बच्चियां हैं. जिसमें से चार वयस्क हैं. वहां सात-आठ बच्चियों के अभिभावक भी थे. जब हमने बच्चियों से बात की तो उन्होंने सारी बातों से इंकार किया. उनके अभिभावकों ने भी सुर में सुर मिलाते हुए आश्रम के काम की तारीफ ही की. जब उनसे पूछा गया कि क्या उन पर किसी तरह का दबाव है, तो उन्होंने नकारात्मक जवाब दिया. वहां की एक कर्मचारी बबली ने बताया, ''मीडिया ने एकतरफा रपटें छापी और दिखाई है. हमारा पक्ष किसी ने जानने की भी कोशिश नहीं की. आप खुद बताएं अगर यहां मसाज जैसे काम होते रहे हैं, तो क्या दूसरे लोग भी अपराधी नहीं सिध्द होते? फिर महिला आयोग ने जिन बच्चियों को निर्मल छाया भेजा, आप खुद उनके कागजात देख सकते हैं. उनके साथ उनके अभिभावकों ने भी अपनी सहमति से जाने की बात लिख कर दी है. यहां आप खुद आए, तो हालात आपके सामने हैं.''
बहरहाल, जब इस संवाददाता ने बाल आश्रम जाकर चीजें देखने का फैसला किया, तो उसे अंदर घुसने की अनुमति नहीं दी गई. सवाल कई हैं, जवाब अधूरे या मुकम्मल नहीं हैं. वैसे, यह कहानी किसी एक गैर-सरकारी संगठन की नहीं है. बटरफ्लाई नाम की एक संस्था में भी एक कर्मचारी के यौन-शोषण का मामला सामने आया है. साथ ही वहां अचानक कई कर्मचारियों की बर्खास्तगी भी विवाद का विषय है. इसी तरह ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क नाम की संस्था में एक महिला कर्मी के यौन-शोषण का मामला सामने आया है. इसी तरह जंगपुरा में (जो दिल्ली की महंगी जगहों में से एक है) भी करोड़ों रुपए की संपत्ति को लेकर एक संस्था में खींचतान जारी है. यहां विलियम केरी स्टडी एंड रिसर्च सेंटर और क्रिश्चियन इंस्टीटयूट फॉर स्टडी एंड रिलीजन के बीच तलवारें खिंची हैं.
हालांकि दोनों संस्थाएं मूल रूप से एक ही हैं और एक ही व्यक्ति इनका जनक भी था. मामला यहां भी संपत्ति का ही है.बहरहाल, तालाब की सारी मछलियां गंदी ही नहीं, पर ऐसे उदाहरण इस क्षेत्र के महान उद्देश्य पर सवालिया निशान तो खड़ा कर ही देते हैं. यक्ष प्रश्न तो बचा ही रहता है, क्या ये स्वयंसेवी संगठन अपने मूल की ओर वापस लौटेंगे? क्या लोगों के कल्याण हेतु बनी संस्थाएं उसी काम में लगेंगी? या फिर, यह सिरफुटव्वल जारी रहेगी? (प्रकाशित स्‍टोरी के लिए देखें दी संडे इंडियन का 21-27 जनवरी का अंक हिंदी में)

Your Faith is on Sale...

The most serious word of Journalism is Credibilty. Media is all about credibility. But lets open your eyes. "The faith you have in your Newspaper, News Channel is saleable". Yes. You know about suurogate ad's, personal endorsements an pro market content. But the media groups are now come with a new word, private treaties. This is not a word, it is as disastrous as yellow journalism is in past years.

Few print media journalist penned their words against the syndrome. Media as whole is all about the space an objective content. If one group has some intake, or the media group has some stake in companies and this will lead to a "editorial adjustment", then you can clearly unerstand that what news items are on the agenda of the group.

The issue is big an fatal to the society, in terms of objective information. Hope you all unerstand the situation an play an active role to protest in all way, you can. By this you can get a media that works for people.

These are the weblinks, by which you can know & judge the issue:

People’s media?

NEWS FOR SALE

Scrutiny of private treaties builds up

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Monday, January 21, 2008

कहां हैं राजनैतिक खबरें?



ये है वो सचाई, जिससे आप रोज रूबरू होते है। रोजाना आपको परोसा जा रहा है वो, जिससे न तो आपका जीवन बन सकता है, न आपकी जानकारी बढ़ सकती है। टीवी समाचार से राजनीतिक खबरें कम हो रही है। इसे सामान्य तौर पर समझना मुश्किल है। आम आदमी, जो रोजाना की दिक्कतों से जूझ रहा है, देखना चाहता है मनोरंजन वाली खबरें। ऐसा टीवी कंटेंट गढ़ने वाले मानते है। तो उन्होने पेश की हर वो पेशकश जिसमें दिमाग कम लगें, और समय ज्यादा। यानि जितना देर आप उनके चैनल पर बने रहेंगे, उतना मुनाफा वे कमाते रहेंगे। लेकिन इससे जो प्रभावित हो रहा है, वो है आपका सामाजिक और राजनैतिक जीवन और उससे जुड़े अधिकार।

यदि आपको पता ही न हो कि कौन सी नीतियां देश के नेता बना रहे है, तो कैसे आप उन्हे अपना सकते है। एक देश में जीने के लिए चाहिए होते है कुछ मूलभूत अधिकार और साथ में देशकाल की जागरूकता। मीडियायुग का पैनल पहले भी - शून्य में जीते हम आप - के जरिए ये चिंता जाहिर कर चुका है। लेकिन इसे लेकर किसी तरह की बहस या चर्चा न होना हमारे लिए चिंताजनक है।

जो दिख रहा है, उसे देखता रहना मजबूरी और जरूरत भले हो, लेकिन उसका एक आदत बन जाना खतरनाक है। आप हल्का, ऊलजुलूल, गैर जरूरी देखते हुए अपने दिमाग को पोला करने की ओर बढ़ रहे है। देश और समाज की किसी भी बड़ी पहल या बदलाव से आप बहुत नाता नहीं रख रहे, तो क्या आप मानकर चल रहे है कि टीवी की दुनिया में जो दिख रहा है, वहीं हकीकत है। टीवी का ये परिदृश्य आपको एक खतरनाक ट्रेजेडी एंड की ओर ले जा रहा है। जाग जाइए। और टीवी से जुड़े अपने अधिकारों की चिंता में आवाज लगाईए। देश के सभी बड़े समाचार चैनल एक धारा में बह रहे हैं। भले ही एक आइने से देखने पर आपको लगता हो कि इस फलां चैनल पर समाचार दिखाएं जाते है, लेकिन क्रिकेट की एक जीत सारी खबरों को दरकिनार कर देती है, और गंभीर और अगंभीर पत्रकारिता में अंतर खत्म हो जाता है। इसलिए दर्शक के तौर पर अपने अधिकार को समझिए। हर चैनल के लिए आप माई-बाप है। आपकी एक आवाज, लेख, ईमेल, फोन उन्हे पच्चीस बार सोचने पर मजबूर कर सकता है। मीडियायुग को आपसे केवल इतनी उम्मीद है। हम चाहते है कि आपके घरों में दिखने वाली खबर आपको एक ताकत और सूचना से लैस करे।

खैर। सीएमएस मीडियालैब के इस तीन साल के शोध के नतीजे आपकी आंखें खोलने को पर्याप्त होंगे। देश के कुछ प्रमुख मीडिया समूहों ने इन्हे अपने प्रकाशनों में जगह दी है।

3 'Cs' lord over politics on news channels

Crime, Bollywood steal show from politics on Hindi news channels

Trivia overtakes political news

Non-stop Trivia Eclipses Politics and Social Sector in Indian TV News



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Sunday, January 20, 2008

खबर नहीं है टीवी पर

मीडिया को 'खबरों' की कितनी फिक्र है ये सभी को पता है। देश में कई कोनों पर ऐसी तमाम खबरें घटती है, जिनका असर समझना आज मुश्किल है। कहीं कोई जमीन को लेकर सरकार से लड़ रहा है, तो कहीं भुखमरी से हो रही है आज भी मौतें। लेकिन टीवी पर दिख रही है नाच-गाने और जानवरों की दौड़भाग के तमाम नजारे।

मीडियायुग को एक एनजीओ ने भेजी कुछ तस्वीरें। ये दिल्ली में 'कश्मीर रिलीफ कैम्प' की ताजा तस्वीरें है। बात ये नहीं है कि बदहाली की ये तस्वीर यहां भर है। लेकिन ऐसी तमाम समस्याओं पर टीवी की बेरूखी आपको कैसे समाज की ओर ले जा रही है।

आपने शायद एक भी दिन किसी विस्थापित कैम्प में न गुजारे हो। लेकिन समाचार माध्यम ही आपको उन हकीकतों से रूबरू कराते है, जो आपने न झेली हो। उम्मीद है इन तस्वीरों को देखने के बाद आप टीवी की उदासीनता को और गहरे से समझ पाएंगे। और आने वाले समय से अपने आस पास की समस्याओं के प्रति थोड़ा जागरूक होंगे। आपको ही उठानी होगी एक आवाज। ज्यादा नहीं एक मेल या पत्र किसी भी चैनल को उसके मूल कर्तव्य को थोड़ा याद दिलाने में जरूर कारगर होगा।










"मीडियायुग"

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Sunday, January 13, 2008

हल्ला बोल


आम आदमी से खास बनना और फिर आम हो जाना। किसी और की लड़ाई को लड़कर खुद को पाने की कोशिश। “रिपोर्ट क्यों नहीं लिखाई। ये सवाल मीडिया पूछता है एक किरदार से। वो किरदार पूछता है किसके खिलाफ लिखाई जाए रिपोर्ट। वे जो मार रहे थे। ये वे जो देख रहे थे। या वो मीडिया जो किसी को सरेआम पिटते देख रही थी, फिल्म बना रही थी”। हल्ला बोल के मर्म को समझना आसान है। अपनाना कठिन। एक सरेआम हत्या से जुड़ी इस कहानी में कई मोड़ है। जीत कर हार है। हार कर जीत। कहने में तो एक आम आदमी के कुछ उसूल तोड़ कर खास बनने की कोशिश है, तो उसूलों के दायरे में रहकर सबका दर्द अपनाने वाले एक और शख्स की समाज की हर बुराई से लड़ाई है। दो धाराएं है। लेकिन एक अपनी मजबूती के साथ है, तो दूसरा हर कमजोरी के बाद मजबूत होता है।

हल्ला बोल में नायक कहता है “मैं डर गया था”। वो अपने परिवार के आंसू नहीं झेल पाता। वो कुबूलता है कि वो डर गया था। और वहीं है एक ऐसा शख्स जो डर को पीछे छोड़ चुका है। वो समाज को डरने से बचाने की आग लेकर चलता है। फिल्म का कथानक हकीकत के आसपास है। मीडिया के और भी करीब। जैसिका लाल की हत्या के बाद उसके परिवार और बहन की कोशिशों और मीडिया के जारी रहने से एक आवाज को बराबर सुना गया। हल्ला बोल। लेकिन। अभी तक किसी किरदार ने समाज की बुराईयों के खिलाफ हल्ला नहीं बोला है।

हल्ला बोल में नायक और खलनायक के बीच केवल एक बात का फासला है। सच का। एक सच को छोड़ने के बाद पर्दे का नायक बनता है, और सच के साथ चलने के बाद वो खुद की नजर में हीरो। लेकिन इंसानी कमजोरी को साफ करती इस फिल्म के फलसफे में पंकज कपूर की भूमिका एक आम किरदार से ज्यादा की है। सच की ताकत। देखने में वो आम है, लेकिन अपनी क्षमता को जानने के बाद वो आवाम की ताकत जैसा है।

फिल्म में कितना सच है, कितना बनावटी ये, फिल्म के अखबारी समीक्षक जाने। और क्या जाने। सबने इसे औसत फिल्म आंका। “ओम शांति ओम धांसू फिल्म थी”। समाज और इंसानी कमजोरी और ताकत को दिखाने वाली औसत फिल्म बताया जा है हल्ला बोल को। ये फिल्मिया समीक्षक है, जो समाज के साथ चलने वाले सिनेमा के पहरेदार है।

खैर। एक अच्छी फिल्म को देखने का लुत्फ लेना हो तो, देखिएगा। इस फिल्म में सारे तत्व है, जो फिल्मी आधार के है। लेकिन फिल्म में इंसानी हकीकतों और कथानक को बुनने में जो मेहनत की गई है, वो काबिलेतारीफ है। कम से कम बीते सालों की चर्चित फिल्मों की तरह इसे किसी तरह का अव्यवहारिक अंत या अनैतिक अंत को नहीं दिखाया गया है।

सूचक
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Thursday, January 03, 2008

A Journey to Social Responsibility.

Happy New Year 2008. 'MediaYug' got this article to start its dedication to show the path of social responsibility in media content. We always think about a media who, show interest in news. Though the definition of "man bites dog" is totally narrated in presentaion these days. But the erosion of values and change of ethics damage the intellectual development and the moral of society. So lets start our journey to good from the present status.....

Indian Media: Growing Absence of News
by Venkata P S Vemuri



DO Indians really want a free media? Do they see media as the conscience keeper of the country’s democracy? If we journalists think we know the answers, we better stop and think.

A recent BBC World Service poll on press freedom says the world opinion is divided on the issue. When it comes to India, the poll results are baffling. Fifty-six per cent of the respondents in 14 countries think freedom of the press is “very important to ensure a free society.” Forty per cent (mostly from India) believe that social harmony and peace are more highly valued “even if it means controlling what is reported for the greater good.”

In India, 72 per cent of the respondents say the press is free (the universal percentage is 56). However, only 41 per cent back press freedom, while social harmony is a higher objective for 48 per cent. Sixty-four per cent feel news is reported accurately in the private media; 57 per cent insist that media owners’ views get reflected in the news reported; 55 per cent want to have a say in what gets reported as news.

This means nearly half the Indians surveyed in the poll agree that press in India is free and that the private media reportage is largely accurate. In the same breath they say that media owners influence news and that the people should also have a say on what is news. Then comes the flip. This nearly-half of the surveyed Indians also say social harmony figures higher as a priority than a free press and it is fine to regulate the press if it ensures the harmony.

What to make of thAis? Is there a lurking feeling of disenchantment with the media? Our media has its own share of sting exposes and aspirational stories, but if it is popular, it is largely so because of the emphasis on stories related to crime, cinema and cricket. Some of us say traditional journalism practiced is dead; that we have lost our sting; that we no longer make corrupt or ineffective governments quiver; that we no longer stand up for the poor; that we have turned into infotainment caterers from news producers. Then we inflict ourselves with the logic: If the people are not interested in serious stuff, we cannot be, too, if we are to survive in the business. That, in sum, is where our so-called century-old, passionate history of the Indian free press is perched today.

Leaving aside for a while the debate on how new values and story selection criteria have changed over the years, the point to ponder, with reference to the BBC survey on media and democracy, is: The Indian media today is friendless. Has its friendship with India’s economically powerful and politically dominant class ended? It was this friendship, which shaped the media’s nationalistic role during the freedom struggle. The friendship influenced the media’s developmental role in the nation-building years. The friendship turned sour for a while as the media searched for an alternate friend among the impoverished during the Emergency years and the period of social activism. The friendship regained in the initial years of globalisation.

Today, when India is capitalist by choice and democratic by compulsion, the media’s friend no longer needs it. This friend, the politician-investor-industrialist-advertiser, has a corporatorised self with globalised morality. This entity caters to its clientele, the rich and the upper middle class directly through official policies or the market, without help from the media. This friendlessness currently shapes the media’s role as a peddler of infotainment. In western academic terms, this friendship is analysed with reference to Gramsciian thoughts on hegemony and Habermas’ definition of public sphere. In the West, the debate on free media and democracy is credited with keeping public service broadcasting alive enough to contrast with private media journalism. The Glasgow School of Thought in the UK or the generation of critics that Herman and Chomsky spawned, thanks to their ‘propaganda model’ to analyse media, have kept the debate alive not just within academic circles but in the public area as well. If they have not been able to instill a sense of self-correction in the media, they have not been completely ignored, either.

In India, the private media experiment, in broadcast journalism in particular, was at the expense of public service broadcasting. The boredom with Doordarshan was so extreme and the desire for the private world of news and entertainment so great that the democratic and/or civic aspect of the change was overlooked. It was, therefore, a no-holds-barred entry of the private media into the country. In retrospect, it was the entertaining effect of live, hard, news images that attracted the viewers to private news television, if their sudden, current, shift to entertaining news needs a sort of an explanation.

In the West, the transition from print to audio-visual journalism was an elaborate affair, just as organised as the latter’s growth and consolidation was. The media thus had sufficient time not only to experiment with news production and presentation, but also to implement corrective measures (forcibly or otherwise). In India, just as the overnight shift to capitalism caught the economy unawares, the shift from single-channel broadcasting to multi-channel, digitised and live broadcasting was too dramatic, leaving neither the viewer nor the producer with the time to introspect upon the change. A decade or so later, the Indian media is still trying to decide on what is news: the partially robed Mallika Sherawat or the forcibly disrobed Assamese tribal, Chameli?

The absence of a strong public service broadcaster in India and the use-and-throw attitude of the prosperous classes towards the media partly explain the dominant, private media’s lack of faith in social endeavours. As citizens and journalists, we Indians are still nowhere near where it is possible for the people to look up to the media for carrying on informed public discourse. Rather, the evidence is mounting that the private (commercial) media is least interested in engaging in civic discourse or to serve the public good. In this relationship, the citizen is faithless to the media. Is not the reverse equally true?

Courtesy:




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