Monday, May 26, 2008

परिवार पर टीवी का वार

आरूषि की मौत का सवाल किससे है। क्या उस बाप से जिसके ऊपर उसकी जान लेने का आरोप है। या उस मां से जिसकी खामोश मौजूदगी में ये सब हुआ। या उस समाज से जिसके नक्शेकदम को एक पन्द्रह साल की बच्ची एक नाजायज जाल में फंसी थी। वो बहकी थी, या बहकाई गई थी, या वो पिस रही थी किसी जंजाल में। ये कौन तय करेगा। टीवी को इस बात में गहरी रूचि थी कि आरूषि की मौत की वजह क्या थी। सैकड़ों घंटों की नामुराद खबरिया पड़ताल के बाद सेक्स, क्राइम और सस्पेंस को पेश करने में टीवी को मजा आ रहा था। जबकि टीवी देख रहे किसी परिवार में एक बेटी का विश्वास अपने पिता से डोल रहा था। किसी भी पत्नी को शक हो रहा था कि कहीं उसका पति तो किसी नाजायज संबंध में गुम तो नहीं हो रहा है।

ये बात टीवी नहीं समझता या बेहतर समझता है। एक अंग्रेजी अखबार ने लिखा कि अभिभावक अपने बच्चों को नहीं बता पा रहें है कि आरूषि को उसके पिता ने क्यों मारा। और जो बच्चे ये बात नहीं पूछ रहे थे, वे सब जानने समझने लगे है। तो क्या परिवार में खुली बहसें होने लगी है। क्या अभिभावक बच्चों के साथ ज्यादा खुल गए है। वे बताने लगे है कि पन्द्रह साल की बच्ची के लिए जो कहा जा रहा है, वो सच हो सकता है।

पुलिस के बयान भी बड़े ही भयानक तरीके से समाज की बुनियाद को तार तार कर रहे थे। वो बता रही थी कि डाक्टर राजेश तलवार के नाजायज संबंध किस महिला के साथ थे। वे बता रहे थे कि कैसे ये बात उनका नौकर हेमराज जानता था। वे बता रहे थे कि कैसे नौकर आरूषि के नजदीक ( क्षमा करें, इस शब्द के अर्थ केवल व्यस्क ही समझ सकते है) आ गया था। और किस तरह एक बाप ने पहले नौकर फिर बेटी को बेरहमी से मौत के घाट उतारा। पुलिस की ऐसी बेबाक बयानबाजी सुन रहे थे भारत के करोड़ों अव्यस्क दर्शक।

सेक्स शब्द के जो मायने टीवी ने गढ़े है, उनके दायरों में कईल बुनियादी रिश्तों पर आंच आने लगी है। संदेह और शक की बेदी पर अब हर रिश्ता नजर आने लगा है। आए दिन होने वाली घटनाओं में केवल एक एंगल खोजना अब टीवी की बीमारी हो चली है। क्या इसी लिए हमने इन क्राइम शो को देखना शुरू किया था। क्या ये समाज में अपराध को घटा रहे है।

स्टूडियो में बेधड़क लाइव कार्यक्रमों में आकर अपनी गिरफ्तारी देने और अबोध बच्चियों के साथ दुष्कर्म करने वालों से लेकर नौकरों के हाथों वृद्धों के मरने की घटनाओं से समाज की सोच का साफ पता चल रहा है। इसे लेकर कोई हायतौबा नहीं मचती है। पुलिस को निशाना बना बना कर मीडिया घटना के प्रति कई पक्षों को लापरवाही से देखता है। कानून और क्रियांवयन के स्तर पर उसकी खबरों में घटनाएं तो होती है, लेकिन जागरूकता के लिए कोई अभियान जैसा नहीं होता। किसी के जान की कीमत को केवल जांच, वजह और जुर्म बनाकर दिखाते दिखाते टीवी ने दर्शक को बेहद असंवेदनशीस बना दिया है। अब अपने की मौत पर गम से पहले आपको टीवी पर उसकी व्याख्या से आपका मन व्यथित होता है।

सामाजिक संवेदना के व्यापक नुकसान हमें अपने परिवार, संबंधों और विश्वासों में दिखने लगा है। कभी एक मोहल्ले में रहने वाला भारतीय समाज आज अपार्टमेंट में बसने लगा है, एक घर का दुखड़ें पर अब छींटाकशी और शर्म की बुनियाद के बाहर। लेकिन इससे मानव त्रासदी के निशान छुपते नहीं। जब बगल के घर में तबाही मचती है, तो आप टीवी को देखकर सहम जरूर जाते हैं। हमें इंतजार है कि एक दिन आप जागरूक होंगे और समाज के लिए सामाजिकता को अपनाए रखेंगे। पड़ोसी के जीवन पर भी विवेकपूर्ण आपत्ति जताएंगे। और मोहल्ले के बच्चे को सही राह दिखाएंगे। तबतक हमारी कामना है कि टीवी पर शक और सुबहे ही जगह विश्वास और जागरूकता की झलकियां ज्यादा से ज्यादा परोसी जाएंगी।

सूचक
soochak@gmail.com

Send your write-ups on any media on "mediayug@gmail.com"
For Advertise Email us: mediayug@gmail.com

No comments: