Wednesday, May 20, 2009

फैसला हो चुका है

लोकसभा के चुनावों की हर नब्ज को टटोलने वाले समाचार चैनलों को हमेशा अप्रत्याशित खबरों की भूख बनी रहती है। लेकिन वो अपने चुनावी सर्वेक्षणों को हमेशा प्रामाणिक मानने की बीमारी से ग्रसित रहते हैं। इस बात पर चर्चा होती रही है कि क्या जनसंचार माध्यम चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। सरकारी अमलीजामा ये मानता रहा है, तभी तो चुनाव आयोग मतदान के दो दिन पहले और बाद सर्वेक्षणों को रोकने का आदेश दे चुका था। फिर भी खबरों के चैनल दो दिन पहले ही अपना ज्ञान परोसते रहे। क्या आपको याद है हर चैनल की कहीं गई बातें, जो ये बता रहे थे कि चौथा मोर्चा और तीसरा मोर्चा ही सरकार बनवाएगा। दोनों बड़े गठबंधन 272 के आंकड़े के लिए हाथ फैलाएंगे। और कोई पूर्ण बहुमत नहीं आएगा। कहां गए ये चैनल जो जनता को अपने मायाजल से भ्रमित करके लोकतंत्र की ताकत को कम आंकने का दुस्साहस करते रहे। क्या इन्हे जनता के स्वविवेक और फैसले को अधूरा ठहराने पर क्षमा नहीं मांगनी चाहिए। क्या ये कहीं से भी वोट की ताकत और जनता के फैसले का सम्मान करते नजर आते हैं। और इसके बाद भी ये अपने सहयोगी समाचार माध्यमों में अपने आप को नंबर वन मानते हैं।

कोई केवल टीवी की तकनीकी को तामझाम के साथ पेश करके खुश है, तो कोई हर शाम नेताओं को स्टूडियो में बहस कराकर लोकतंत्र को समझाने की कोशिश में लगा रहा। कहीं पर पल पल की खबर को पेश करना ही इतिश्री माना गया। तो कही जादुई मशीन का हौवा दिखाया गया। क्या जनता निरी बेवकूफ है।

समझने वालों को ये कैसे भूल जाता है कि अगर एक बार जनता बिजली, सड़क और पानी के मुद्दे पर मतदान कर सकती है, तो वो किसी सांप्रदायिक टिप्पणी, नेताओं के कमजोर लांछन, रोडरोलर चलाने जैसा बयान, व्यक्तिगत छींटाकशी की बातों को गौर करेगी। पर टीवी चैनलों ने हर दिन वरुण के बयान, लालू के जवाब, आडवाणी की कमजोर बातें, अमर-आजम-मुलायम की उठापटक, फिल्मी सितारों का घटिया प्रचार, राहुल को युवराज, माया-ममता-जयललिता को किंगमेकर आदि चीजों को जमकर परोसा।

टीवी चैनलों के स्वयंभू संपादकों को लगता है कि जमाना उनके हिसाब से चलता है। उन्हे इसका आभास नहीं कि टीवी चैनल को दफ्तर के बाहर बैठा चायवाला ज्यादा राजनैतिक बहस करता है। उसे समाज, राजनीति और अर्थ की समझ वास्तविकता से आती है, लाखों की तनख्वाह पाकर सारी सुख सुविधाओं में रहकर आप लोकतंत्र की परिभाषा को आम आदमी को समझाएं, तो ये हजम नहीं होता।

ये देश विकल्पों पर नहीं, सामने मौजूद चुनौतियों पर फैसला लेना जाता है। और आप माने या न माने इसने एक फैसला तो ले लिया है, खबरिया टीवी चैनलों को गंभीरता से न लेने का।

मीडियायुग

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1 comment:

Akhileshwar Pandey said...

अच्‍छी चर्चा। शायद टीवी वालों को अभी अतिरेकता की सीमा पार करनी बाकी है।