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Sunday, November 25, 2007

छोटे शहरों में लोकल टीवी


इन तस्वीरों को देखने के बाद जो पहली राय बनती है, वो मायने रखती है। इन्हे कौन देखता होगा। जब आपके सामने आज तकीनीकी ने एक से एक बेहतरीन नजारों और प्रस्तुतियों वाले कार्यक्रम दे रखें है, तो हर मध्यम और बड़े शहर में दसियों की संख्या में चलने वाले इन लोकल चैनलों के ग्राहक कौन लोग हैं।

आज हर एक लाख से ऊपर की आबादी वाले नगर में कई लोकल चैनल चल रहे है। इनमे से ज्यादातर तो केबल कनेक्शन के संजाल का व्यापार करने वाले लोगों के है। ये धंधा भी इसी तरह पनपा है। लोकल टीवी का मतलब भी है कि पूरी तरह स्थानीय। मालिक से लेकर खबर तक। हम इस परिभाषा में अपवाद पा सकते है। सिटी चैनल या इन केबल जैसे चैनलों के तौर पर, जो बड़े शहरों में जीटीवी और हैथवे के लोकल चेहरे हैं।

खैर, बात को छोटे शहरों के लोकल प्रसारणों पर लाते है। तो क्या शहर के लोगों को सचमुच इन लोकल चैनलों पर दिखाए जाने वाले लोकल लेवल के प्रसारणों में रूचि है। अगर आप व्यापार की नजर से इसे देखेंगे तो ये कुछ लाखों का खेल है। प्रसराण के लिए केबुल वाले से सांठगांठ और दिखाने के लिए कुछ कैमरों और एडिटिंग मशीनों की पूंजी। और कमाई के लिए टीवी के हर कोने में कुछ हजार रूपयों में चलने वाला व्यापार।

दरअसल लोकल टीवी ने तकरीबन आज से पांच छह साल पहले अपनी पारी शुरू की। मानिए कि क्षेत्रीय चैनलों के शुरू होने के बाद से। आईडिया वहीं था, लेकिन दिखाना क्या था ये तय नहीं था। सो इस पारी की शुरूआत हुई दिन भर गानों की पेशकशों से। पहले बालीवुड, फिर क्षेत्रीय संगीत फिर पाइरेटेड नई फिल्में, कभी कभी कोई एडल्ट मूवी और फिर शाम को दूरदर्शन की तरह तय समय पर दिखाया जाना लगा समाचार।


समाचार का अपनी दायरा होता है। सो लोकल टीवी ने दायरा बनाया नगर और गांव को। सांसद, विधायक, उद्धाटन,अपराध, सांस्कृतिक कार्यक्रम, खेल आयोजन, और तमाम शहरी जानकारियां। इन खबरों में साफगोई के अलावा सबकुछ होता है। दृश्य टीवी पर चलते है। और राय बनाने से इनकी सरोकार कम होता है।
लोकल टीवी में जो आता जाता है, वो उस इलाके में तभी देखा जाता है, जब वहां की खबर या अपनी मौजूदगी उसमें दर्शक को दिखती है। समस्या उठाने से लोकल टीवी का नाता कम ही दिखता है। लोकमंचों में भी प्रस्तोताओं की लचर प्रस्तुतियों से मुद्दा कमजोर होता है। स्थानीय हितों के आगे सबकुछ कमजोर नजर आता है।

शायद तभी लोकल टीवी की छवि टीवी पर धुँधली नजर आती है। लेकिन इससे हमें ये संकेत भी मिलता है कि हर मोर्चे पर आपको दिखाने वालों की कमी नहीं है। लेकिन जिसे देखना है वो शायद अभी ध्यान नहीं दे रहा है।
आने वाले वक्त में बाजार और चेतना के बढ़ने पर इन लोकल चेहरों में कुछ पैनापन आएगा। इसकी वजह संचार माध्यमों से मिलने वाली धारदार सूचना और कम्पेरिजन होगा। उम्मीद है कि ये लोकतंत्र में आवाज को आगे लाने में मददगार होंगे।

सूचक
soochak@gmail.com


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