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Sunday, November 11, 2007

ओम शांति ओम बनाम सांवरिया


कला बनाम तमाशा। ओम शांति ओम बनाम सांवरिया। या कहें सांवरियां बनाम ओम शांति ओम। एक में बिखरा है नजारों का तमाशा तो दूसरी कला की नुमाइश पेश करती है। दोनों ही फिल्में पिछले दिनों एक दूसरे से टीवी पर जंग लड़ रही थी। अपने आप को हर घर, हर दिमाग और हर सोच में बुनने के लिए टीवी से बढ़िया हथियार कुछ नहीं हो सकता है। वार जारी रहे।
दोनों फिल्मों में समानताएं है। आप कहेंगे क्या गैरजरूरी बात है। पर है। ओम शांति ओम का स्ट्रगलिंग करता ओम बनना चाहता है सुपर स्टार। सांवरियां का राज भी अपनी पहली पेशकश, स्टेज पर, के बाद रानी मुखर्जी से पूछता है कि क्या वो स्टार बन सकता है। ओम की शांति से दोस्ती के बाद दूसरी मुलाकात में शांति उसे नजरअंदाज करती है। राज से दूसरी मुलाकात में सकीना भी यहीं करती है। एक माया को हकीकत बनाती फिल्मी दुनिया के फसाने को सपनों में बुनकर बदले की भावना के साथ पर्दे पर पेश करती है। तो दूसरी यानि सांवरिया भी एक फंतासी लोक में एक हीरो की हीरोइन से मुलाकात करवा फसाने बुनता है।

लड़ाई व्यक्तित्व की ज्यादा लगती है। पर्दे पर आप संजीदा अभिनय को हमेशा सराहते है। भावुक हुए तो आंसू आंख कि किनारों पर आ जाते है। ओम शांति ओम में ओम का दिल टूटना, आग में प्यार का खाक हो जाना, पुरानी बातों में खुद को तलाशना या सांवरिया में राज की चुभन, सकीना का जुनूनी प्यार, गुलाबजी की नापाक मोहब्बत सब छू जाती है। लड़ाई किरदारों ने लड़ी है और हर कोई इनाम का हकदार है।

पर्दे का हीरो लबरेज है एक नई ऊर्जा से। शाहरूख की चपलता, रणबीर की चंचलता, दीपिका की मदहोशी, सोनम की खामोशी सब कुछ खो जाने के लिए काफी। दीवाली पर बोनांजा है ये सब।

एक दर्शक को खींचने में ओम शांति ओम ज्यादा सफल बताई जा रही है। सांवरिया की स्टारटिंग धीमी रही। क्या इसे दोनों की पटकथाओं में दर्शक की रूचि का परिणाम माना जाए। खैर आम दर्शख पटकथा क्या जाने। उसे तो उसके आस पास के संचार माध्यमों ने बताया कि ओम शांति ओम फुल्ली टाइमपास एंटरटेनिंग मूवी है और सांवरिया एक गंभीर निर्देशक की नायाब प्रस्तुति। जाहिर है मनोरंजन प्रथम। सो ओम शांति ओम ने अभी मार रखी है बाजी।

सांवरिया के एक दृश्य में भारत का जिक्र है। राज की मकानमालकिन कहती है कि ऐसा तो भारत के इतिहास में पहली बार हुआ होगा। राज अपने कपड़े प्रेस कर रहा होता है। एक फंतासी दुनिया, नीले काले सेटों की यूटोपिया, और प्यार को तलाशते दो अनोखे किरदार। रूसी कहानी से प्रेरित फिल्म में भारत की जिक्र निर्देशक की चूक है या सोचा समझा छलावा।

ओम शांति ओम में इक्तीस सितारों वाले गाने के बाद हीरो जा पहुंचता है अपनी पिछली जन्म की मां के पास। कैसे उसे सबकुछ याद आ गया। आखिरी सीन में भूत बनकर शांतिप्रिया आ धमकती है। पुनर्जन्म और भूत। जबकि फिल्म में विलेन बने मेहरा खुद ओम कपूर से कहते है कि पुनर्जन्म की कहानी पर फिल्म बनाना बेवकूफी है। ओम शांति ओम अपने ही फार्मूले को फिल्म में कई बार काटती है। पर चलती है।

भारतीय सिनेमा में दो नए चेहरों की नुमाइश में इन दोनों फिल्मों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिल्मों को कला को सर्वश्रेष्ठ माध्यम माना गया है। और कला की नुमाईश में सचमुच कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है ओम शांति ओम और सांवरिया ने।

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