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Wednesday, May 02, 2007

टीवी की भाषा क्या हो।

टीवी की भाषा क्या हो। ये सवाल अब टेलेविस्टा या बेलटेक जैसा है। किसी पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट टीवी में रंगीन फिल्म देखने जैसा। पर सवाल बड़ा है। क्यूं। क्योंकि टेलीविजन आडियो वीडियो जनसंचार माध्यम है। या इसलिए कि सुनकर ही समझने की कमजोर स्थिति में आप आ पहुंचे है। विजुअल मीडिया के तौर पर टेलीविजन की ताकत दृश्य होने चाहिए और आडियो-वीडियो के तौर पर दोनों। आज भी सभी आडियो-वीडियो माध्यमों- विग्यापन, फिल्म- में स्क्रिप्ट की बड़ी भूमिका बाकी है। तो टीवी के साथ क्या हुआ। क्या टीवी की कोई भाषा बची है। या कहें कि कभी बनी ही नहीं। भाषा का विकास टीवी में प्रिंट मीडिया की बड़ी देन है। लेकिन अब ये विजुअल से प्रिंट की ओर बह रही है। आप कहेंगे कि विरोधाभास सा है। लेकिन जिस भी भाषाई आडंबर को टीवी ने गढ़ा है, वो आज आपको बोलचाल, लेखनी में नजर आने लगी है। दरअसल जितनी खींचतान प्रिंट में भाषा और शैली को लेकर हुई है, उसका निचोड़ टीवी के पास है। सरल, सपाट और सीधी भाषा। आपसी संवाद की भाषा। आम बोलचाल की भाषा। लेकिन यहीं से टीवी ने खुद को सीमाओं में कैद कर लिया। और एकरेखीय संस्कृति और धरोहर को बार बार गढ़ने को मजबूर भी। आज टीवी के पास विरासत जैसा कुछ नहीं है। कम से कम भाषा तो नहीं। अगर दशकों से भी देंखे तो किसी दशक की देन कृषि दर्शन है, तो किसी की बुनियाद। और इन सबकी एक तरह की भाषा थी। और अगर संस्कृति से देंखे तो रामायण और महाभारत। और अगर शैली से देंखे तो आधे घण्टे का आजतक। तो क्या चैनलों की बहुतायत से भाषा मर रही है। या कहें कि रिपीट दर रिपीट हो रही है। नहीं। आज आपके पास पचासों सिर पैर वाले धारावाहिक है। सैकड़ों खबरों से भरे समाचार चैनल है। समाज पर भाषाई व्यंग्य करते टीवी हंसोड़िए है। और हर दिन भाषा की खिचड़ी बनाने वाले विग्यापन मौजूद है। तो विविधता क्यों नहीं दिखता है। सारे मनोरंजन चैनल एक से, सारे समाचार चैनल एक से, और सारे विग्यापन प्रभाव क्यों नहीं छोड़ते। आप रिमोट पर ऊँगलियां रोक नहीं पाते। दरअसल टीवी की क्रिएटिविटी खत्म हो रही है। आपके पास विचारों का खालीपन आ गया है। और जो विचार जिंदा है उनकी भाषा तय हो चुकी है।जो भी नकल आप परोस रहे हैं उसमें आपकी अक्ल भले ही अलग हो, पर भाषा वहीं है, जो असल ने अपनाई हुई है।

तो अलग कैसे पैदा हो। और क्या भाषा के स्तर पर बदलाव लाकर टीवी में क्रियात्मकता सुधारी जा सकती है। शायद हां। ये छायावाद से आधुनिक युग की ओर बढ़ने जैसा है। (अर्थ न लें, भाव स्वीकारें)

सोचिए किसी खड़ी बोली हिंदी चैनल में आप एक आंचलिक प्रस्तुति या इलक से किस कर मोहित हो जाते है। हिंदी की खड़ी बोली होना कर्म जैसा है , मर्म जैसा नहीं। उसका रूखापन किसी भी प्रस्तुति को सीमित कर देता है।

तो बात सरल सपाट या सीधी की नहीं है। बात भाषा को करवट और खोलने की है। भाषा को दृश्य सो जोड़कर दिखाना एक कला है, विग्यान है, कोशिश है। लेकिन दृश्य को पैमानों में बांधने की भूल करना भाषा के साथ खिलवाड़ है।

टीवी की लोकप्रियता के बदलते मानकों के दौर में निश्चित ही भाषा केवल संवाद का माध्यम है। आज व्यक्ति बड़ा है, संस्थान बड़ा है। और उत्पाद की कामत बाजार से है। ऐसे में टीवी के कदम अगर भाषा के फैलाव की ओर बढ़े, तो उसे एक ऐसी सुविधा होगी, जिसका इंतजार उसे कई दशकों से रहा है।


सूचक
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