Sunday, December 31, 2006

क्यों बिलखा रहा है टीवी...

नरकंकालों को देखना। उसे बिनना। अपनों को खोजना। मिली चीजों में तलाशना। बिलखते मां बाप। सुलगते लोग। निठारी गांव। नोएडा के एक मकान में रहता नौकर। नौकर का मालिक। और कई अनसुलझे राज़। हैरानी है। टीवी आज इस खबर को भुना रहा है। दर्द दिखा रहा है। सवाल उठा रहा है। पर एक दिन में न होने वाली इस दृशंस घटना को टीवी अब देख रहा है। हर दिन बच्चे गायब हो रहे थे। पुलिस कहती रही कि क्यों पैदा करते हो बच्चे। चलो अच्छा हुआ, कम हो एक दो। ये बात आज उठाई जा रही है। आज समझाई जा रही है कि कैसी हैवानियत। कैसा राक्षसपन। मानव दानव हो चला है। इंसान होने से क्या फायदा। पर कहां थी ये सारी बातें जब एक एक करके बच्चे गायब हो रहे थे। यकायक सरकार, नेता, अधिकारी, पुलिस, लोग सब जाग गए है। जैसै अब जान वापस ले आएंगे। दर्द कम कर देंगे। टीवी की भूमिका क्या हो। कैसी हो। तय नहीं है। दिन भर खबर धुनने से क्या न्याय मिलेगा। मिलेगी। तो केवल हड्डियां। इक्कीस महीनों में अड़तीस बच्चे गायब हुए। एक एक बच्चा एक एक परिवार का।हर परिवार कराहा होगा। पर आज गुनहगार पकड़ा गया। अब जांच करा लो। सीबीआई को दे दो। पर इस नृशंसता का जवाबदेह कौन। समाज गिर रहा है। अपनी भूख। अपनी नीचता। दूसरों की जिंदगी ले रही है। और इसका नतीजा टीवी पर दिख रहा है। कैमरें दौड़ रहे है। संवाददाता चीख रहे है। हाय हाय दिखा रहे है। लोगों का गुस्सा दिख रहा है। आरोपी के फुटेज रिपीट किए जा रहे है। पर सवाल फिर भी बना हुआ है कि पहले ही बच्चों की सुध ली जाती तो कम से कम कुछ जिंदगियां खेल रही होती। और बिलखते मां बाप टीवी पर नहीं होते। न्याय के लिए दर दर न भटकते। टीवी ने अपनी ताकत भांपी है। पर वक्त पर मौजूद रहने के बाद।

सूचक
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क्यों बार बार दिख रहा है सद्दाम..

टीवी जनक्रांति ला सकता है या नहीं। ये सवाल सद्दाम के साथ खड़ा हुआ है। एक देश के अतीत को जिस तरह सरेआम फांसी देते दिखाया गया, वो क्रोध पैदा करता है। टीवी पर वो शांत तानाशाह है। अतीत में उसके गुनाह आज के फैसले की वजह है। पर। सवाल है। क्या ये सही था। क्या मारने से ज्यादा भय पैदा करना जरूरी था। टीवी अपनी हदें जानता हो या न जानता हो। पर देखने वाला टीवी से हकीकत देख रहा है। हकीकत जबरन न्याय देने की। लोकतंत्र के नाम फंदा डालने की। और शांत तानाशाह आह न भरते हुए बिन नकाब डाले जिंदगी सौंप देता है। दुनिया में कई तानाशाह है। वे जरूर टीवी पर इतने हिला देने वाले दृश्य देखकर हिल गए होंगे। टीवी के माध्यम में ये एक मोड़ है। कैसे। क्यों। पिछला टीवी पर देखा कोई दृश्य याद करिए। मुझे तो ट्विन टावर का गिरना याद आता है। एक साम्राज्य के खंभों पर इसे हमला करार दिया गया। साथ ही लोकतंत्र पर भी। अब कल-आज देखे गए दृश्यों को याद करिए. वो सद्दाम जिसे कभी बहादुर माना गया। शांत रहते हुए फँदा कुबूलता है। टीवी ने अभी तक कोई ऐसी निजाम नहीं पेश की जो जनभावनाओं को एकाकार करने वाली हो। पर फांसी के ये शांत विजुअल आगामी तूफान के संकेत लिए हुए लगते है। विचार करिए। एक देश में जिस घुसपैठ को अमेरिका के लोग ही गलत मानने लगे हो, वहां पर लोकतंत्र के नाम पर इस तरह का नजारा। चुभता है। गलत के साथ गलत ठीक है। पर तरीका इतना टीवीनुमा होगा। आक्रोश दिखने लगा है। टीवी को जिन पलों का इंतजार सदियों में रहता है। वो शायद जाने अनजाने घट रहा है। पर क्या इसे दिखाया जाना जरूरी था। आज देखिए एक एमेच्योर वीडियों सभी चैनलों पर दौड़ रहा है। कैसे लटका तानाशाह। कैसे और क्यों खींचा गया ये वीडियों। तमाशा बनाया जा रहा है। डर बिठाया जा रहा है। और सभी दिखाने वाले चैनल एक बड़ी साजिश को बढ़ावा दे रहे है। क्यो लाश न दिखाने वाले समाचार चैनल बार बार सद्दाम को लटकाने, उसके शव और पूरी फांसी प्रक्रिया को बार बार दिखा रहे है। टीवी हदें भूल रहा है। जनता नाराज हो रही है। क्रांति सुलग रही है। आप देखे तो बुरा, न देखें तो बुरा। बहरहाल एक इंसान को मरते देखना कभी भी इंसानियत नहीं कहलाती। पर टीवी इसे नहीं समझ रहा है। आप समझिए। आप सोचिए। और चैनल बदलने में देर न करिए।

सूचक
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Monday, December 25, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर(11 - 17 दिसम्बर)

शादी है। आइएगा जरूर। पर कुत्तों की। जी हां। वैन्यु था जयपुर। पर बारातियों के अरमान टीवी ने धो डाले। जिस देश की राजधानी में एक दिन में तीस हजार इंसान शादियां कर रहे हो। तो कुछ कुत्तों के मालिकों को आइडिया आ ही गया होगा। डाग प्रोडक्टस के लाखों के प्रायोजक भी तो इस शादी को बढ़ावा दे रहे थे। चलिए। टल गई शादी। भला हो टीवी का। जो पार्टियों में मारपीट को दिन भर का मसाला बनाने की कुव्वत रखता है। युवराज की पार्टी। किम के जलवे। और एक मां और बेटा की दिन भर की दास्तान। खैर शाम को सब निपट गया। माएं समझौतावादी हो गई। दर्शक फुस्स। दिन भर को सोच कर मलाल होता होगा। चलिए एक दिन तो हड़ताल में भी जाया हो गया। देश बंद का नारा था। लाल झंड़ों में क्रांति लाने वाले टीवी पर छाए रहे। अच्छा है। पर राजधानी दिल्ली में वे उग्र हो गए। कोलकाता में परंपरा मनती रही। परंपरा आईटी विभाग, इनकम टैक्स भई, भी निभा रहा है। अमिताभ अस्पताल में थे तो नोटिस भेजा था, इस बार निशाने पर है अनंत गुप्ता के पिता। कैसे दिए पचास लाख। सवाल ठीक है। पर टीवी पर पिता ने जवाब नहीं दिया। क्या देता। जवाब टीवी ढूंढता भी नहीं। नहीं तो एक एसीपी ने क्यों मार डाले कैद में रखे गए दो मासूमों को। पर सजा पर हल्ला मचाना आता है टीवी को। एसीपी को मौत। टीवी को खबर। खबर लखनऊ से उठी। गनर वापस लो। नेता हो या विधायक। वीसी की चली। चलिए हास्टल में अब शांति रहेगी। शांति उन दिलो को भी मिली जो टीवी पर दिन रात बाल दल बाल बल्ला दर बल्ला भारत की जीत मांगते है। मिली। जोहानिसबर्ग में। साउथ अफ्रीका के खिलाफ। पर जीतने की मंशा दोहा के कमजोर दिखी। किस पायदान पर रहा भारत ये कम ही जाने। टीवी मे भी कम ही जनाया। खैर जानिए। और देखते रहिए टीवी..

'सूचक'
soochak@gmail.com

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Friday, December 22, 2006

2006: Media year of justice.

Ok, the year sunset is one week far. 2006. A year that gives media a mean and tool to influence. Though in past news media portrays a wide instrument to attack negligence and apathy. But then the news is political or social in face. By the evolvement of technology and human resources, yes produced by several institutes, the media get a news face, Overall the population of our country has much 25 year old youngs. Well, the story is the change on scenario and screen. Last year we see how 'injustice become justice' how 'parliamentarian become greedy' sensex booms and dooms, social reality in particular stories, two day uninterrupted Prince episode and many gossips on TV. We surely enjoy it. This is all about content-trp relation. But on the end of business, joint ventures, acquisition and opt-out really become norms for many upcoming years. The basic question of journalism on tv lies under the protest of justice. We only accept that the profession of courage become a proffession of luring. Every channels is in a rat race. Some by himself, and some by competitors. Who know who is First? Atleast viewer cant think about it. 'Breaking news' becomes the always seeing third part of tv. You find it everytime. But ignorance and negligence are also the part of 2006 news. Like the most unfocused issue is farmers suicide. No channel give a proper time to ask the government that what it would do? So, however 2006 is gone, we surely desire that 2007 changed the geometry of news content. This is not an assumption. The power of awakeness and awareness in common people and the tool they got by the media is become the rule. It is like first you play, and then the umpire tell you to paly rightly man!

Soochak
soochak@gmail.com

Also look this link to see what they say, they the 'mediagurus'...

http://www.agencyfaqs.com/cgi-bin/re.html?u=http://www.agencyfaqs.com/news/stories/2006/12/22/16687.html

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Tuesday, December 19, 2006

Popular interest news?

Mediayug got an interesting piece regarding "Popular News Interest" Hope you all saw what fills the televison news. Issues or gossips. Concerns or Coping. Litigation or legislation. Questionsor Dillemmas. Well read it and find...

http://indiapr.blogspot.com/2006/12/is-indian-media-biased-in-favour-of.html

Mediayug
A dedication

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Friday, December 15, 2006

9/11 REOPEN!!!

Where is the airplane........that crashed into the Pentagon.........?????

Go to this website and watch this film.........do it quickly as it has been pulled off several websites already!........afterwards you'll see why!

http://www.pentagonstrike.co.uk/flash.htm#Main

(SEE IT ONLINE!!!!!!!!!!!)

Journalist arrested: RSF calls for explanations!

15 December 2006

Journalist arrested: RSF calls for explanations

SOURCE: Reporters sans frontières (RSF), Paris

(RSF/IFEX) - Reporters Without Borders has urged the Indian authorities, particularly Union Home Minister Shivraj Patil, to provide clear and objective information about the detention of Abdul Rouf, an editor with the "Srinagar News", and his wife Zeenat Rouf.
"The rule of law should be guaranteed in Kashmir as elsewhere in India. It is unacceptable that the security forces arrest, detain and charge journalists in the most dubious circumstances," the worldwide press freedom organisation said. "We want explanations about the detention of Abdul Rouf and his wife from both the State and Union authorities. If this arrest is linked to his work as a journalist, he should be released immediately," it added.
The organisation pointed out that another reporter, photo-journalist Maqbool Sahil, has been held without trial in Kashmir since September 2004 (see IFEX alert of 9 August 2006).On 9 December 2006, a judge in the capital Srinagar ordered the release on bail of Zeenat Rouf, who is currently in custody at a police station in Rambagh, but police have so far refused to release her.

Since 4 December, Abdul Rouf and his wife have been held under a weapons law. Police, who presented a first report (FIR 341/2006), accuse them of sheltering armed separatists at their home. The couple's family denies the accusations, saying that they have never committed any crimes. Between 21 November and 4 December, the journalist was held at the Special Operations Group (SOG) centre without ever going before a judge. A police officer in Srinagar, reached by telephone by Reporters Without Borders, refused to give any information about the reasons for their detention.Described by his colleagues as "calm and loyal in his work", Abdul Rouf was a calligrapher for various publications in Srinagar for 15 years. For the past four years he has worked as deputy editor for "Srinagar News". The couple's two daughters, Rafiya and Rubiya, and their son, Amir, who is a deaf-mute, told the newspaper "Greater Kashmir" how the SOG agents searched the family home in Srinagar on the night of 21 November. They have been forced to take refuge at the home of a neighbour. They have been unable to return home since the house has been sealed and "police are preventing the children from having access to their clothes, books and toys," the journalist's brother told "Greater Kashmir".
Photo-journalist Muhammad Maqbool Khokar, better known as Maqbool Sahil, has been held in Kashmir since 18 September 2004 under an emergency public security law. Despite calls for his release from the Jammu and Kashmir High Court and the National Human Rights Commission, the security services refuse to set him free.
For further information, contact Vincent Brossel at RSF, 5, rue Geoffroy Marie, Paris 75009, France, tel: +33 1 44 83 84 70, fax: +33 1 45 23 11 51, e-mail: asie@rsf.org

The information contained in this alert is the sole responsibility of RSF. In citing this material for broadcast or publication, please credit RSF._

DISTRIBUTED BY THE INTERNATIONAL FREEDOM OF EXPRESSION EXCHANGE (IFEX) CLEARING HOUSE, 555 Richmond St. West, # 1101, PO Box 407, Toronto, Ontario, Canada M5V 3B1tel: +1 416 515 9622 fax: +1 416 515 7879, alerts e-mail: alerts@ifex.org general e-mail: ifex@ifex.org, Internet site: http://www.ifex.org/

Thursday, December 14, 2006

Outfoxed...Mind Control by Rupert Murdoch

Outfoxed - Mind control techniques used by America...

Outfoxed - Mind control techniques used by American Media - Now being replicated on Indian News channels at a television set near you. Excellent documentary on mind control techniques used by media corporations in U.S.A. All the more relevant for Indians here because Rupert Murdoch has a large presence in India through Star Network. I recommend all readers view this. Even user's with low bandwidth and slow internet connections will be able to watch this. OUTFOXED Outfoxed examines how media empires, led by Rupert Murdoch's Fox News, have been running a "race to the bottom" in television news. This film provides an in-depth look at Fox News and the dangers of ever-enlarging corporations taking control of the public's right to know. The first minute of this video is in Dutch - The remainder is in English Click on the link below to watch this video...

http://www.informationclearinghouse.info/article7798.htm

Wednesday, December 13, 2006

BBC CENSORS CALLER


On Sunday 26 November 2006, at 17-45, BBC Radio 3 had a programme entitled "Is Communism bad for art".

It is obvious from the blurb, see below, that the focus of the programme was to discuss the "horrors of communism". However, the, so called, discussion was little more than a crude rant against an invented "communism" which it was clear that Lebrecht knows nothing whatsoever about.

When John Sanderson, a jazz musician and communist rang in to point out that capitalism has murdered untold millions of people he was quickly taken off air and told, by Lebrecht, that his view was "historically inaccurate".

After complaining about this blatant censorship the comrade was rung by the shows producer apologising for the 'mistake' in cutting him off and no, she did not know who had cut him o ff and it must have been due to lack of time!

The comrade was promised that his letter protesting against BBC censorship would be put on their website.

It will be interesting to see if this does happen. If so, comrades can certainly intervene.

The programme is still available to hear on the BBC website for the next few days.

http://www.bbc.co.uk/radio3/lebrechtlive/pip/2oay0/

Comrade Sanderson's Letter to the BBC

IS THE BBC BAD FOR DEBATE

It is ironic that the BBC Radio 3 programme, Lebrecht Live, on the effects of censorship on art should itself censor a member of the public who had called in to air his views on the subject.

For the benefit of those who did not hear "Is Communism Bad for Art?", R3, Sunday, 26th. November, the preface to the programme in Radio Times stated that "The 20th. Century’s dominant ideology was inherently suppressive. It silenced, imprisoned and murdered millions of people and in a few countries where it still prevails freedom of speech is under severe restraint. But was Communism bad for Art? Much of the work has been appalling propaganda, but some of it could not have come into being under any other conditions...".

But why was this programme being broadcast now? My first thought was that it may have been prompted by the failure of the now capitalist Russia to produce the promised land of Liberal democracy. Perhaps the BBC was worried that those artists and intellectuals who had been so keen to see the end of the Soviet Union were beginning to have second thoughts. As such, the time may have seemed ripe for The Beeb and Norman Lebrecht to engage in a bit of old-style Commie-bashing, with an intellectual veneer, of course. It was obvious from the start that rubbishing Communism was the real point of the programme. The longer it went on, the more it seemed that Lebrecht’s views were not going to be challenged.

I ra ng the programme requesting to put some points to Mr. Lebrecht and his guests and, somewhat to my surprise, was contacted by the BBC to go on air. Given the short space of time, my primary consideration was to counter the assertions against Communism by presenting a few facts about capitalism’s record on suppression, imprisonment and murder which, as far as I can ascertain, has been responsible for far more deaths than Communism . Unfortunately, Mr. Lebrecht (or some higher authority at the BBC) would have none of it. I was quite pointedly faded out, with Mr. Lebrecht retorting "You are historically incorrect". Quite apart from the real content of the programme, essentially a diatribe against Communism, he also put forward some spurious notion about the "purifying fire of Marxism-Leninism" having a beneficial effect upon Art. It is a pity that he did not let me finish my point, because he could have applied his "theory", arguably with more success, to the experience of Afro-Americans.

In the annals of capitalism’s bloody colonial and imperialist history, the slave trade must surely rank as one of the most heinous crimes against humanity. It has been suggested that as many as 25 to 30 million Africans died at the hand of the British slave trade alone. It is reasonable to suggest that no group in modern history has ever been so oppressed or had their culture and identity so rigorously suppressed. Never mind, their particular ordeal in the "purifying fire" of slavery, so central to capitalist development in Europe, gave Blues, Gospel and Jazz to the world. As a Jazz musician myself, I don’t think the creation of Jazz can compensate for the life of even one slave.

Quite apart from this particular, what of the deaths in both the First and Second World Wars, which were, ultimately, about the continuing division of the world into capitalist spheres of influence?

The First World War accounted for about 8.5 million military deaths, over 21 million wounded, over 7 million prisoners and missing. Still, at least we got the War Poets. As to the Second World War, estimates suggest that up to 60 million died. And what of the millions suppressed, worked to death, starved and neglected in the development and ascendancy of capitalism : the nameless and numberless workers in the sweat-shops, mines and mills of Britain in the 18th. and 19th. centuries? Post-1945 alone, Imperialist adventures in Aden, Afghanistan, Egypt, Ireland, India, Kenya, Malaya, Korea, Iraq, Yugoslavia, Sierra Leone, Vietnam - the list could go on - account for many millions of deaths. Added to this are the miserable and stunted lives of those still being economically exploited as cheap labour in the Imperialised countries of the world. Moreover, in the states of the former Soviet Union, most notably Russia, drug dependancy is rife and the vulnerable are simply dying on the streets. Life expectancy for the Russian male population fell from 64 years (in the last years of the Soviet state) to 58 years in 2003 (source : Wall Street Journal, February 4th. 2004); this is even below the level of Bangladesh and well below that of Cuba : 74 years in 2002.

It is estimated that this reduction in life expectancy has led to over 15 million premature deaths and that, should this trend not be reversed, Russia’s population will decline by 30% over the next few decades.

As far as anyone with any understanding of history is concerned, it is not I and my fellow Communists, but Mr. Lebrecht who is "historically incorrect". Moreover, whilst the Russian Revolution may have been a defining moment ,it is a sad fact that it was not Communism that was the dominant ideology of the 20th. Century, but Capitalism. But equally,it must be remembered that the first attempt to create a Communist society may have failed, but the existence of the Soviet Union led, directly or indirectly, to the end of Colonial rule in Africa and Asia , and the defeat of Fascism and Nazism.

I rest my case.

J. Sanderson, Derbyshire.

Tuesday, December 12, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर (1-10दिसम्बर)

अदालत के अदब से हम यहां तशरीफ लाएं है। सिद्धू टीवी पर बोलते है। तीन साल की सजा के बाद भी मंच से दहाड़ते है। पीड़ित परिवार तक ये आवाजें नही जाती। वो तो याद करता है वो दिन जब घर में एक तस्वीर पर माला चढ़ गई। इसे सिद्धूईज्म कहे या बड़बोलापन कि वे जहां तहां तो बोलते रहते है। पर उस परिवार से दो शब्द न कह पाए। टीवी ने मुजरिम को रोजाना की तरह पेश किया। शिबू भले ही मुजरिम की तरह पेश आए। उनके गांव निमरा, झारखण्ड में वे देवता हो, मंहगी गाड़ियो से घूमते हो, पर अब तिहाड़ का एक कमरा उनके लिए रिजर्व है। टीवी पर हर कोई है। शाहरूख से लेकर मुशरर्फ तक। दोनो नएपन की बात करते है। एक नए कलेवर में केबीसी तो दूसरे नए तेवर में कश्मीर का भविष्य बदलना चाहते है। भविष्य तो संजय दत्त का दाव पर लगा है। टीवी पर उनका अपील चलाई जाती है। वे कही खुद बोलते है तो कही ग्राफिक्स पर छपते है। छपते छपते ये खबर आ गई कि प्रिटी जिंटा की अंतरंगता देख लीजिए। देखा। वो दहाड़ने लगी। एक करोड देंगी। चलिए कोई लेने वाला अगे नहीं आया। आगे तो हक लेने वाले लखनऊ में आए। चुनाव का हक। तमाशा खड़ा कर दिया। वीसी निशाने पर। चुनाव करवाइए, वरना...। भारत खैर परमाणु दोस्ती के लिए चुन लिया गया। अमेरिका द्वारा। अमेरिका से ही एक भारतीय ने उड़ान भरी। स्पेस की। सुनीता की इस उड़ान की खबरें अच्छी लगी। पर स्पेस में मार्स ने भी टीवी पर खुद को रहस्यमय बताया। मंगल पर जल है। पानी है। और टीवी पर बेढंगे, तरह तरह की मायावी तस्वीरे नुमायां हुई। खेल की भी तस्वीरे भी खूब दिखी। दोहा एशियाई खेलों की। भारत छठे सातवें पायदान पर रहा। पर जोश दिखा। जोश ही बढ़ा रहा है टीवी। देखते रहिए।

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Wednesday, December 06, 2006

हफ्ता गुज़रा टीवी पर ( 21-30 नवम्बर)

किस्सा क्रिकेट का। यही हाल रहा है टीवी पर, हर कोई क्रिकेट में हारने को ऐसे प्रस्तुत कर रहा था जैसै देश युद्ध में हार गया हो। सीमित सोच। क्रिकेटरों पर ये इल्जाम था कि वे खेलते कम प्रचारों पर ज्यादा डोलते है। ग्रेग चैपल पर कि वे तो बहक गए है। सासंदों पर बोल गए। पर टीवी ये भूल जाता है कि इन खिलाड़ियों को फर्श से अर्श पर वो ले जाता है। देश की नब्ज बनाता है। और जब कभी कभी आर्टिलेरी में खेल का खून जम जाता है तो स्थिति को हार्ट अटैक बताकर कोहराम मचाता है। मचाने दीजिए। हर कोई चिल्ला रहा है। सहरानपुर में भाजपा वाले, संसद में बसपा - सपा। वजहें राजनैतिक है। ताकतवर भी। कानपुर में अम्बेडकर की मूर्ति विखंडित की गई। महाराष्ट्र में असर देखा गया। दलित आंदोलन भभक उठा। टीवी पर टायर, बस, स्टैण्ड जलते देखे गए। स्क्रीन पर आग जल उठी। संबंधों की आग। कुछ अलग ही होती है। हर दिन कोई न कोई संबंध तार तार होता है टीवी पर। पर भला हो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया का।' किस' किया। देश की सबसे अमीर महिला किरण मजूमदार शाह को। तमाशा बन गया। वैसे पेज थ्री के इस कल्चर को देखना बड़ा सुहाता है। पर टीवी ने इसे हिपहाप कल्चर की देन कहा। वो भी राजसी परिवार की देन बताकर। चलिए बड़े लोग है। टीवी पर भगवान बनते दिखाया जा रहा है। एक शख्स नागपुर के। कहते है वे भगवान है। टीवी इन्हे दिखाकर प्रशंसक पैदा करता है। प्रशंसको को धूम-2 के खूब प्रोमो देखने को मिले। म्यूजिक चैनलों पर नहीं। न्यूज चैनलों पर। देखिए ऐश की पिछली फिल्म - उमराव जान- आनी थी तो अभिषेक-ऐश साथ साथ डोल रहे थे। इस बार ऐश के साथ पूरा परिवार था। बच्चन परिवार भाई। समाचार चैनलों ने पूरी शेड्यूल ही बता डाला। इतने पे उड़े, इतने पे उतरे। इतने पर मुडे और इतने पे झुके। कमाल है। कमाल तो रामदेव बाबा का भी है। पूरे देश में योग की लहर फैलना वाले वाचाल बाबा गांधी पर बोल गए। टीवी पर देखा गया। शायद लोकतंत्र का फायदा है। बोल गए तो बोल गए। बोला संजय दत्त ने भी भगवान से प्रार्थना कीजिए। की गई। सो आतंकवादी नहीं, कांस्पिरेटर नही, केवल नाजायज हथियार रखने के दोषी। चलिए पाप से प्राइश्चित बड़ा। पर मलाल न होने वालों को सजा मिल जाती है। शिबू सोरेन को दोषी पाया गया। अपने निजी सचिव की हत्या के मामल में। सांसद थे। है। और शायद रहे भी। पर उनका क्या जो बेच रहे है। अपने सरकारी आवास के कमरे। किराए पर। क्या चाहिए। सम्मान, पैसा या टीवी पर दिखने का बहाना। भगवान जाने। भगवान ये भी जानता है कि दाउद कासकर इब्राहिम कहां है। हर हफ्ते टीवी उन्हे खोजता है। बताता है। पर बीते दिनों दस लोगों को लाया गया। वे डी कंपनी से जुडे थे। जुड़ाव महत्वपूर्ण होता है। फिल्म का दर्शक से। आयोजन का जगह से। तभी को इंटर नेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इण्डिया गोवा में जब मनका है तो गोवा की आबोहवा लोगों को खींच ले जाती है। इस बार भी पैंतीसवें महोत्सव में कई अच्छी फिल्में देखी गई। टीवी पर देखकर अच्छा लगा। अच्छा लगा कोलकाता और कई सांसदों को कि सौरभ गांगुली लौट आए है। बल्ला चलेगा। तो वे भी तल जांएगे।वरना प्रतार तो है ही नजर आने को। चलिए नजर आने वालों को देखते रहिए टीवी पर।

सूचक
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Monday, December 04, 2006

Regional Cinema, Attention Economy & Blogging India!

Mediayug got these pieces good to read...

There was a time when we saw regional flicks on out tv sets, every sunday in the afternoon. Somehow it captures the attention. And show the power of cinemisation and unity in diversity. Now we have so many regional channels and lots of stuff to render, but the miracle was in the limit. We tagged it 'regional media' and in this flow the essence of regional films dooms. The article of - thehindu- cleary state it.

http://www.thehindu.com/2006/12/03/stories/2006120301271100.htm

Somehow the entertainment channels are quarelling like saas bahu in reality tv mode. Every tv channels has a saga to drop tears. In between, we victimized by a syndrome of attention, What is attention grabing? read and analyse yourself!

http://www.agencyfaqs.com/news/stories/2006/11/24/16461.html

Blogging, a phenomena, a wave that simmers. India is on the tip of mouse and internet. This report says so....

http://asia.cnet.com/reviews/blog/technologywalla/0,39059341,61971547,00.htm



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Thursday, November 30, 2006

कटघरे में मीडिया ट्राएल

अदालत। सुनवाई। मीडिया। फैसला। जिसकी भूमिका सबसे बाद में थी, वो आज सबसे पहले मौजूद है। कैमरों के साथ। विजुअली रिक्रिएशन के साथ। नाटकीय रूपांतरण के साथ। अभियुक्त, गवाह, आरोपी, निर्दोष। सबको जगह देने में मीडिया पहल कर रहा है। मामला हाई प्रोफाइल हो तो टीवी का समय घंटो मौजूद है। और अगर आरोपी या अभियुक्त स्वप्रपंचना का भूखा है तो स्टूडियो तक में वो दिख जाता है। न्याय। फैसला। प्रतिक्रिया। सब दिलाने का आतुर है टीवी। खबर का मर्म कम, कर्म के आयाम ज्यादा तलाशता। जब भी वारदात होती है, तो हादसों के शिकार को इंतजार है टीवी का। वो न्याय प्रक्रिया की लंबी लड़ाई से खौफ खाता है। सो टीवी पर दिखकर सहानुभूति और दबाव पैदा करने की लालसा पाल बैठा है। पर हर दिन की खुराक देते देते टीवी अब न्याय नहीं, वक्त खर्च करने का जरिया बन गया है। आज का टीवी शीर्षक तलाशने में लगा है। कथा कहानी की तलाश रूक सी गई है। अदालतों में करोड़ों मामले है। जेलों में लाखों बंद है। सड़को पर हजारों हादसे हो रहे है। जो मामले हैसियत से जुड़े है, रसूख वाले है, उनकी करता है मीडिया, मीडिया ट्राएल। ये जुमला चल निकला है। मीडिया ट्राएल। दरअसल कौन सा तबका ये जानने को आतुर है, इसका पता नहीं। दिन भर में पन्द्रह बीस मिनट समाचार देखने वाले को क्या कितना दिखाना है, ये तय नहीं। टीवी से न्याय मिलने की एक दास्तान है प्रियदर्शिनी मट्टू की। पर मीडिया ट्राएल के दबाव को राम जेठमलानी खुले तौर पर दोषी करार दे चुके है। जिसे न्याय चाहिए वो चीख रहा है। समर्थक चीख रहे है। वकील चीख रहा है। जज मान रहे है। जनता समझ रही है। पर संतोष सिंह पहली बार रिहा हो जाता है। तो क्या ये सब निरर्थक था। केवल टीवी की आग ने मट्टू मामले को ताप दिया। तकरीबन एक साल पहले फैजाबाद, उत्तरप्रदेश में एक वृद्ध व्यक्ति जेल में अपने चालीस साल गुजार कर आजाद हुआ। उसे मीडिया ग्लेयर मिला। उसका मामला अदालत में बरसों चला। और वो जेल में सड़ता रहा। ये सच हजारों मामलों का है। सच न्यायिक व्यवस्था का है। सच मीडिया से दूर घटते सच का है। मीडिया ग्लेयर में आना आम पीड़ित को नहीं भाता। वो जानता है, कहता है, इससे कुछ नहीं बनता बिगड़ता। टीवी कोई जादू की छड़ी नहीं है बाबू। पर कैमरा चलाने वाले, बाइट लेने वाले को हर बार लगता है, बड़ा स्कूप है। कुछ तो हल्ला मचेगा। दर्शक रीपिटिशन को समझता है।, रिक्रिएशन को देखता है। रिएल्टी को भांपता है औऱ चैनल बदल देता है।

एक सच। भारती यादव। डीपी यादव की बेटी। नीतिश कटारा हत्याकांड मामले की गवाह। दिल्ली की पटियाला कोर्ट में बंद कमरे में गवाही देती है। अंदर अदालत में केवल गिने चुने आवश्यक लोग। पर रात में हर टीवी समाचार चैनल पर आप अदालत के अंदर का नाट्य रूपांतरण देखते है। कैसे। ये सवाल न्यायिक व्यवस्था से है। पत्रकारों से है। और हर दर्शक से भी।

सूचक
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Wednesday, November 22, 2006

टीवी के बारे में अनकही...

मुझे इंतजार था। पर क्यों किसी का ध्यान इस खबर की ओर नहीं गया। क्या इस वजह से क्योंकि
टीवी ने इस खबर को एक बाप के रहम पर उतार दिया।मतलब कि उस तरह नहीं धुना जैसा प्रिंस या राखी सावंत को। बात अनंत की हो रही है। अनंत का अगवा होना एक आम खबर थी, पर उनसे जुड़ा परिवार खास था। वो एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी के बड़े अधिकारी का तीन साल का लड़का था। और ये एक तरह की आपराधिक राजनैतिक खबर थी। जिसके आयाम कई थे।टीवी से इसे पहले कानून व्यवस्था, फिर पिता की रहम और फिर जान की कीमत पर छोड़ने का मन बनाया। कहा कि पिता के आग्रह पर हम अनंत से जुड़ी खबरे नहीं दिखाएंगे। क्या कदम रहा। टीवी की नैतिकता के बारे में सोचना हम आप छोड़ ही चुके है। सेक्स, भ्रमण, अपराध और छींटाकशी के अलावा कम ही ठोस दिखता है। दिखता है तो असर नहीं छोड़ता। क्या आपको पत्थर बनाकर मोम की कामना की जा सकती है। यही हुआ है। पहले असंवेदनशीलता के प्रहार और फिर मानवीय होना की गुहार। खैर हम चोला बदलते रहते है। टीवी ने नैतिकता के नाम पर खबर नहीं चलाई। नतीजा या कहे कि वो सिहरन जो सत्ता को बेध रही थी, ने मजबूर किया ये दबाव बनाने में कि वो वापस ले आए एक तीन साल के अबोध को। पर टीवी ने ये नहीं बताया कि किस तरह एक बाप ने अपनी तकनीकी समझ से बच्चे को वापस लाने में खास भूमिका निभाई। चलिए। जरूरी था। अनंत के वापस आने के बाद। एक बार फिर टीवी ने धज्जियां उड़ाई। पुलिस की अनंत गाथी की। क्या क्या फर्जी गढ़ा गया था। उसे पर्दाफाश करने में टीवी ने हर तरह की कहानी के पेंच खोले। खैर सबक पर गौर करिए। जब भी किसी मानवीय खबर पर टीवी पिल पड़ता है, तो नतीजे किसी न किसी तरह सार्थक हो जाते है। टीआरपी की चिंता में हर रोज नया करने और बांधने की कोशिश मे इस जनसमचार माध्यम ने कुछ गरिमा जरूर खोई है, पर जो बचा रहा है वो कही न कही किसी मूल्य को स्थापित करते है। एक बार जो कही नहीं गया वो गौर करने लायक है। अनंत ने घर पहुंच कर जो खुशी दिखाई, जो आपने हमने टीवी पर देखा। वो खुशी टीवी की बदैलत है। टीवी की बदैलत है आपको ये अहसास कि आप भले ही ज्यादातर शिकार होने पर पर्दे पर नजर आते है।पर न्याय आपके पास आने को तभी तैयार होता है जब आपके साथ जनभावनाएं होती है। जो टीवी बनाता है।

'सूचक'
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Monday, November 20, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर (11-20 नवम्बर)

एक हफ्ता छोटा नही होता। मालूम है एक दिन में अस्सी से सौ खबरें खत्म हो जाती है। एक हफ्ते में अनुमान के तौर पर एक हजार खबरे। इनमें से ढाई से तीन सौ नई खबरें होती है। बाकी किसी की पूंछ तो कोई किसी का सिर। यानि फालो अप एंड रेगुलर अप। अप का जमाना है। सो हिमेश का अप सुर तीखा हो चला। सुरूर का गुरूर हो गया। नाक में वे गाते है पर नाक पर घमंड आ गया। घमंड ने अंधों पर लाठिया बरसाई। पुलिस को अधिकार है इस देश में कानून को अंधा करने का। सो पिटिए। टीवी ने इसे पीटा। सो गृहमंत्री ने कहा गलती हो गई। हो गई। पर दलित को मारा जाना गलती नहीं होती। जानबूझकर मारा जाता है। जान की कीमत तो वैसे भी नहीं है। सो मारे जाना तब तक खास नहीं होता, जब तक वो संख्या में ज्यादा हो या मुआवजा न मिले। मुआवजा मिला अभिषेक को। यश भारती पुरस्कार। बधाई हो। पिता के करम पर। दोस्त अमर सिंह धरम निभाते रहते है। चुनाव है भईया। देखिए चुनाव भी कितना लोकतांत्रिक हो चला है। जेएनयू में अमेरिकन छात्र चुना जता है। बढ़िया है। वैसे चुना तो था स्वेता ने भी राहुल को। पर टीवी और उससे पहले एक अखबार ने छापा। पीटा। स्वेता ने कहा नहीं पीटा। पर क्या टीवी को यही बच गया बताने को। बताइए। कि कैसे लोग मारे जा रहे है। देश में। मुंबई में गाड़ी चढा दी जाती है। गुड़गांव में सीरियल किलर पकड़ा जाता है। कारण कोई नहीं खोजता। कारण भष्टाचार का भी नहीं खोजा जाता। पर याद किया गया। मंजूनाथ को। याद है आपको। इण्डिन आयल का इंजीनियर। पेट्रोल माफियाओं द्वारा मारा गया। उसे एक टीवी चैनल ने याद किया। अच्छा लगा। पैसा पाना सभी को अच्छा लगता है। पर ऐश को ये मंहगा पड़ा। उनसे पूछताछ की गई। कहा गया कि वे निर्दोष है। निर्दोष पाकिस्तान के साथ फिर बाचतीत जारी हुई। रिकार्ड बनाएंगे हम बातचीत का। रिकार्ड टूटते है। सो खेल में दो युवकों ने सचिन-कुंबले का तोड़ा। ये देखना अच्छा लगा। टीवी इस पूछताछ में जुटा रहा कि भारतीय कितना बेसब्री से कैसीनो रोयाल का इतजार कर रहे है। नीली आंखो वाला, सपाट चेहरे वाला जेम्स बांड। ने काफी रिव्यू कराया अपना। खैर तेलुगू भी बोलता है ये जेम्स बांड। पर सरकारी भाषा बोलना सीखना हो तो मंत्रियों से सीखिए। देखिए ने हमारे पासवान साहब का घर, उनके बेटे का टेलिफोन बिल तक सेल ने भरा। औऱ वे अनजान बने रहे। चलिए मंत्री जी।जनता सब जानती है। जनता ने भी जाना कि ट्रेड फेयर में क्या क्या बिकता है। खिलौने, जूते, आइटम्स और चौंतीस देश के गलियारे। खूब भीड़ जुटी रही। खबर भी आती रही। खबर ये भी आई कि सीलिंग चलती रहेगी। पर टीवी के लिए ये रेगुलर खबर हो गई है। फालो अप जारी है। फालो अप बालीवुड वाले करते रहे है हालीवुड का। जैसे रानी ने किया, रानी मुखर्जी ने, उनके बाडीगार्ड ने पीट डाला। जैसे देश में मौजूद ब्रेंजेलिना, ऐसा ही कहता है टीवी ब्रैड पिट और एंजेलिना जोली को, का बाडीगार्ड अपना एक्शन दिखाता रहा है। सो एफआईआर दर्ज हुई। औऱ जमानत भी। जमानत। देते रहिए टीवी को।

'सूचक'
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In The Premises Of The National Broadcaster!!!

"Why media needs an insight look? Every time when tv journalist share their account of working , the agony, apathy and insenstivity looms large.You know all and we also. So when a particular case come to us, we get hurted. And this is not in the good faith of journalsim and media. So this is a lesson for us".....Mediayug.

An Open Letter To Mr. Nilanjan Mukhopadhyaya(DD News Research)
Dear Mr. Nilanjan Mukhopadhyaya (DD News Research),
This is with reference to the last conversation we had on the mobile on 17th November 2006. You had asked me to talk to you after I get well from my migraine.
Let me remind you of what happened on that day. You had scheduled my duty in the night shift from 16th and when I came back on 17th noon from the office, I had a severe migraine attack. Then in the evening at around 8.30 p.m., when I called you on your cellphone, Ms. Varsha picked it up. I told her my problem and asked for a leave which she responded with saying that with this attitude, we could not continue together and disconnected. Then I tried getting ready for the pick up as I had no choice, but then I thought of asking for the leave once more as I knew that I had to leave the office in the midnight only because my condition was getting worse. This time, with the same argument, shouting for a couple of minutes, Ms. Varsha again disconnected. Then my husband called up and you picked up the phone. He requested on my behalf to grant a Leave Without Pay very humbly but you arrogantly denied asking to transfer the phone to me. When he gave me the phone, before I could speak out something, you again started shouting at me and threatening me to sack. This time, my husband took the phone from me and asked for your final decision and you were stucked to the same argumentative position of the attitude problem, rather than considering it as prima facie related to the medical problem. He asked you to clear the dues and the conversation ended up. You had asked him that I must talk to you when I get well.
Now, considering the inhuman and exploiting conditions prevailing in your organisation, it is almost impossible for any sensible person to talk to you after the series of events which I had experienced under you in less than two weeks of working with you. Continuing working with you is far from the impossible, as I had been told from some of my aquaintainces who have previously worked with you. They too had a bitter experience of your feudal and autocratic working mechanism, but as you are better aware, the newcomers have no choice except being exploited in the hands of people like you who are currently governing the whole media.
It was shocking to Dr. Hemant Joshi also when I shared the experiences and the conversations I had with you during severe headache. He was deeply disappointed with this as he is aquainted with your democratic and progressive past and I came to you with his reference only. Although, there are many people in the Delhi media circle who never blink their eyelids on these type of daily events.You must be aware of them.
I am very disappointed with what happened between us...as individuals of the same profession as well as in the context of employee and employer dialectics. Far more than that, it is a matter of great sorrow that an exploitative machinery comparable to the feudal structures of the medieval period is operating inside the premises of the country's national broadcaster DD News.
I humbly request you to clear my dues and pay the salary of 12 days i.e. from the day of joining Nov 6th 2006 to Nov 17th 2006 which amounts to Rs. 2000.00 only according to the committed Rs. 5000.00 per month by you. Please send the cheque at my address. I hope that you will do this, although you have not paid the dues of many people who have worked with you in the past.I know them by names and faces.
I am no more in the condition to talk to you as there is no point in it. Please do send my cheque as it is in the larger interest of the media community, specially the newcomers who have a minimum trust on the seasoned journalists like you. You will break this trust completely if you do not pay for what I have experienced in your organisation.
I will not like to go into more technical details regarding the other irregularities going on in your organisation as they are not yet part of my empirical domain.
Regards,
Sheela
(This letter was sent to us by the writer on mediayug@gmail.com. Do feel free to share your media experiences with us at the above email id: Editor)

Monday, November 13, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर (2-10 नवम्बर)

मीडिया खेलता है। न्यूज़रूम खेलते है। राम जेठमलानी कहते है। दोषी कौन है। अदालतें तय करती है। वैसे भी सुबूतों पर ही न्याय टिका है। और टीवी भी। कैसे। आप जो देखते है। उस पर न्याय करते है। खबर सही है या गलत आप नहीं जानते। सो वैसा सोचते है, जैसा देखते है। देखिए। रविवार। छुट्टी का दिन। पर अदालत खुली रही। सद्दाम की छुट्टी जो करनी थी। एक मुल्क की किस्मत का रखवाला खिदमत को तैयार नहीं। सो दे दो फांसी। हालांकि ये किसी टीवी ने नहीं कहा। दरअसल सद्दाम के पूरे शासनकाल में ढाई लाख लोग मारे गए और पिछले दिनों अमेरिकी हमलों में सात लाख। पर मारे दोनों ने। सो सजाए मौत। एक को आज। एक को पता नहीं कब। टीवी न सोचता है, न सोचवा रहा है। सरकार भी नहीं सोच पा रही है।।क्या करे, क्या नहीं। सीलिंग करवानी है। सरकार को कुल्हाड़ी खुद के पैरों में मारनी है। पर अदालत का फरमान। मजबूर, परेशान, हैरान। सरकार और व्यापारी दोनों। वैसे अपनी करनी का फल सरकारें भोग रहीं है। तभी तो अमेरिका में में गधे जीत रहे है। डेमेक्रेट जीत रहे है। लोकतंत्र जीत रहा है। और शायद परमाणु करार हार रहा है। पर जीत भी हो रही है। और बेइज्जती भी। चैम्पियंस ट्राफी में आस्ट्रेलिया जीता। सो मंच पर रिकी पोटिंग और डेमियन मार्टिन ने हारी भारतीय क्रिकेट टीम के आलमबरदार शरद पवार साहब को जाने के कह दिया। वैसे दर्शक बोर हुए। उमराव जान को देखकर। मजा नहीं आया। एक सिनेमा हाल से निकलते दर्शक ने कहा। कैसी कैसी अफवाहें। पर सब बेकार गई। अब शादी का क्या होगा ऐश। उसे भी उतर जाने का संकत दे दिया। दर्शकों ने। कुछ ऐसे ही संकेत मायावती ने मुसलमानों को दिए है। कम से कम टीवी यही बखा रहा है। टीवी पर अमिताब को डाक्टरेट लेते देखा होगा। योग्यता का एक और पैमाना। पर टीवी तो जूनियर अमिताब के हेयर स्टाइल के देखता रहा। देखिए लोकप्रियता भी किस किस चीज से मिल जाती है। धोनी खेलते है। पीटते है। और बालों को लहराते है। और बाल भी कटवाते है। सो इस कटिंग को टीवी के दो महान चैनलों ने कवर किया।क्या करें हमेशा बोरियत भरे खबरें कितना चलाएं। जो गंभीर खबरें है, वे आती है। पर धूप में बरसात की तरह। सियार की शादी की तरह। और देखिए चुनाव भी तो देश में शादी की तरह होते है। यूपी में हुए। नगर निकायों के। हो हल्ले के साथ। गोली बंदूक के साथ। धनबल के बीच। सो जीती जातियां और पार्टियां। दल और बल। हारा वोटर और मतदाता। हारा को पर्यटन भी। जयपुर में नंगानाच किया विदेशियों ने। देश के नियम तो केवल देशी के लिए होत है न। नियम , ताक पर रखे जा चुके है। नागपुर में दलितों के प्रोटेस्ट पर हुए तमाशे को तो देखा होगा। चलिए चलता रहेगा ये सब। जानते रहिए देखते रहिए टीवी।

'सूचक'
soochak@gmail.com

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Wednesday, November 01, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर (24 अक्टूबर -1नवंबर )

क्या देखा इस हफ्ते आपने। खबरें या हीरोज़। देखा ही होगा आपने। लिटिल चैम्प हो या नच बलिए। ये छाए रहे। संचिता, दिवाकर, समीर। मोना सिंह। इन्हें उत्तर भारत ने जम कर देखा। अब ये अलग बात है कि सिम खरीदकर वोटिंग करवाना गलत नहीं है। सो खबरों में जो चला वो कितना याद होगा। सर्वे भी आ गया कि भारतीय न्यूज पांच से दस मिनट के बीच देखते है। लीजिए। वैसे फांसी की दरकार की बात थी। सो कोर्ट ने कही दी जाए। संतोष को फांसी जी जाए। सुशील शर्मा के साथ रखा जाए। कौन सुशील। तंदूर कांड वाला भई। देखिए टीवी इतिहास को कितना कम याद करता है। केवल जीत न्याय की नहीं, भावना की हुई। लोकतंत्र में लड़ते रहने की हुई। लड़ ही रहे थे। पहले प्रधानमंत्री के लिए, फिर उपप्रधानमंत्री के लिए। प्रणब दा। विदेश मंत्री बना दिए गए। एंटनी को डिफेंस। खैर टीवी की इंट्रेस्ट जेपी यादव में रही। दागी मंत्री जी दोबारा मंत्रिमंडल में। मंत्री अगर मुख्य हो तो उसका रसूख खूब होता है। तभी तो कर्नाटक के सीएम के बेटे ने खूब धमाल मचाया। ताकत है। जोड़ो में या ज्योतिष में। ऐश की फिल्म अभिषेक के साथ आ रही है। पिछली बार टीवी ने ब्रेक किया था, कि अजिताब बच्चन कुंडली मिलवाने आए है। इसबार अमिताब चाहते है कि वे बेटे के बेटे के दादा बने। पर ध्यान रखिए इस पेयर की फिल्म आ रही है। और जहां टीवी ने उन्हे घेरा वहां जेपी दत्ता भी थे। बीत में बैठे। खैर अमिताभ को ये सोचना चाहिए कि बच्चों की फिक्र उन्हे जरूर करनी चाहिए। आखिर पोलियो के मामले राजधानी में मिले है। एक दिन तो ऐश्वर्या का जन्मदिन टीवी ने ऐसा मनाया कि लगा वे रियल लाइफ में महान है। वे अकेली तो मिस वर्ल्ड नहीं। और न ही खूबसूरत।पर टीवी प्रचारों में छाई है, सो खूब दिखाने में क्या हर्ज है। दिखे। पीएम भी। सिक्योरिटी लैप्स या कोई साजिश। टीवी सोचता थोड़ा है। माना कि थ्रेट है। माना कि ईमेल है। पर इंसानी गलती तो मान्य है। पर माफ करिए टीवी पर नहीं। तभी तो टीवी पर एंकर न जानते हुए भी बैठते है। और गलत जानकारी देने पर भी माफी नहीं मानते। खैर जानते तो आप भी नहीं। जानते तो मोबाइल को दिल से लगा कर नहीं रखते। अरे भई मर्द की मर्दानगी को खतरा है सेल। ये खबर झूम के चली। पता नहीं जानकारी थी या कुछ था ही नहीं चलाने को। क्योंकि एक चैनल पर तो ब्रेक में सेलफोन का एड ही चला। एड और एड्स में कितना अंतर है। खबर भर का।क्योकि एड़्स के एड तो आप खूब देखते है, पर जब वो तबर बन जाए तो अलग दिखता है। सो बिहार पुलिस में जब एड्स की खबर को एक्सक्यूजिव दिखाकर चलाया गया तो समझ नहीं आया कि ये खबर है या जानकारी। एक और जानकारी। अबू सलेम से जुड़ी। रूकिए उसे फांसी नही होने जा रहा है। लोकतंत्र है भई। सो चुनाव उसका है। सजा भोगे या मजा। सो एक पोस्टर दिखा टीवी पर। कहा गया कि चुनाव लड़ेगी भाई। लड़ने दीजिए। जीतने दीजिए। कौन से अपराधी कम है राजनीति में। आग लगी। सो खबर बनी। रिलायंस के रिफायनरी में धधका। देश में लगा कि कल खाना बन पाएगा या नहीं। आयात करो। पर टीवी को विजुअल एक्सक्लूजिव की चिंता रहा। ये जानना मुश्किल रहा कि असल में इससे असर क्या पड़ेगा। असर पड़ेगा। महिला पर अत्याचार करना भूल जाइए। कानून आ गया है. पर टीवी ने ही कलई खोल दी। की मामले दिखाए कि कानून हो चाहे न हो मानसिकता नहीं बदलेगी। क्यों बदलें। हम ऐसे ही है। यूं ही त्यौहार मनाते है, सेवईयां खाते है, गले मिलते है। ईद मनाते है। अच्छा लगा टीवी पर भाईचारे को देखकर। पर मैच में भाईचारा कम होने लगा है। मैच लड़े जाते है। प्रचार वार करते है। और करार पाई कंपनिया एक दिन का खर्चा नहीं निकाल पाती। खैर ये तो चलता रहेगा। देखते रहिए टीवी।

'सूचक'
soochak@gmail.com

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Tuesday, October 31, 2006

विग्यापन के बीच पिसती खबर

एक आम दर्शक कभी कभी ये सोचता है कि ये जो पचासों खबरिया चैनल चल रहे है, इनकी आमदनी का ज़रिया क्या है। थोड़ा जागरूक देखने वाला ये जानता है कि विग्यापन के जरिए ये चैनल आमदनी करते है। लेकिन ये आमदनी कितनी होती है, खर्चे कितने होते है, ये सारे सवाल मीडिया में काम करने वालों को भी कभी कभी सोचने पड़ते है। आप जिस पेशे में हो उसके बारे में जितना जानते है, उतना वो आपके लिए फायदेमंद हो जाता है। अब केवल हिंदी में चलने वाले चैनलों की सूची ले लें तो आजतक, ज़ी न्यूज, स्टार न्यूज़, एनडीटीवी, आईबीएन-7, एसवन वो ऱाष्ट्रीय चैनल है, जो रोजाना आप तक खबरें पहुंचाते है। पर केवल खबरें ही नहीं, विभिन्न उत्पादों के प्रचार भी। वैसे कुछ विश्लेषकों का ये मानना भी है कि प्रचार भी तो सूचना और जानकारी है। ठीक। लेकिन सूचना के संजाल में कितनी जानकारी है और कितना 'कूड़ा-कचरा' ये कौन तय कर रहा है। 'आप' या उत्पाद बनाने वाली कंपनी या टीवी चैनल चलाने वाले जर्नलिस्ट। ये जानना कठिन है। और इसपर सीधे उतरना कठिन है। क्योकि समाचार की दुनिया खबरें भले ही सीधे देता हो पर वो अंदरूनी तौर पर बहुत ही उलझा हुआ है। खबर संवाददाता से शुरू होकर आप तक पहुचने में कम से कम दस स्टेज पार करती है, ऐसे में खबर में ऐसे बदलाव आते है जिन्हे आपका सक्रिय दिमाग नहीं बल्कि अवचेतन दिमाग पकड़ता है। खबर भले ही राजनीतिक हो, पर उसमें दिखाए गए विजुअल, कही गई बात और न कही गई बात के असर बड़े अनोखे होते है। जैसे भले ई-मेल के जरिए प्रधानमंत्री को जान से मारने की धमकी दी गई हो, पर इस खबर को जितना तूल दिया जाता है, उससे ये उतनी ही स्वीकायर्ता पाता जाता है और व्यवहार बन जाता है। खैर ये समाजशास्त्रीय विश्लेषण का विषय है। सो इसकी बात कभी और। पर विग्यापन का क्या। वे तो आपकी जिंदगी का वो हिस्सा हो चले है जो आपको हर खरीदारी में प्रभावित करते है। कैसे। जैसे ‍टूथपेस्ट कौन सा, साबुन कौन सास और शर्ट कौन सी। ये सब आप कैसे तय करते है। जाहिर है पिता का बताया तो धुंधला सा याद होगा, सो टीवी रोजाना याद दिलाता है। यानि एड न हो तो खरीदारी मुश्किल होगी। और चैनलो का चलना भी। गौर करिए। ये वो ताजा आंकड़े है जो तस्वार साफ करते है। कौन कितनी खबर और कितना प्रचार दिखा रहा है।

चैनल खबर(%) प्रचार(%)

आजतक - 47 53
स्टार न्यूज - 65 35
जी न्यूज - 69 31
एनडीटीवी - 70 30

ये तो कुछ खास चैनलों के खास आकड़े है जो कहानी को बड़े कैनवास में दिखाते है। पर ज्यादा बड़ा हकीकत ये है कि ये सारे खबरिया चैनल जिस भी मात्रा में खबरें चलाते इसमें भी क्या चलता है। सारे न्यूज चैनलों पर चलने वाली खबरों में साठ फीसदी ऐसा होता जो ट्राइवियल या पेरिफेरल माना जा सकता है। यानि ऐसी खबरें जो किसी के काम न आएं। यानि ऐसी सूचना जो इस्तेमाल न की जा सके। यानि खबरिया चैनलों पर फिजूल की खबरें। लगता है कुछ। सच यही है। न यकीन हो तो टीवी खोल लीजिए और एक घण्टा देखने के बाद याद कीजिए कि क्या क्या देखा और जाना। वैसे विग्यापन जरूर याद रह जाता है। क्यों। क्योकि वो आपकी जरूरत के अनुसार बुना और पेश किया जाता है। शायद टीवी को ये समझना बाकी है।

'सूचक'
soochak@gmail.com

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Sunday, October 29, 2006

Why won't the media cover this outrageous October Surprise?



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Joshua Holland

Earlier in the week I wrote about the likely death sentence to be handed down in Saddam Hussein's show trial just two days before the mid-term elections. If you missed it, read it here.

When I wrote that, I didn't know for a fact that most observers expected the trial to take far longer. But, according to Scott Horton, an adjunct professor at the Columbia University Law School who has visited Baghdad several times, that does appear to be the case.

According to the Institute for Public Accuracy, Horton said yesterday:

Most observers expected the date would be much later, but it seems to have been moved up. It will be front page news in the papers on Monday -- the day before the election. This is designed to show some progress in Iraq. The American public will see Saddam condemned to death and see it as a positive thing.
When you look at polling figures, there have been three significant spike points. One was the date on which Saddam was captured. The second was the purple fingers election. The third was Zarqawi being killed. Based on those three, it's easy to project that they will get a mild bump out of this.

I'd add that these have been short-lived spikes. Longer than two days, but short-lived.

In my experience, everything that comes out of Baghdad is very carefully prepared for U.S. domestic consumption. … There is a team of American lawyers working as special legal advisers out of the U.S. embassy, who drive the tribunal. They have been involved in preparing the case and overseeing it from the beginning. The trial, which is shown on TV, has mild entertainment value for Iraqis, but they refer to it regularly as an American puppet theater.

Tom Englehardt pointed out in The Nation that the media haven't even taken note of the timing in their coverage. This kind of transparent manipulation of something as important as seeing justice served for the tens of thousands of Iraqis tortured and killed by Hussein for the sake of the GOP's prospects in the mid-term elections is simply outrageous. Reporters should be asking hard questions about it in Washington and in Baghdad -- this should be a major story.

It's a perfect opportunity to dig into the revelations contained in Michael Gordon's Cobra II about how everything done in the "Battle for Baghdad" was carefully scripted for U.S. domestic consumption, and in Rajiv Chandrasekaran's Emerald City about how the Green Zone is awash in Republican political appointees, many of whom have no visible qualifications for their posts beyond party loyalty. If the media were doing their jobs this craven act might back-fire on the Republicans as it should.

Can you take a minute and give me a hand? Beneath the fold are some selected media contacts. A brief, polite note asking them why they're not covering this issue -- why they're not asking the appropriate questions -- would be really helpful. Contact your local media as well. Reference Scott Horton's statement above.

And any members of the press can e-mail me for Horton's contact info.

Tagged as: international law, iraq, saddam hussein, election06

Joshua Holland is a staff writer at Alternet and a regular contributor to The Gadflyer.

Sunday, October 22, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर (17-23 october)

फैसला आ गया। इंसाफ भी मिला। टीवी पर पिछले कई महीनों से बैनरों, पोस्टरों के साथ मशाल जलाते, चिल्लाते पीड़ितो के रिश्तेदारों को दिखाते टीवी कैमरों के सामने जब संवाददाता ये बता रहे तए कि संतोष सिंह को अब सजा मिलेगी तो देखने वाले का मन खुश हुआ होगा। दुखी केवल कैमरो से बचते दोस्त ही दिखे। शरीयत को स्टूडियो से घेरते टीवी चैनलों को तब राहत मिली होगी जब इमराना के ससुर को दस साल की सजा सुनाई गई। कैमरे पर इमराना असमंजस में थी। क्या पति के साथ अब वो रह पाएगी। बहस इस पर कम हुई। दिन था धनतेरस का, सो टीवी पर बाजार और सामान ज्यादा दिखा। ये बिकावली थी। लोग खरीद रह थे, कार, घर, घरेलू उत्पाद और कपड़े। टीवी को उपभेक्ताबाद का पालकीवाली कहा गया। दीवाली थी, सो खरीदारी भारतीय परंपरा रही। इस सबके बीच केवल एक दो चैनलों ने भूख और सूखे से मर रहे परिवारों की दास्तान से शहरी जायका बिगाड़ा! यही सच है। शहर और गांव का अंतर टीवी साफ दिखाता है। अब तो गांव की खबर को एक्सक्लूजिव माना जाना तय हो चला है। उधर शहरों में जी रहा आम आदमी बेचने पर उतारू है। कुछ भी। देश की सिक्योरिटी से जुड़ दस्तावेज भी, एक हवलदार गिरफ्तार हुआ, एक सेना का जवान भी । दोनों के पास खुफिया दस्तावेज थे। हां, खुफिया खबरों, यानि स्टिंग आपरेशन पर जरूर उच्चतम न्यायलय ने आपत्ति जताई। कहा सब पैसे का खेल है। है। पर कैसे मिटेगा भ्रष्टाचार। डरा कर ही सुधारा जा सकता है । कम से कम टीवी तो यही मानता है। एक से एक भायानक स्क्रिप्टें, एक से एक खतरनाक म्यूजिक। स्टिंग के निर्देश को लेकर चैनलों में बेचैनी देखी गई। कुछ ने इसे कर्मकांड मानकर चलाया ही नहीं। कुछ ने दीवाली मानकर खूब चलाया। चलिए खबर दिखी तो ।स्टिंग जारी रहेगे, यो तो तय है। जनता भी सुख लेती है, पर सोचना विषय और तरीके पर है। सारे चैनलों ने दीवाली पर हंसी की ठिठोली दिखी। मानो पूरा भारत खुश है और टीवी दख रहे है। पर फिल्म वाले की नजर टीवी पर जरूर है। डान और जानेमन को लेकर टीवी चनत सरपरस्त रहे। किसी ने डान को भला बताया कि तो किसी ने कहा कि जानेमन ही बेहतर है। और इसे देखने को भारतीय दर्शक विवश। दिशाहीनता है कुछ खबरों को जगह चाहिए। बहस चाहिए पर बहस इस पर होती है कि मर्द को क्या चाहिए? जवाब भी मिला ।पर दिया शहरी भारतीयों के स्वनामधन्य प्रवक्ताओं ने। टीवी पर अंधविश्वास की जगह भी बढ़ती जा रही है। हर दिन आपको कोई न कोई फंतासी कहानी चाशनी के साथ पेश की जाती है। भरपूर वातावरण के सथ । आप भी क्या करें। हमेशा भूत से डरते आए है, सो देखते रहिए चैलन नम्बर बन पर भूत नम्बर वन। खैर दीवाली मुबारक । बाकी मनोरंजन के लिए टीवी तो है ही।

'सूचक'
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Monday, October 16, 2006

An Urgent Appeal!!!

ARE WE LIVING UNDER MARTIAL LAW

Sunita , owner of Danish Books has been summoned by the Chandrapur Police for interrogation today, 16 October 2006 along with Sh. Vijay Vairagade, a local social activist and his 16 year old son who is a minor. The police claim that they have clinching evidence against Sunita which proves beyond doubt that she has Maoist affiliations and is indulged in activities which are subversive in nature. However, the local thana and the police is not ready to part with any information regarding these charges to the lawyers who are there to represent Sunita.

It has been claimed by the police that Sunita belongs to Jehanabad of Bihar and her first husband was killed in police encounter. They also claim that 15% of the literature seized from the stall of the Daanish Book is of offensive nature and supports the politics of the Maoists.

To put the record straight Sunita has no connection with Jehanabad. Her parental family hails from Naugachiya District of Bihar. Actually by establishing a relationship between her and Jehanabad which is known for Naxal politics the MH police want to prove that she is also a naxalite. The police claim about her first husband being killed in police action is also a issue of imagination. Her first husband is a known leftist political activist and is based at Patna and very much alive. She is now married to Shri Dhruva Narayan, a reputed publisher, who has to his credit titles by Noam Chomsky, Samir Amin, Tariq Ali and other nationally and internationally reputed authors. Sunita has been active in student and women's movements and has worked with the National Commission for Women, a statutory body constituted by the Government of India for two years. She has also worked with Books For Change, a subsidiary of the ActionAid India, an international agency .

Sunita is a known publisher and distributor and she visits all major book exhibitions and fairs and put up her stall everywhere. As publisher and distributor gets calls from all kinds of people and they also visit her stalls. Chandrapur being on centre of police action against naxal activities in the region, police use their extraordinary powers to harass anybody. For last few months they have been raiding the houses of social activists and journalists and seizing books and implicating them in false criminal cases. According to reliable sources, the Chandrapur police intends to book Sunita under the Unlawful Activities Prevention Act.

One needs to recall that yesterday on 15 october,2006 in a shocking and bizarre incident the Maharashtra Police, Chandrapur had seized 41 books from the stall of Daanish Books, which were displayed in the book exhibition which is held every year on 15-16 October, on the occasion of the Deeksha Day celebrations to mark the day when Babasaheb Ambedkar embraced Buddhism 50 years ago . The books seized by the police for containing dangerous , anti state material include books like Marathi translation of the Thoughts of Bhagat Singh, Ramdeen Ka Sapna by B.D. Sharma, Jati Vyavastha- Bhartiya Kranti Ki Khasiyat by Vaskar Nandy, Monarchy Vs Democracy by Baburam Bhattarai, Nepali Samargaatha: Maowadi Janyuddha ka Aankhon Dekha Vivaran (The Hindi edition of eminent American Journalist Li Onesto's celebrated book Dispatches from the People's War in Nepal, Translated by Anand Swarup Varma), Daliton par Badhati Jyadatiya aur Unka Krantikari Jawab, Chhapamar Yudhha by Che Guevara and books on Marxism and Leninism and people's struggles. Non of the books seized by the police is banned or declared offensive by any state agencies.

A contingent of nearly 70 armed policemen surrounded the stall of Daanish Books this afternoon and remained there for more than three hours, making a list of books they wanted to seize. Earlier they made a list of more than 200 books. After a long argument Sunita had on telephone with the Chandrapur S.P., they removed many books and left with 41 books some of which have been mentioned above. They left the place after threatening Sunita that she would be arrested as they had information that she had Maoist links. When contacted, the S.P. assured Sunita that nothing would happen to her and he would personally come to see her next morning. But press circle is abuzz with rumours that Sunita might be arrested tomorrow as police suspect her to be a member of some Maoist outfit.

Friends, Sunita and Daanish Books are a familiar feature of many pro-people programmes or events where they put up their stalls unfailingly. They are publishers of repute with strong pro-people leanings. They publish and display books which are at many times critical of the state policies. Is it a crime to publish and display such books in a democracy like India? That such an action can be taken by the police without any hesitation shows that India is fast turning into a police-state and police feels free to indulge in such unlawful activities in the name of containing terrorism. They can seize books, arrest people and even kill them without any fear of public outrage.
We express our solidarity with Sunita and her colleagues at Daanish Books and condemn this highhandedness of the Chandrapur Police. We demand a statement from the Home Minister, Maharashtra on this incident.

This is an appeal to all of you to condemn this highhandedness of Chandrapur police and a request to all of you write to the S.P., Chandrapur condemning this incident and asking for their apology.

Telephone and Fax numbers of SP and DM of Chandrapur:
SP--Mr. Kadam 07172-255202 Fax: 07172-255800, Mobile: 09822943358
DM--Mr. Sanjay Jaisawal 07172-255300


Apoorvanand, Unv. Of Delhi
Shabnam Hashmi, ANHAD
Harsh Mander, AMAN BIRADARI
Ram Puniyani, AISF, Mumbai
Anand swaroop verma, Freelance journalist and writer
Aditya nigam, Fellow, CSDS
Khurshid anwar, ISD
Nivedita Menon, Unv of Delhi
Purushottam Agrawal, JNU
Dilip Simeon, Fellow, Nehru museum amd Teen Murti Library,
Jamal Kidwai, Aman Trust
Charu Gupta, Fellow, Nehru Memorial Library
Mukul Sharma, Amnesty International, India
Vijay Pratap, Vasudhaiva Kutumbkam
Imtiaz Ahmad, JNU
Poorva Bhardwaj, Nirantar
Jaya Mehta, Sandarbh Kendra, Indore, IPTA
Vineet Tiwari, Gen. Secretary, MP Progressive Writers' Association, Sandarbh Kendra, IPTA
Nasirruddin haider Khan, Journalist, Lucknow
Arshad Ajamal, Social Activist, Patna
Rupesh, , Social Activist, Patna
Kavita Srivastava, PUCL, Jaipur
Premkrishna Sharma, PUCL, New Delhi
Piya Chatterji
Anil Chaudhary, INSAF
Prabhakar Sinha, PUCL
Vijay Singh, Delhi University
Vidya Bhushan Rawat
Rajni Tilak, NACDOR
Harjinder Singh, Hyderabad
Gautam Navlakha
Anil Sadgopal
Hari Lamba
Hari Sharma, SANSAD
D Narasimha Reddy, Hyderabad
Ganesh N Devy, Baroda
Kamla Prashad, National Progressive Writer's Association
Tanvir Akhtar, IPTA
Bhanu Bharati, Playwright and threatre director
Alok Rai, Professor, Deptt of English, DU
Arun Kumar, JNU
Subodh Malakar, JNU
Kamal Nayan Kabra, IIPA
Ashok Vajpeyi, Poet
Vishnu Nagar, Poet and Journalist
Abhishek Srivastava, Freelance Journalist, New Delhi

हफ्ता गुज़रा टीवी पर( 9 -16 अक्टूबर)

टीवी ने हस्तियों के जन्मदिन को अपना जन्मदिन मान लिया है। उनका जन्मदिन वे खुद कम मनाते है टीवी ज्यादा मनाता है। पर पूरा हफ्ता शोक भरी खबरों का ज्यादा रहा। डेंगी और चिकनगुनिया ने देश को हिलाया। मौतें सौ से ज्यादा हो चली है। टीवी पर एक तरह के विजुअल, एम्स के इर्द गिर्द घूमते रहे कैमरे। उधर दलितों को ताकत का तकाजा देने वाले नेता कांशीराम सिधार गए। तमाम कार्यक्रमों में वे नजर आए। जाने के बाद। कहते है सत्ता जाने के बाद पार्टियों में फुटमत बढ जाती है। सो शिवसेना का हाल देखिए। सड़क पर भाई वाले समर्थक भिड़ गए। राज ने कहा देख लेंगे। टीवी पर भिडंत के नजारे लोगों को देखने को मिले। उधर गुजरात हाईकोर्ट ने कहा कि यूसी बनर्जी कमिटी अवैध है। टीवी इसे चलाता रहा। यूएन में भले ही शशि थरूर न पहुच पाएं हो, पर टीवी पर छाए रहने वाले योगगुरू रामदेव गरीबी पर दुनिया को समझा आए। देश में भी गरीबी हटाओ को लेकर सरकार कुनमुनाती रही। टीवी पर इस खबर को गरीब ही मान लिया गया। अमीर देश में बसे भारतीय अपनी बौद्धिकता के नजारे देते रहते है। बुकर मिला। अनीता देसाई को द इन्हेरिटेंस आप लॉस में भारत है और प्रवासी भारतीय भी। जो आजकल टीवी पर कम दिखता है। खैर मौसम प्रवासी भारतीय दिवस के आसपास लहलहाता है। विदेशी चेहरे जरूर दिखे पर वे देश में है। शूटिंग जारी है। कवरेज भी। शूटिंग की कम टक्कर की ज्यादा। आधे आधे घण्टे ये चलता रहा। एक खबर ने एक फैसले को लेकर चल रही बहस को एक दिशा दी। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि फांसी माफी, क्लिमेंसी, को किसी भी धार्मिक आधार या बिना सोचे समझे नहीं दिया जाए। सो अफजल का मामले में बढ़ी सरगर्मियां टीवी पर दिखी। खेल है। क्रिकेट को लेकर टीवी में स्लगों, कार्यक्रम के नामों, में लगा चैम्पियन बनने की जंग छिड़ गई। उधर मैच फिक्सिंग का भूत जाग उठा। दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने साउथ अफ्रीका के खिलाड़ी हर्शल गिब्स दिल्ली पुलिस मुख्यालय में आए। हाई कमिश्नर के साथ। पूछताछ हुई। कहा कि हां मैं शामिल था। पर खेलते रहेंगे। खैर दिल्ली पुलिस ने अभी तक किसी भारतीय खिलाड़ी से पूछताछ की जहमत नहीं उठाई। और न उसक पास किसी खिलाड़ी या सटोरिए के खाते में भेजे गए पैसे के कोई सबूत है। सबूत इसके जरूर मिले कि पुलिस कमिश्नर के दबाव में एक इंस्पेक्टर ने आत्महत्या की। स्युसाइड नोट में लिखा कि कमिश्नर वजह है। वजहें ये भी तलाशी जा रही है सबसे तेज चैनल दूसरे नंबर पर क्यों आ गया। साफ है दर्शक समाचार और खबरे देखना चाहता है हर दस मिनट पर एड नहीं। सो तहलका को लेकर किए गए अपने धमाके के बाद नंबर वन बना चैनल अभी पहले पायदान पर है। कब तक। ये भी प्रचार ही तय करेंगे। खबरे नहीं। क्यों है न!

'सूचक'
soochak@gmail.com

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Wednesday, October 11, 2006

Death of a courageous journalist

Death Of A Courageous Journalist
By Katrina Vanden Heuvel

http://www.countercurrents.org/rus-heuvel111006.htm

Russia and the world have lost a great and courageous journalist. The killing of Anna Politkovskaya on October 7 is horrifying and shocking, but not unexpected.

Anti-Putin Journalist Murdered In Moscow
By Patrick Martin

http://www.countercurrents.org/rus-martin111006.htm

The assassination of Russian journalist Anna Politkovskaya is an ominous warning to working people and intellectuals in Russia and throughout the world of the lengths to which the regime headed by the former KGB agent Vladimir Putin will go to suppress criticism and political opposition

Sunday, October 08, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर( 1 - 8 अक्टूबर)

मौत चाहिए। मौत सस्ती हो चली है। एक परिवार को इच्छामृत्यु चाहिए। राष्ट्रपति से गुहार लगी। टीवी ने कम ही तव्वजो दी। तव्वजो दी, अफजल की फांसी टालने की अर्जी को। वो भी राष्ट्रपति के पास पहुंची। खबर थी। सो खूब चर्चा उठी। सप्ताहांत में एक चैनल ने अच्छी बहस नुमायां की। मौत टीवी पर जारी थी। कही डेंगू से कही चिकनगुनिया से। मरने वालों को अब संख्या में गिना जाने लगा है। पैंतालीस मरे, तीन हजार प्रभावित है। देखिए सबके पास आंकड़ों का मायाजाल है। दर्शक ये सोच ही नहीं पाता कि वो भी इकतालीसवां हो सकता है। बचाव कैसे हो ये जानकारी टीवी कम ही देता है। एक मौत, हत्या थी, के मामले में मारने वाले ने कुबुला कि उसने हत्या की। एक विश्वसनीय चैनल ने वो सीडी चलाई, कि लीजिए ये है सबूत, पर कानून नहीं मानता इसे। वहां को मजिस्ट्रेट के सामने बयान ही धुरी है। सो हत्या करने करने वाला निश्चिंत है, पर इसके पिताजी को मीडिया प्रभाव मे नैतिकता का जामा ओढना पड़ा। सो पद गया। देखिए क्या क्या बिक रहा है। एक दिन टीवी ने फिर दिखाया कि बच्ची बिक रही है। पांच सौ रूपए में। खरीदार भी समाज में है, बिकवाल भी। टीवी भी खरीदता है औऱ मंहगे में बेचता है। खबरें खास भी थी, आम भी। डेंगू से प्रधानमंत्री के दामाद, नाती सब बीमार हो गए। पीएम को देखने जाना पड़ा। पर डेंगू को रोक पाना संभव नहीं दिखा। सावधानी और जानकारी ही बचाव है। पर कश्मीर में सारी सावधानी धरी रह जाती है जब हमला होता है। लालचौक पर हमला हुआ। लोग मरे। हिंसा बढती जा रही है। असम में उल्फा से शांति वार्ता के टूटने के बाद इसके आसार साफ दिख रहे है। टीवी कहता है गांधीगीरी सफल हो रहा है। जरूर। पाकिस्तान एक झापड़ मारकर कहता है कि सबूत दो कि उसका मुंबई बम हादसों में हाथ है। हम दूसरा गाल आगे करते है। आतंकवाद जो खत्म करना है। खत्म हिंसा को भी करना है, जो रह रहकर भड़क उठती है। मैंगलोंर में हिंसा भड़क उठी। वहीं पुरानी बात। वहीं धार्मिक उन्माद। हिंसा जारी है। देखिए धार्मिक भावनाए भी कितती नाजुक होती है। एक शराब कंपनी के एड में हरभजन ने केश खोले तो माफी मांगनी पड़ी। लोकतंत्र भले हो, पर टीवी इसे पहला अधिकार नहीं मानता। वो तो समुदाय की भावनाएं देखता है। और कही न कही विचार सीमित करता है। कहां कद्र है लोकतंत्र में गरीब की। पर लालूजी गरीब रथ चलाए जा रहे है। गरीबी है। दल है। मुद्दे है। पर राजनीति भी है। शिवसेना भाजपा में ठन गई। मामला एक सीट का था। खैर टीवी चैनलों को लगा कि मामला दहकेगा। पर जल्द सिमट गया। खैर इन सबके बीच हम एक सालगिरह धूमधाम से मनी। भारतीय वासुसेना ने पिचहत्तर साल पूरे किए। टीवी पर अच्छे दृश्य दिखेष। गर्व हुआ। लोकतंत्र पर।

'सूचक'
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Wednesday, October 04, 2006

Musharraf hot favourite of Indian News Channels

General Pervez Musharraf makes headlines far more in India than Dr. Manmohan Singh and
perhaps as much as he makes in his own country. In the last week of September, between 21
and 28th, Pakistan President Prevez Musharraf got three times more time on primetime evening news bulletins of Delhi based Hindi news channels than the India Prime Minister Dr. Manmohan Singh got during the period, according to a CMS Media Lab analysis.

It was the release of General Pervez Musharraf’s book on September 25th which prompted such an extensive coverage in the news media. What is more, most of this television coverage is not only from USA but include extensive discussion in India and interviews on Musharraf and his book.

Between September 21 and 28, six Hindi news channels of Delhi devoted 378 minutes of their
evening primetime news bulletins for General Musharraf against 114 minutes they devoted for
covering Dr. Manmohan Singh. No Indian Prime Minister for sure would have ever got such a
coverage in Pakistan news media as Musharraf often gets in India.

The news channels covered are DD News, NDTV India, Zee News, Sahara Samay, Star News
and Aaj Tak.

More specifically, Musharraf’s book release on 25th September and discussion on it occupied
277 minutes of the bulletins of these six Hindi News channels. Even before the book release, on
September 21, 22, 23 and 24 Musharraf got a coverage of 102 minutes in the evening primetime bulletins of these six Hindi news channels. This included General Musharraf’s meeting with Dr.
Manmohan Signh in Havana, Musharraf’s meet with US President Bush.

Between 21 and 28 September NDTV devoted 164 minutes for President Musharraf in its
evening primetime bulletins against four minutes it devoted for Dr. Manmohan Singh in the
same bulletins.

Doordarshan news channels, on the other, devoted 94 minutes for Dr. Manmohan Singh against
35 minutes it devoted for Pakistan President Musharraf during the same days and same time
bulletins.

On an average Pakistan’s President got ten minutes per channel of primetime coverage a day
during this week in the news bulletins on these news channels - against hardly three minutes a
day per channel Prime Minister Dr.Manmohan Singh got. That General Musharraf is a favourite of India news media is evident from the coverage he gets from the mainline English newspapers too. On the other, Prime Minister Dr. Manmohan Singh gets low key coverage in news bulletins is perhaps not a surprise.

On September 26 Dr. Manmohan Singh had his birthday. So also the veteran film actor Dev
Anand. On 26th September Dev Anand got a coverage of 34 minutes in all in the primetime
evening bulletins of six Hindi news channels against two minutes and 30 seconds coverage Dr.
Manmohan Singh got on the same channels in the same bulletins.

NDTV devoted 24 minutes on 26 September in its evening primetime news bulletins on Dev
Anand’s birthday. It had no coverage what so ever on Dr. Manmohan Singh’s birthday in the
primetime news bulletins of the evening.

Doordarshan News devoted one minute and 50 second for covering Dr.Manmohan Singh
birthday against 30 seconds it devoted for Dev Anand’s birthday on September 26th in its
primetime evening news bulletins. Zee News had 30 seconds for Dr. Manmohan Singh’s
birthday against 7 minutes for Dev Anand’s birthday on 26 September.
Interestingly, both Aaj Tak and Star News did not cover either of these birthdays in their evening primetime news bulletins.

CMS Media Lab monitors and analysis news bulletins of prime national channels and some
regional channels every day.

Media Lab
Centre for Media Studies

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Saturday, September 30, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर ( 23-30 सितम्बर )

टीवी को क्या चाहिए। खबर, जो तहलका मचा सके, लीजिए तहलका ने खुद ही खोला इस राज़ को कि जेसिका लाल हत्याकांड में गवाह मजबूर है। जानते है। पर जान भी तो है। सनसनी जैसी खबर नहीं थी ये। पर न्याय की राह में एक रोड़ा जरूर दिखा गई। रोड़ा तो भारत पाकिस्तान के बीच भी चल रहा था, भई मुशर्रफ साहब ने किताब लिखी, स्वीकार किया कि पाक सेना ने कारगिल में पाक काम किया। भई शाबासी के काबिल है पाक सेना। और जनरल मुशर्रफ भी। आगरा में वे खुद और वाजपेयी जी के शर्मसार होने की बात कह गए। और तो और भारत के अणुबम की दम ये कहकर निकाल दी कि इसमें पाक का हाथ है। खबर तनी। लगा कि किताब नहीं फिल्म आने वाली है। हीरो जनरल, विलेन भारत। विलेन को दिल्ली सरकार भी हो चली। तोड़ती है, सील करती है और कोर्ट में अधिसूचनाएं देती है। जनता टूटती है। कोर्ट ने दशहरी दीपावली को लेकर राहत दी। टीवी पर हथौड़े मारते एंकर कुछ त्यौहारी होते नजर आए। अरे भई धूम तो दुर्गापूजा की भी टीवी पर खूब रही। कोलकाता की दुर्गोपूजा के नजारे हर टीवी चैनल पर पसरे रहे। नजारे राम और रावण के भी थे, पर टीवी ने इसे रासलीला से जोड़ दिया इस बार। जमाना रासरंग का जो है। रामलीलाएं हो रही है। शहरों में। भीड़ जोरदार होती है। मर्यादा राम की, रावण का हठ, सीता की शपथ और जनता की आवाज। बोलो सियापति राम चंद्र की जय। पर बीच बीच में कजरारे कजरारे तेरे कारे कारे नैना बज उठता है। जनता को फर्क नहीं पड़ता। वैसे भी बच्चे टीवी चलाकर पढ़ते है, आण्टियां किचन में से धारावाहिकों पर रोती है। और पुरूष अखबार को साथ टीवी देखने लगा है। कुछ मर रहा है। वैसे वीकेंड पर एक लाइव सुसाइड़ भी टीवी पर दिखा। वजह बेफिजूल का तनाव था। तनाव तो था ही कि किस तरह मरता है एक आदमी टीवी पर। सजा हो रही है, किस्तों में। तेरह साल बाद मुंबई बम धमाकों के गुनहगारों को सजा भी टीवी पर हो रही है। आज फलां को उम्रकैद, फलां को इतने साल, और फलां रिहा। सब टीवी पर कहते है निर्दोष है। जनता जानती है। सजा यूं ही नहीं मिलती। कैदी नम्बर ११७ संजय दत्त को फैसला सुनने में अभी देर है। और टीवी को उसी का बेसब्री से इंतजार। एक सजा और हो गई, मोनिका बेदी को। पांच साल। जितने दिन पर्दे पर न बीते, उससे ज्यादा टीवी पर वो छाई रहीं। देखना है कि मीडिया ट्राएल से कितना नफा नुकसान समाज और असामाजिक तत्वों को होता है। ये जारी है। कभी स्मैकियों के लिए, कभी हत्यारों के लिए, तो कभी न्याय की आस में जूझने वाले एक्टेविस्टों के लिए। प्रियदर्शिनी मट्टू मामले में सुनवाई पूरी हो चुकी है। अब फैसला आएगा। जेसिका मामले भी मोड़ आते जा रहे है। देखना है टीवी पर अब इस हफ्ते किसे सजा हो ती है और किसे न्याय मिलता है।

सूचक
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Friday, September 22, 2006

Letter To Rajdeep Sardesai...

To,

Shri Rajdeep Sardesai,
IBN-7 Channel,
New Delhi.


Subject: IBN-7 Channel’s 10 p.m. news on September 5, 2006 regarding Nepal Maoist’s plans to attack India.


Sir,

Your channel carried in its news at 10 p.m. on September 5, 2006 a news item which purported to show how Nepal’s Maoists were preparing to attack India. In this connection the reporter accused the Indian government for their careless attitude. The report carried two maps which were used to suggest that these maps issued by the Maoists show Almora, Haridwar, Pilibhit etc. towns as part of Nepal and Maoists are shown as saying that “if India does not return our land then there will be war.” All this, according to your reporter, points towards the “Greater Nepal” plan of the Nepal Maoists.

Our objections are following:

1. Both the maps show the situation existing before 1815-16 i.e. prior to Sugauli Treaty signed between the Rana rulers of Nepal and the then British colonialists. As a result, a large part of Nepal became part of British India. It was the Gorkhaland movement led by Subhash Ghising that the GNLF gave a call for “Greater Nepal” and their map showed Kedarnath, Badrinath, Gangtok, Dehradun, Haridwar, Pilibhit, Nainital to Darjeeling as belonging to Nepal. The same map was shown by IBN-7 as being that of Nepal Maoists thus deliberately misreporting and feeding false information to the public which watches your programme.

2. Just two months back CPN(Maoist) chairperson Prachanda in his statement as well as interviews has proposed reduction in Nepal’s army from nearly a lakh to 20,000. He has argued that while Nepal can only be attacked by India or China. However, Nepal’s military strength is not such that it can defend Nepal. Therefore, there is no need to maintain such a huge army for a small country. And that, 20,000 troops are sufficient to meet any emergency. Therefore, for your channel to show the parade of PLA and present it as a preparation for war is ridiculous.

3. In the last more than a decade since Maoists began their “peoples war”, no document of the Maoists even hint at any plan for “Greater Nepal”. Thus it’s still a mystery why your channel contends that Maoists in Nepal are preparing for war as pasrt of its “Greater Nepal” plan.

We request you to inquire into this matter because telecasting news without basis or on make beleive evidence not only effects credibility of your news channel but also has the potential of sowing seeds of suspicion about neighbouring country and/or embitter public perceptions.


Anand Swaroop Verma
Gautam Navlakha

Wednesday, September 20, 2006

COBRAPOST STINGED!!!

Not a long time...just last Saturday when we saw the first episode of BENAKAB on Star News made by Aniruddha Bahal's Cobrapost. The sting of the marketed Fatwas in Devband. The name cobrapost suggests the main job of the group...STING OPERATIONS. Something very revealing. But something more has been revealed of Cobrapost now which has raised the question that is there any mechanism to check whether these stings are authentic...? Think...

Just to cite the incident...very fresh in Cobrapost. This was a forgery in the name of sting operation which got caught internally and the story was dropped...the reporter was sacked. Let's imagine of the situation if the forgery had not been caught...then we would have seen a famous Chambal dacoit interviewed live by the reporter in the BENAKAB only. Then, we would have relied upon a forged and planted story of which the group's Editor-in-Chief also was not responsible and aware of...as he has great confidence upon his reporters.

The reporter went to Chambal and interviewed a dacoit. Some famous one...the name is not known as yet...reporter managed to make a local man look as that dacoit by covering him with a blanket and doing all the make-ups required to look like a seasoned bandit. Coming back to his office in Noida, when he showed the tape to the senior, he got caught...whatever the reason...I don't know. Every criminal leaves some mark of his crime...the same was the case with him.
He is now out. But this case has stinged the Cobrapost to the extent that it has revealed the pressure upon the reporters of bringing an investigative story by hook or crook. What the reporter did was journalistically unethical, but has someone tried to analyse this event critically? Are not the reporters in a permanent pressure in a meagre salary of Rs. 8000-15000 p.m. to bring out an investigative story by betting there lives? Is this journalistically ethical?
So, the morale of the story is that...whenever you watch a sting operation on any television, don't just believe it because it bears great names. Great people do great mistakes...but let's not lose our sympathy for the small people like that reporter who was virtually compelled to do the small mistake deliberately...which would have been a complete blunder if great people would have not scanned it.

Tuesday, September 19, 2006

RAPE OF THE MONTH

Some days back, someone came to me straight from Jaunpur district of Uttar Pradesh. With a suitcase in his hands, he was looking desperate. Gave me a reference of one of my older friends in Lucknow, a bhootpoorva journalist who has now joined politics. He had done diploma in media writing from Lucknow University and wanted to work in Jansatta. He asked me to get a learning space in Jansatta as an intern. I wondered why he was desperate in doing internship and not getting a job. Then he told me that he has made his mind to work in his homeplace only in any publication, but just wanted to learn in the Jansatta's atmosphere for some days to get onhand experience of journalism.

It was 1st of September and coincidently, two news items appeared prominently on the front page of Jansatta...one regarding the Indian Institute Of Mass Communication and the other about Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya. This man had some ideal and he was talking of Jansatta as something very revolutionary which everyone has to go through for doing good journalism. I just asked him to read those two news items. Then told him the plantation process of the news. After some hours of brain wash, he thought that I am misleading him. So, I guided him to the newspaper's office and he very simply got internship...not a big deal.

After one week of internship there, he was being asked to leave. He called me and informed of the same. Raised the question that why these people are not ready to teach him? He is ready to learn free of cost...his commitment stems from he fact that he comes from Baghpat daily to Noida...just for learning. When I asked him what he had learnt in a week's time, he got dumb.

Now, the ideal is getting washed out. Some questions... Who creates these ideals? These icons? Why it takes only a week's time to get the long term nutritioned ideals washed out? What is the use of internship for being a journalist? And, last but not the least, will this aspiring journalist ever work in his place with the same commitment and ideal he was carrying two weeks before? These are the questions which must be addressed right now to save these committed aspiring journalists from getting part of the mainstream slaughterhouses...sorry, media houses, where the commitment, the spirit and the dreams are slaughtered like anything...

Now, his voice is completely transformed. He is talking of starting a magazine in Delhi only...using his contacts to get some ads...although, he is not ready to admit he is been slaughtered...his dreams have been raped...the new dream is heavier than the previous one...and I am stucked in my chair spellbound contemplating over this rape of the month...

Abhishek Srivastava

Thursday, September 14, 2006

छिछलेपन में उलझा मीडिया!

मैं सोच में हूं कि इसे क्या मीडिया कहूं, या साहित्य कहूं, या दो सहेलियों के बीच की 'शेयरिंग' कहूं, किसी मनोचिकित्सक की काउंसलिंग कहूं या किसी सोशल मोरल वैल्यू के निर्माताओं की चर्चा कहूं, या फिर मानवीय भावनाओं का मापदण्ड तय करने वाले सामाजिक नेताओं की बहस कहूं....क्या कहूं कुछ समझ में नहीं आता। पिछले दिनों 'सहारा समय' के न्यूज रीडर और एंकर दिनेश गौतम किसी 'लव ट्राएंगल' के पैट्रन से बात कर रहे थे। किस्सा तो कुछ यों था कि किन्ही दो लोंगो के बीच में करार था कि वो शादी करेंगे आपस में। और प्रेमी के किसी अन्य लड़की से भी गहरे 'अंतरंग' संबंध थे। अब हमारे एंकर महोदय दोनों कन्याओं से लगातार बातचीत कर रहे थे। एक से कि क्या उसे नहीं लगता कि ये धोखा है, उसके साथ और लड़किया तो ये सह ही नहीं सकती कि उनके प्रेमी के किसी दूसरे से संबंध हो और दूसरी से कि आपके ही ख़त दिखाई पड़ रहे है, उन सज्जन के तो खत या उनकी तरफ से दिया हुआ तो कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।

किस्सा ए कोताह, ये मामला कुछ जालसाजी के प्रतीत होता था, जिसमें दोनों लड़कियां बुरी तरह इस्तेमाल की हुई प्रतीत हुई। मगर इसका प्रस्तुतिकरण किसी प्रेम त्रिकोण की तरह था, या किसी एक कन्या की वकालत की तरह कि दूसरी उसका पीछा छोड़ दे या फिर वो उस शख्स को सजा दिलाना चाहती है।मैं अचंभित हूं कि मीडिया किस चीज की पड़ताल कर रहा है औऱ उसे हिंदुस्तानी औरतों की सामाजिक और वैयक्तिक स्थिति के बारे में कितनी जानकारी है, और इस खबर की चीरफाड़ से ये भी स्पष्ट नहीं होता कि वो किसके ओर है? वो उस लड़के की वकालत करते भी नजर आते है। एक लड़की को पीड़ित औऱ एक को आरोपी बनाते भी नजर आते है। समझ में ये नहीं आता कि आखिर वो कहना क्या चाहते है।

प्रो. मटुकनाथ की प्रेमकहानी के ऐसा रंग चढा कि अब हर चैनल को नया मसाला मिल गया है। दिक्कत तो तब आती है जब ये भी स्पष्ट नहीं होता कि मीडिया आखिर क्या कहना चाहता है। मीडिया इस प्रेम त्रिकोण को क्या स्त्री शोषण के नजरिए से देख रहा है या फिर क्राइम की तरह....ये उसकी रिपोर्टिंग से कही भी स्पष्ट नहीं हुआ।

सवाल ये भी है कि क्या इन प्रेम कहानियों के अतिरिक्त समाज में कहीं भी कुछ और नहीं घट रहा है, जिस पर बात करना मीडिया की जिम्मेदारी होती है। और जिसे मीडिया बिल्कुल अनदेखी कर रहा है।
आखिर ये मीडिया है या खाला बी और बुलाका बुआ की दोपहर को होने वाली गपशप, जिसमें वो सारे मोहल्ले की खबर रखती और बताती है, जिनका बदला हुआ स्वरूप है आज की किटी पार्टीज।

मीडिया का स्वरूप कुछ ऐसा बदल रहा है कि अब समझदार और संवेदनशील लोग न्यूज चैनल को देखना ही छोड़ देंगे। गंभीर सवालों और लोकत्रांतिक व्यवस्था के पहरेदारों को उनकी जिम्मेदारियों का अहसास दिलाना या उसको खींचने की जगह अब सब घर चौबारों की खबर पाटने बैठ गए है। तो हम इन न्यूज चैनलों को की जगह घर चौबारा क्यों नहीं कहते?

स्वधा
morningpole@gmail.com

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Saturday, September 09, 2006

ये बदलाव की बयार है...

कोई भी बदलाव एक झटके में नहीं होता। न ही कोई विकार अचानक पैदा हो जाता है। हम समय के साथ चल रहे हो तो कोई बुराई नहीं है।हम समय के आगे भाग रहे हो तो कोई दिक्कत नहीं। पर यदि समय को सीमित करने की, विचार को संकुचित करने की, सोच को दिशाहीन करने की कोशिश कोई संस्थान करे तो वक्त बगावत करने लगता है। आवाजें उठने लगती है। तरंगे पैदा होती है। भारतीय टीवी मीडिया में उत्थान का दौर केवल आंकड़ो की जुबानी गाया जा रहा है। नैतिकता और मानवता की बलि देकर। कही वीभत्स विज़ुअल है तो कही किसी के जीवन की गंदगी का बखान। कहीं एजेंडा है तो कही गुणगान। इस दौर में बदलाव की जरूरत है। आपके सहयोग की जरूरत है। हम उन सभी लेखकों को आमंत्रित करते है, जो समकालीन मीडिया का साप्ताहिक, मासिक या घटना विशेष पर विश्लेषण करें। ये समय के अनुकूल होगा कि हम जारी रहें। क्योंकि बदलाव हमें ही करना है। हमारी कोशिश होगी कि बेहतर प्रभावी लेखों को भारती अखबारों में ज्यों का त्यों प्रकाशित करवाएं। ये इनाम भी होगा और उपादेयता भी। इंतजार है आपके बदले हुए रूख का।

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Friday, September 08, 2006

Ye ajeeb sa samay hai!

Ye ek ajeeb sa samai hai! Is daur ki kya baat karen. Udayan SharmaFoundation vikas patrakarita ke liye journalists aur photo journalists ko puraskrit karta hai. Iska bada aayojan hota hai. Mantari se santari tak sab bulaye jate hain. Sabhi formalities ka dhyan rakkha jata hai aur jin chune hue patrakaron ko puraskar diya jata hai unkanaam na to kabhi suna gaya hai aur na hi unka likha kuch kabhi padha hai. Kuch baras pahle sahitya main puraskaron ki rajneeti par sawal uthaye gaye the per aaj lagta hai ki bhang to kunew main hi padi hai. Aaj main phir bahut ashcharya main huin ki ye kya ho raha hai. Magar main kyon ashcharya main huin!

Chandigarh ki HIV workshop main surendra singla ne udayan sharma foundation ko ek lakh ki madad dene ki baat kahi hi thi. Par uska asar itani jaldi dikhai dega ……! Aur us per mazedar baat ye hai ki isi programme main is patrakarita ki natkiyata per bahas bhi hoti hai. Log electronic media ke girte naitikta per charcha bhi karte hain. Iska bhi zikra uthata hai ki samay ke badalne ke sath hi ye saari cheezen badal gayi hain kyonki ab waise log patrkarita main nahin aate…jo aate hain unko thaharne nahin diyajata hai. Lekin jab Alok Tomar us tarah ki baat karte hain to unka thikana jail hota hai. Kya baat hai ki is patrakar samaj ko AlokTomar ko jail se bahar nikalne ka dhyan nahin aata na hi koi unke saath khada hota hai seedhe seedhe. Satta ke aatank ne logon ko itana atankit kar rakha hi ki ab log sach bolne se darne lage hai aur hame expression ke liye blogs ka sahara lena padata hai. Koi hamare swar ko isthan dene ko taiyar nahin hai. Darasal kami waise logon ki nahin hai jo himmat se sach kah saken….kami un logo ne ki hai jinme sach ko sunane ki himmat nahi hai.

Sarkar loktantra ke chauthe paaye par pahara lagane ki taiyari kar rahi hai aur hum sach kahne ke liye inam baanth rahe hain. Is bandarbaant main kiska faida hone wala hai? Ye kis prakar ke lekhan ke liye puraskar diye jaa rahe hain? Kya ye hamari nazar kahin chook rahi hai, kahin seemit ho rahi hai ya hum kisi ek kone se dekh rahe hain ki hame sara kuch dikhai nahin de raha hai. Yahan is charcha ke beech kuch baatein jo kuch alag si hain magar kahani zaroori lagti hain.

Ek to ye ki is prakar ki charchayen hamesha hi bina kisi sarthak parinaam per pahunche khatma ho jati hain. Inke aant me bas karyakrim ke sampann hone ki ghoshana ki jaati hai aur atithiyon ka aabhar prakat kiya jata hai. Halanki bahut se sarthak sawal samne aaye maslan akhir kitane audience ki pasand par TRP rating ki jati hai? Ek arab se upar ki janata ke beech 10 hazar channels hain aurTRP rating ke meetar 5000, to kis aadhar per ye kaha jata hai ki audience Mika aur Rakhi sawant ya kareena aur shahid ke love scene, sting operations ki ashaleelata ko dekhana pasand karti hai ya proffesor matuknath ki prem gatha ko. Ya who kisano ki suside ki charcha ko pasand nahi karti.

Rahul Dev ne ek sarthak sawal yeh bhi uthaya ki is tarah ki charchaoin mein sirf journalists aur editorial department hi shamil hota hai. Use chalane wale mukhya tatva channel ke malik ya marketing ke log nahi. Vo is tarah ki baudhik bahson main shamil nahin hote, unke pass waqt nahin hota. Aur ye sara kuch bazar ka chakkar hai. Khabar bhi bazar hi nirdharit karta hai. So wahi dhak ke teen paat. Darsaal ab sari vyastha bazar se hi nirdharit hoti hai. To usase khabren achooti kaise rah sakti hain, lekin yahan ek sawal phir uthata hai; udayan sharma faoundation jaisi sansthayen jo vikas ki khabron ke liye puraskar deti hai aur jo unka chunav karte hain vo log , vo mahan gyani log 'google world' jaisi khabron per puraskar kaise de detehain jo sahaz hi internet per uplabdh ho jati hain. Akhir vikas ki khabron ke kya mayne hain?

Kya vastav main ye puraskar unhi ko mil rahe hain jo iske asali haqdar hain ya hamari nazar kahin chook rahi hai, kahin seemit ho rahi hai ya hum kisi ek kone se dekh rahe hain ki hame sara kuch dikhai nahin de raha hai.Yahan is charcha ke beech kuch baatein jo kuch alag si hain magar kahani zaroori lagti hain. Kyon adivasi, dalit aur aurat ki asali kahani ki baat karne walon ki qalam ka pakshdhar nahin dikhai deta hai? Akhir ye majara kya hai ? kya voh sare log bhi bazar ke age ghutane tak chuke hain jinke kandhon per wyavastha se ladane ka zimma hai?

Swadha
anujaashukla@gmail.com

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Monday, August 28, 2006

Bihar on television: Same visual - same voiceover.

Hope all media head love this! A new irrational though to a society, that really need attention.The 'Bihar' of India is a territory where the assumption and prejudiceness of common man has similar notions. This time this page shows you the agression about the television, covering them in same stereotypical frame!

http://www.petitiononline.com/biharis/petition.html

To: The Heads of Media Organisations

We are shocked, appalled and dismayed! Bihar and Biharis are offended by the unethical treatment of the mediastories on many national television channels. Media should refrain from stereotyping of Bihar and give up itslaziness which prompts it to cover sensational stories instead ofresearch based stories which improves the quality of life of thepeople. Media has always been biased towards, rich, powerful, urban,upper caste/class and males. Bihar is a poor state and hence the mostgullible target to be used in anyway the media wants to. It is notunusual to find storiesfrom Bihar that are often in extreme bad tasteand most of the time unethical.Please click on the link below to sign in and to register ur protest.

biharisinmedia@yahoogroups.com

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Wednesday, August 16, 2006

Media Murders Manoj: A Reality Check Of The Reality Shows

Yesterday, i.e. on 15th of August, when the whole country was celebrating 60th Independence day in the clouds of security breach and terrorist attacks, one person died just due to the insensitivity of TV media. It was not only insensitivity, rather some visually hungry people compelled Manoj Mishra of Gaya to commit suicide by lending him the towel soaked in the diesel.

The basic story we are aquainted with through today's newspapers and channel coverage is just a tip of the iceberg. The inside story is more horrible and speaks itself the cruelty of the reality shows which have now become a staunch reality of the immatured Indian TV Media. Manoj had given a threat to commit suicide on 15th of August in front of a dairy of which he was a transport contractor.He never thought that this melodrama just for the sake of getting paid Rs. 2 Lakhs from the dairy which was due on it would result in his unwanted untimely death.

The first attempt of suicide went in vain...Manoj failed as he was shivering from fear of death...a reporter and a cameraman commented on this...Diesel Nakli baa kaa...(Is the diesel adulterated?)...(This is the the part of the unedited visual which was sent to the Channel's office in Noida.) After that, Manoj was sure that no one will be coming to his rescue, but on the contrary media wanted that he commits suicide to make a great contradictory news on the eve of Independence Day. Then the reporter asked cameraman to take the shots...Shot le... as manoj tried for the second time. And the story was now complete.

Although the name of the channel has not been made public...the name of the reporter and cameraman is being kept confidential by the police inspite of having lodged an FIR against them...it is in the the interest of the public domain to make this information available. It was Sahara TV and the reporter was some Mrityunjay...

Star News criticised this action of the reporter and cameraman. A Question must be asked at this point to the media groups which are criticising this whole episode...Are you not the partners in crime? Who is responsible for making the love story of Matuknath and Julie a hype in the public? And to tell you more, this most popular reality show coverage in the last few months resulted in the suspension of the Sahara TV's Patna reporter just because he was late in giving the news and Star breaked this news. This was the same pressure which compelled the reporter and cameraman of Gaya to provoke Manoj to put himself on pire.

So who is responsible for this death? A channel? Media's recruitment policy? Breaking News Mania? Reality Show pressure? sellability of visuals? And who has the moral ground for criticising this whole event when we are also consciously or unconsciously a part of the breaking news syndrome?

We know better that people's memory is short lived and they forget a crime as soon as another crime is commited. At this point, it reminds me of the sentence which Ifthikhar Gilani of Kashmir Times spoke at the release of his book "My days in prison" a few days back in the India Habitat Centre..."We write so casually without thinking, but people rely on the written word as if it is the God's verdict...".

Both the things are true...people believe in the media's words, visuals...but they forget also. Do we think that just due to this forgetfulness, we can do anything we want in the name of showing truth? This is not a new question, but must be again addressed in the wake of Manoj's death. Let's ponder for a while....


Abhishek Srivastava