Friday, May 25, 2007

अब मीडिया नाचेगी आपके इशारों पर

एक ऐसी पहल जिसका स्वागत सबको करना चाहिए। हमें खुशी है कि ये पहल एक ऐसे संस्थान ने की है, जो मीडिया को बरसो से दशा दिशा दिखाता आ रहा है।....मीडियायुग
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पिछले १६ वर्षों से सीएमएस मीडिया लैब मीडिया पर कड़ी निगाह रखे हुए है। समय-समय पर इस भटकती मीडिया को रास्ता भी दिखाता रहा है।

ऐसा देखा गया है कि आम जनता मीडिया के क्रियाकलापों से अच्छी तरह से वाकिफ़ नहीं है। चूँकि मीडिया प्रत्येक व्यक्ति के आचार-विचार-व्यवहार को प्रभावित करता है, इसलिए मीडिया सही रास्ते पर चले, यह अपरिहार्य आवश्यकता बन जाती है। यह ज़रूरी हो जाता है कि लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को कम से कम जनता ही चलाए। इसमें राजनैतिक हस्तक्षेप कम हों। क्या दिखाया जाना ज़रूरी है, क्या गैरज़रूरी, यह जनता ख़ुद तय करे।

इसलिए हम यह सार्थक पहल करने जा रहे हैं। हम आपके समक्ष प्रत्येक सप्ताह मीडिया कवरेज़ पर अपना विश्लेषण लेकर उपस्थित होने वाले हैं। हम अब केवल यह बताएँगें कि मीडिया क्या कर रहा है, दिशा निर्देश आप देंगे। हम मात्र यह बताएंगे कि क्रिकेट पर इतना टाइम दिया गया, आप तय करेंगे कि और कौन-कौन से खेलों पर कवरेज़ ज़रूरी है। हम सिर्फ़ यह बताएँगे कि फलाँ ख़बर पिछले हफ़्ते एक्सक्ल्यूसीव ख़बर थी, अब आपको सोचना है कि क्या उसे ही एक्सक्ल्यूसीव ख़बर होनी चाहिए थी।

इसके लिए हम एक प्रतियोगिता का भी आयोजन करने जा रहे हैं। प्रत्येक माह की शुरूआत में हम समसामयिक मीडिया आचरण पर आपका विश्लेषण आमंत्रित करेंगे जोकि मौज़ूदा मीडिया का समीक्षा होगा। हमारे साप्ताहिक विश्लेषण इस काम के लिए आपका कच्चा माल होंगे।

१) प्रत्येक प्रतिभागी हिन्दी या अंग्रेज़ी में से किसी भी भाषा में या दोनों भाषाओं में अपना विश्लेषण लिखकर cmsmedialab@gmail.com पर प्रेषित करेगा।

( विश्लेषण का माध्यम कोई भी विधा हो सकती है- कहानी, कविता, निबंध, रिपोर्ट, आलोचना इत्यादि।)

२) हिन्दी की प्रविष्टियों को यूनिकोड में टंकित होना आवश्यक है।

३) प्रविष्टियाँ मौलिक हों।

४) अधिकतम शब्द सीमा ४०० है।

५) प्रत्येक माह ४ सर्वश्रेष्ठ प्रविष्टियों के लेखकों को सीएमएम मीडिया लैब द्वारा पुरस्कृत किया जायेगा और उनकी प्रविष्टियों को महीने के अलग-अलग दिनों पर प्रकाशित किया जायेगा।

६) माह की सर्वश्रेष्ठ प्रविष्टि का पुरस्कार भी दिया जायेगा।

७) इस प्रतियोगिता का आयोजन जुलाई माह के प्रथम सप्ताह से आरम्भ होगा।

८) साल भर के पुरस्कृत विश्लेषणों को मीडिया के वरिष्ठ विश्लेषकों के समक्ष रखकर सीएमएस मीडिया विश्लेषक चुना जाएगा और पुरस्कार दिया जायेगा।

तो बस गड़ाएँ रहिए नज़रें मीडिया पर, क्योंकि देश को इसकी ज़रूरत है।

साभार - www.cmsmedialab.blogspot.com
www.cmsindia.org


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THE RISE OF COMMUNITY RADIO IN INDIA (Part 1)

Radio, an audio mass communication tool has become dominant in shaping thoughts and practices. Be it FM or community radio. In nepal there are thousands of Radio channels, delivering local issues a voice. If you are interested in Community Radio, then these links and internet broadcast can make you happy........


THE RISE OF COMMUNITY RADIO IN INDIA (Part 1)

Broadcast originally on
http://www.ckut.ca/

This 1-hour broadcast focuses on the rise of community radio in India.
Since independence in 1947, and based on regulations that date to the
colonial British period, India - a country of one-billion people popularly
described as the "world's largest democracy" - has not had licensed
community radio stations. This radio documentary is part of what will be
an ongoing series about about the rise of community radio in India as part
of news programming at CKUT in the coming year. In episode 1, on the rise
of community radio in India, we hear from various activists involved in
the community radio sector. Click here to listen on-line!

http://www.radio4all.net/proginfo.php?id=22768

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Monday, May 07, 2007

टीवी के तीन चेहरे

दहेज हत्या, बच्चों की जान की चिंता और आज का दिन जानिए। बीते दिनों में टीवी पर ये तीनों ही छाए रहे। दिल्ली और आसपास के इलाकों में दहेज को लेकर एक अजब सा माहौल पनपता जा रहा है। कई कई सालों से शादीशुदा जोड़े अपनी शादी को तोड़ने पर आ गए है। क्यों। जीवन के तनावों को दूर करने का माध्यम अब शहर को लोग पैसे को मान चुके है। ज्यादा पैसा कम परेशानी। किसी के पास चार पहिया नहीं है, तो किसी को धंधे के लिए और पैसे चाहिए। सो जब उन्हे अपने आसपास से पैसा नहीं मिलता, तो वे समाज की एक ऐसी कुरीति का दामन थामते है, जिससे वे परिवार को दांव पर लगा रहे है। टीवी पर दहेज अत्याचार से जुड़ी खबरे आई, लेकिन किसी में भी गहनता से ये नहीं दिखाया गया कि असली वजह क्या है। पर जिस एक वजह को टीवी ने दिल से छुआ, वो रही देश भर में इलाज की वेदी पर सिसक रहे बच्चों की। कही किसी के दिल में छेद है, तो कही किसी को कैंसर। कही कोई अनाथ रेल के डिब्बे में पड़ा मिला, तो कही उसे अपनाने की ललक समाज में दिखी। कुल मिलाकर इस सारी पेशकश में एक चरित्र तो साफ हो गया कि भारत में भावनाए अभी भी बहती है। टीवी ने कम ही बार इसे समझा और दिखाया है। लेकिन इससे गाहे बगाहे भला उनका हो जाता है, जो सचमुच किसी की मदद करना चाहते है, या हैसियत में है, लेकिन शुरू कहां से करें, ये नहीं जानते। कुल मिलाजुलाकर इस सारे फसाने ने एक दर्द को हवा दी है, कि बिलखते बच्चों का कोई तो खैर करें। टीआरपी की चाह के बावजूद भी ये सराहनीय रहा। और भविष्यगामी भी। भविष्य बांचने वालों की तो चांदी हो चली है। हर चैनल पर वे बहस रहे है। आज आपका दिन रहेगा, ऐसा, वैसा, कैसा। लेकिन ज्योतिष और तमाम भविष्य बांचने वाली विधाओं को स्टूडियों की चांदनी में पेशकर टीवी चैनल देश को किस ओर ले जा रहे है, पता नहीं। क्या देश की आधुनिक पीढ़ी इसे देखना चाहती है, या एक प्रोफेशनल अपने काम को अब राशि और रत्नों से आंकने लगे। क्या देश की राजनीति अब ग्रह नक्छत्र औऱ कुंडली के हिसाब से अपनी जननीतियां तय करें। या किसी घर में क्या पके, ये भी अब राशिवक्ता बताएंगे। बुरा है। बहकाव है। आप किसी भी ग्यान पर भरोसा कर सकते है, अंधविश्वास नहीं। देश को आगे ले जाने वाली खबरों की जरूरत है। देश को ये देखना है कि सुबह सवेरे कैसे प्रकाश जीवन को बदल रहा है। कैसे ग्रह नक्छत्र नहीं। मैं अतिश्योक्ति नहीं बांच रहा हूं। आप आनलाइन या एसएमएस सर्वे करा लीजिए। नतीजे आ जाएंगे। वैसे हां ये जरूर सत्य है कि ऐसे तमाशे चलते रहे तो आने वाले दिनों में तमाम समाचार चैनल विरोधियों को पछाड़ने के लिए यग्य, मंत्रोच्चार आदि कराने लगे। ऊं आजतकाय नम, ऊं स्टार न्यूजाय नम आदि आदि। वैसे मजाक ही सही, पर क्या किसी चैनल से किसी खबर को दिखाने के लिए किसी ज्योतिषाचार्य से पूछा कभी। नहीं न। तो क्या जरूरत है, जनता को हर दिन सचेत करने की। ऐसे देश में जहां कर्मण्येवाधिकारस्ते जपा जाता हो, वहां रोजाना कर्म से ज्यादा भविष्य को बताना घातक ही होगा। वैसे टीवी को जरूर आ पड़ी है इसकी जरूरत। यानि जल्द ही आपको चैनल विशेषग्य पंडित मिलने लगेंगे।

सूचक
soochak@gmail.com

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Wednesday, May 02, 2007

टीवी की भाषा क्या हो।

टीवी की भाषा क्या हो। ये सवाल अब टेलेविस्टा या बेलटेक जैसा है। किसी पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट टीवी में रंगीन फिल्म देखने जैसा। पर सवाल बड़ा है। क्यूं। क्योंकि टेलीविजन आडियो वीडियो जनसंचार माध्यम है। या इसलिए कि सुनकर ही समझने की कमजोर स्थिति में आप आ पहुंचे है। विजुअल मीडिया के तौर पर टेलीविजन की ताकत दृश्य होने चाहिए और आडियो-वीडियो के तौर पर दोनों। आज भी सभी आडियो-वीडियो माध्यमों- विग्यापन, फिल्म- में स्क्रिप्ट की बड़ी भूमिका बाकी है। तो टीवी के साथ क्या हुआ। क्या टीवी की कोई भाषा बची है। या कहें कि कभी बनी ही नहीं। भाषा का विकास टीवी में प्रिंट मीडिया की बड़ी देन है। लेकिन अब ये विजुअल से प्रिंट की ओर बह रही है। आप कहेंगे कि विरोधाभास सा है। लेकिन जिस भी भाषाई आडंबर को टीवी ने गढ़ा है, वो आज आपको बोलचाल, लेखनी में नजर आने लगी है। दरअसल जितनी खींचतान प्रिंट में भाषा और शैली को लेकर हुई है, उसका निचोड़ टीवी के पास है। सरल, सपाट और सीधी भाषा। आपसी संवाद की भाषा। आम बोलचाल की भाषा। लेकिन यहीं से टीवी ने खुद को सीमाओं में कैद कर लिया। और एकरेखीय संस्कृति और धरोहर को बार बार गढ़ने को मजबूर भी। आज टीवी के पास विरासत जैसा कुछ नहीं है। कम से कम भाषा तो नहीं। अगर दशकों से भी देंखे तो किसी दशक की देन कृषि दर्शन है, तो किसी की बुनियाद। और इन सबकी एक तरह की भाषा थी। और अगर संस्कृति से देंखे तो रामायण और महाभारत। और अगर शैली से देंखे तो आधे घण्टे का आजतक। तो क्या चैनलों की बहुतायत से भाषा मर रही है। या कहें कि रिपीट दर रिपीट हो रही है। नहीं। आज आपके पास पचासों सिर पैर वाले धारावाहिक है। सैकड़ों खबरों से भरे समाचार चैनल है। समाज पर भाषाई व्यंग्य करते टीवी हंसोड़िए है। और हर दिन भाषा की खिचड़ी बनाने वाले विग्यापन मौजूद है। तो विविधता क्यों नहीं दिखता है। सारे मनोरंजन चैनल एक से, सारे समाचार चैनल एक से, और सारे विग्यापन प्रभाव क्यों नहीं छोड़ते। आप रिमोट पर ऊँगलियां रोक नहीं पाते। दरअसल टीवी की क्रिएटिविटी खत्म हो रही है। आपके पास विचारों का खालीपन आ गया है। और जो विचार जिंदा है उनकी भाषा तय हो चुकी है।जो भी नकल आप परोस रहे हैं उसमें आपकी अक्ल भले ही अलग हो, पर भाषा वहीं है, जो असल ने अपनाई हुई है।

तो अलग कैसे पैदा हो। और क्या भाषा के स्तर पर बदलाव लाकर टीवी में क्रियात्मकता सुधारी जा सकती है। शायद हां। ये छायावाद से आधुनिक युग की ओर बढ़ने जैसा है। (अर्थ न लें, भाव स्वीकारें)

सोचिए किसी खड़ी बोली हिंदी चैनल में आप एक आंचलिक प्रस्तुति या इलक से किस कर मोहित हो जाते है। हिंदी की खड़ी बोली होना कर्म जैसा है , मर्म जैसा नहीं। उसका रूखापन किसी भी प्रस्तुति को सीमित कर देता है।

तो बात सरल सपाट या सीधी की नहीं है। बात भाषा को करवट और खोलने की है। भाषा को दृश्य सो जोड़कर दिखाना एक कला है, विग्यान है, कोशिश है। लेकिन दृश्य को पैमानों में बांधने की भूल करना भाषा के साथ खिलवाड़ है।

टीवी की लोकप्रियता के बदलते मानकों के दौर में निश्चित ही भाषा केवल संवाद का माध्यम है। आज व्यक्ति बड़ा है, संस्थान बड़ा है। और उत्पाद की कामत बाजार से है। ऐसे में टीवी के कदम अगर भाषा के फैलाव की ओर बढ़े, तो उसे एक ऐसी सुविधा होगी, जिसका इंतजार उसे कई दशकों से रहा है।


सूचक
soochak@gmail.com

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