Tuesday, October 31, 2006

विग्यापन के बीच पिसती खबर

एक आम दर्शक कभी कभी ये सोचता है कि ये जो पचासों खबरिया चैनल चल रहे है, इनकी आमदनी का ज़रिया क्या है। थोड़ा जागरूक देखने वाला ये जानता है कि विग्यापन के जरिए ये चैनल आमदनी करते है। लेकिन ये आमदनी कितनी होती है, खर्चे कितने होते है, ये सारे सवाल मीडिया में काम करने वालों को भी कभी कभी सोचने पड़ते है। आप जिस पेशे में हो उसके बारे में जितना जानते है, उतना वो आपके लिए फायदेमंद हो जाता है। अब केवल हिंदी में चलने वाले चैनलों की सूची ले लें तो आजतक, ज़ी न्यूज, स्टार न्यूज़, एनडीटीवी, आईबीएन-7, एसवन वो ऱाष्ट्रीय चैनल है, जो रोजाना आप तक खबरें पहुंचाते है। पर केवल खबरें ही नहीं, विभिन्न उत्पादों के प्रचार भी। वैसे कुछ विश्लेषकों का ये मानना भी है कि प्रचार भी तो सूचना और जानकारी है। ठीक। लेकिन सूचना के संजाल में कितनी जानकारी है और कितना 'कूड़ा-कचरा' ये कौन तय कर रहा है। 'आप' या उत्पाद बनाने वाली कंपनी या टीवी चैनल चलाने वाले जर्नलिस्ट। ये जानना कठिन है। और इसपर सीधे उतरना कठिन है। क्योकि समाचार की दुनिया खबरें भले ही सीधे देता हो पर वो अंदरूनी तौर पर बहुत ही उलझा हुआ है। खबर संवाददाता से शुरू होकर आप तक पहुचने में कम से कम दस स्टेज पार करती है, ऐसे में खबर में ऐसे बदलाव आते है जिन्हे आपका सक्रिय दिमाग नहीं बल्कि अवचेतन दिमाग पकड़ता है। खबर भले ही राजनीतिक हो, पर उसमें दिखाए गए विजुअल, कही गई बात और न कही गई बात के असर बड़े अनोखे होते है। जैसे भले ई-मेल के जरिए प्रधानमंत्री को जान से मारने की धमकी दी गई हो, पर इस खबर को जितना तूल दिया जाता है, उससे ये उतनी ही स्वीकायर्ता पाता जाता है और व्यवहार बन जाता है। खैर ये समाजशास्त्रीय विश्लेषण का विषय है। सो इसकी बात कभी और। पर विग्यापन का क्या। वे तो आपकी जिंदगी का वो हिस्सा हो चले है जो आपको हर खरीदारी में प्रभावित करते है। कैसे। जैसे ‍टूथपेस्ट कौन सा, साबुन कौन सास और शर्ट कौन सी। ये सब आप कैसे तय करते है। जाहिर है पिता का बताया तो धुंधला सा याद होगा, सो टीवी रोजाना याद दिलाता है। यानि एड न हो तो खरीदारी मुश्किल होगी। और चैनलो का चलना भी। गौर करिए। ये वो ताजा आंकड़े है जो तस्वार साफ करते है। कौन कितनी खबर और कितना प्रचार दिखा रहा है।

चैनल खबर(%) प्रचार(%)

आजतक - 47 53
स्टार न्यूज - 65 35
जी न्यूज - 69 31
एनडीटीवी - 70 30

ये तो कुछ खास चैनलों के खास आकड़े है जो कहानी को बड़े कैनवास में दिखाते है। पर ज्यादा बड़ा हकीकत ये है कि ये सारे खबरिया चैनल जिस भी मात्रा में खबरें चलाते इसमें भी क्या चलता है। सारे न्यूज चैनलों पर चलने वाली खबरों में साठ फीसदी ऐसा होता जो ट्राइवियल या पेरिफेरल माना जा सकता है। यानि ऐसी खबरें जो किसी के काम न आएं। यानि ऐसी सूचना जो इस्तेमाल न की जा सके। यानि खबरिया चैनलों पर फिजूल की खबरें। लगता है कुछ। सच यही है। न यकीन हो तो टीवी खोल लीजिए और एक घण्टा देखने के बाद याद कीजिए कि क्या क्या देखा और जाना। वैसे विग्यापन जरूर याद रह जाता है। क्यों। क्योकि वो आपकी जरूरत के अनुसार बुना और पेश किया जाता है। शायद टीवी को ये समझना बाकी है।

'सूचक'
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Sunday, October 29, 2006

Why won't the media cover this outrageous October Surprise?



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Joshua Holland

Earlier in the week I wrote about the likely death sentence to be handed down in Saddam Hussein's show trial just two days before the mid-term elections. If you missed it, read it here.

When I wrote that, I didn't know for a fact that most observers expected the trial to take far longer. But, according to Scott Horton, an adjunct professor at the Columbia University Law School who has visited Baghdad several times, that does appear to be the case.

According to the Institute for Public Accuracy, Horton said yesterday:

Most observers expected the date would be much later, but it seems to have been moved up. It will be front page news in the papers on Monday -- the day before the election. This is designed to show some progress in Iraq. The American public will see Saddam condemned to death and see it as a positive thing.
When you look at polling figures, there have been three significant spike points. One was the date on which Saddam was captured. The second was the purple fingers election. The third was Zarqawi being killed. Based on those three, it's easy to project that they will get a mild bump out of this.

I'd add that these have been short-lived spikes. Longer than two days, but short-lived.

In my experience, everything that comes out of Baghdad is very carefully prepared for U.S. domestic consumption. … There is a team of American lawyers working as special legal advisers out of the U.S. embassy, who drive the tribunal. They have been involved in preparing the case and overseeing it from the beginning. The trial, which is shown on TV, has mild entertainment value for Iraqis, but they refer to it regularly as an American puppet theater.

Tom Englehardt pointed out in The Nation that the media haven't even taken note of the timing in their coverage. This kind of transparent manipulation of something as important as seeing justice served for the tens of thousands of Iraqis tortured and killed by Hussein for the sake of the GOP's prospects in the mid-term elections is simply outrageous. Reporters should be asking hard questions about it in Washington and in Baghdad -- this should be a major story.

It's a perfect opportunity to dig into the revelations contained in Michael Gordon's Cobra II about how everything done in the "Battle for Baghdad" was carefully scripted for U.S. domestic consumption, and in Rajiv Chandrasekaran's Emerald City about how the Green Zone is awash in Republican political appointees, many of whom have no visible qualifications for their posts beyond party loyalty. If the media were doing their jobs this craven act might back-fire on the Republicans as it should.

Can you take a minute and give me a hand? Beneath the fold are some selected media contacts. A brief, polite note asking them why they're not covering this issue -- why they're not asking the appropriate questions -- would be really helpful. Contact your local media as well. Reference Scott Horton's statement above.

And any members of the press can e-mail me for Horton's contact info.

Tagged as: international law, iraq, saddam hussein, election06

Joshua Holland is a staff writer at Alternet and a regular contributor to The Gadflyer.

Sunday, October 22, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर (17-23 october)

फैसला आ गया। इंसाफ भी मिला। टीवी पर पिछले कई महीनों से बैनरों, पोस्टरों के साथ मशाल जलाते, चिल्लाते पीड़ितो के रिश्तेदारों को दिखाते टीवी कैमरों के सामने जब संवाददाता ये बता रहे तए कि संतोष सिंह को अब सजा मिलेगी तो देखने वाले का मन खुश हुआ होगा। दुखी केवल कैमरो से बचते दोस्त ही दिखे। शरीयत को स्टूडियो से घेरते टीवी चैनलों को तब राहत मिली होगी जब इमराना के ससुर को दस साल की सजा सुनाई गई। कैमरे पर इमराना असमंजस में थी। क्या पति के साथ अब वो रह पाएगी। बहस इस पर कम हुई। दिन था धनतेरस का, सो टीवी पर बाजार और सामान ज्यादा दिखा। ये बिकावली थी। लोग खरीद रह थे, कार, घर, घरेलू उत्पाद और कपड़े। टीवी को उपभेक्ताबाद का पालकीवाली कहा गया। दीवाली थी, सो खरीदारी भारतीय परंपरा रही। इस सबके बीच केवल एक दो चैनलों ने भूख और सूखे से मर रहे परिवारों की दास्तान से शहरी जायका बिगाड़ा! यही सच है। शहर और गांव का अंतर टीवी साफ दिखाता है। अब तो गांव की खबर को एक्सक्लूजिव माना जाना तय हो चला है। उधर शहरों में जी रहा आम आदमी बेचने पर उतारू है। कुछ भी। देश की सिक्योरिटी से जुड़ दस्तावेज भी, एक हवलदार गिरफ्तार हुआ, एक सेना का जवान भी । दोनों के पास खुफिया दस्तावेज थे। हां, खुफिया खबरों, यानि स्टिंग आपरेशन पर जरूर उच्चतम न्यायलय ने आपत्ति जताई। कहा सब पैसे का खेल है। है। पर कैसे मिटेगा भ्रष्टाचार। डरा कर ही सुधारा जा सकता है । कम से कम टीवी तो यही मानता है। एक से एक भायानक स्क्रिप्टें, एक से एक खतरनाक म्यूजिक। स्टिंग के निर्देश को लेकर चैनलों में बेचैनी देखी गई। कुछ ने इसे कर्मकांड मानकर चलाया ही नहीं। कुछ ने दीवाली मानकर खूब चलाया। चलिए खबर दिखी तो ।स्टिंग जारी रहेगे, यो तो तय है। जनता भी सुख लेती है, पर सोचना विषय और तरीके पर है। सारे चैनलों ने दीवाली पर हंसी की ठिठोली दिखी। मानो पूरा भारत खुश है और टीवी दख रहे है। पर फिल्म वाले की नजर टीवी पर जरूर है। डान और जानेमन को लेकर टीवी चनत सरपरस्त रहे। किसी ने डान को भला बताया कि तो किसी ने कहा कि जानेमन ही बेहतर है। और इसे देखने को भारतीय दर्शक विवश। दिशाहीनता है कुछ खबरों को जगह चाहिए। बहस चाहिए पर बहस इस पर होती है कि मर्द को क्या चाहिए? जवाब भी मिला ।पर दिया शहरी भारतीयों के स्वनामधन्य प्रवक्ताओं ने। टीवी पर अंधविश्वास की जगह भी बढ़ती जा रही है। हर दिन आपको कोई न कोई फंतासी कहानी चाशनी के साथ पेश की जाती है। भरपूर वातावरण के सथ । आप भी क्या करें। हमेशा भूत से डरते आए है, सो देखते रहिए चैलन नम्बर बन पर भूत नम्बर वन। खैर दीवाली मुबारक । बाकी मनोरंजन के लिए टीवी तो है ही।

'सूचक'
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Monday, October 16, 2006

An Urgent Appeal!!!

ARE WE LIVING UNDER MARTIAL LAW

Sunita , owner of Danish Books has been summoned by the Chandrapur Police for interrogation today, 16 October 2006 along with Sh. Vijay Vairagade, a local social activist and his 16 year old son who is a minor. The police claim that they have clinching evidence against Sunita which proves beyond doubt that she has Maoist affiliations and is indulged in activities which are subversive in nature. However, the local thana and the police is not ready to part with any information regarding these charges to the lawyers who are there to represent Sunita.

It has been claimed by the police that Sunita belongs to Jehanabad of Bihar and her first husband was killed in police encounter. They also claim that 15% of the literature seized from the stall of the Daanish Book is of offensive nature and supports the politics of the Maoists.

To put the record straight Sunita has no connection with Jehanabad. Her parental family hails from Naugachiya District of Bihar. Actually by establishing a relationship between her and Jehanabad which is known for Naxal politics the MH police want to prove that she is also a naxalite. The police claim about her first husband being killed in police action is also a issue of imagination. Her first husband is a known leftist political activist and is based at Patna and very much alive. She is now married to Shri Dhruva Narayan, a reputed publisher, who has to his credit titles by Noam Chomsky, Samir Amin, Tariq Ali and other nationally and internationally reputed authors. Sunita has been active in student and women's movements and has worked with the National Commission for Women, a statutory body constituted by the Government of India for two years. She has also worked with Books For Change, a subsidiary of the ActionAid India, an international agency .

Sunita is a known publisher and distributor and she visits all major book exhibitions and fairs and put up her stall everywhere. As publisher and distributor gets calls from all kinds of people and they also visit her stalls. Chandrapur being on centre of police action against naxal activities in the region, police use their extraordinary powers to harass anybody. For last few months they have been raiding the houses of social activists and journalists and seizing books and implicating them in false criminal cases. According to reliable sources, the Chandrapur police intends to book Sunita under the Unlawful Activities Prevention Act.

One needs to recall that yesterday on 15 october,2006 in a shocking and bizarre incident the Maharashtra Police, Chandrapur had seized 41 books from the stall of Daanish Books, which were displayed in the book exhibition which is held every year on 15-16 October, on the occasion of the Deeksha Day celebrations to mark the day when Babasaheb Ambedkar embraced Buddhism 50 years ago . The books seized by the police for containing dangerous , anti state material include books like Marathi translation of the Thoughts of Bhagat Singh, Ramdeen Ka Sapna by B.D. Sharma, Jati Vyavastha- Bhartiya Kranti Ki Khasiyat by Vaskar Nandy, Monarchy Vs Democracy by Baburam Bhattarai, Nepali Samargaatha: Maowadi Janyuddha ka Aankhon Dekha Vivaran (The Hindi edition of eminent American Journalist Li Onesto's celebrated book Dispatches from the People's War in Nepal, Translated by Anand Swarup Varma), Daliton par Badhati Jyadatiya aur Unka Krantikari Jawab, Chhapamar Yudhha by Che Guevara and books on Marxism and Leninism and people's struggles. Non of the books seized by the police is banned or declared offensive by any state agencies.

A contingent of nearly 70 armed policemen surrounded the stall of Daanish Books this afternoon and remained there for more than three hours, making a list of books they wanted to seize. Earlier they made a list of more than 200 books. After a long argument Sunita had on telephone with the Chandrapur S.P., they removed many books and left with 41 books some of which have been mentioned above. They left the place after threatening Sunita that she would be arrested as they had information that she had Maoist links. When contacted, the S.P. assured Sunita that nothing would happen to her and he would personally come to see her next morning. But press circle is abuzz with rumours that Sunita might be arrested tomorrow as police suspect her to be a member of some Maoist outfit.

Friends, Sunita and Daanish Books are a familiar feature of many pro-people programmes or events where they put up their stalls unfailingly. They are publishers of repute with strong pro-people leanings. They publish and display books which are at many times critical of the state policies. Is it a crime to publish and display such books in a democracy like India? That such an action can be taken by the police without any hesitation shows that India is fast turning into a police-state and police feels free to indulge in such unlawful activities in the name of containing terrorism. They can seize books, arrest people and even kill them without any fear of public outrage.
We express our solidarity with Sunita and her colleagues at Daanish Books and condemn this highhandedness of the Chandrapur Police. We demand a statement from the Home Minister, Maharashtra on this incident.

This is an appeal to all of you to condemn this highhandedness of Chandrapur police and a request to all of you write to the S.P., Chandrapur condemning this incident and asking for their apology.

Telephone and Fax numbers of SP and DM of Chandrapur:
SP--Mr. Kadam 07172-255202 Fax: 07172-255800, Mobile: 09822943358
DM--Mr. Sanjay Jaisawal 07172-255300


Apoorvanand, Unv. Of Delhi
Shabnam Hashmi, ANHAD
Harsh Mander, AMAN BIRADARI
Ram Puniyani, AISF, Mumbai
Anand swaroop verma, Freelance journalist and writer
Aditya nigam, Fellow, CSDS
Khurshid anwar, ISD
Nivedita Menon, Unv of Delhi
Purushottam Agrawal, JNU
Dilip Simeon, Fellow, Nehru museum amd Teen Murti Library,
Jamal Kidwai, Aman Trust
Charu Gupta, Fellow, Nehru Memorial Library
Mukul Sharma, Amnesty International, India
Vijay Pratap, Vasudhaiva Kutumbkam
Imtiaz Ahmad, JNU
Poorva Bhardwaj, Nirantar
Jaya Mehta, Sandarbh Kendra, Indore, IPTA
Vineet Tiwari, Gen. Secretary, MP Progressive Writers' Association, Sandarbh Kendra, IPTA
Nasirruddin haider Khan, Journalist, Lucknow
Arshad Ajamal, Social Activist, Patna
Rupesh, , Social Activist, Patna
Kavita Srivastava, PUCL, Jaipur
Premkrishna Sharma, PUCL, New Delhi
Piya Chatterji
Anil Chaudhary, INSAF
Prabhakar Sinha, PUCL
Vijay Singh, Delhi University
Vidya Bhushan Rawat
Rajni Tilak, NACDOR
Harjinder Singh, Hyderabad
Gautam Navlakha
Anil Sadgopal
Hari Lamba
Hari Sharma, SANSAD
D Narasimha Reddy, Hyderabad
Ganesh N Devy, Baroda
Kamla Prashad, National Progressive Writer's Association
Tanvir Akhtar, IPTA
Bhanu Bharati, Playwright and threatre director
Alok Rai, Professor, Deptt of English, DU
Arun Kumar, JNU
Subodh Malakar, JNU
Kamal Nayan Kabra, IIPA
Ashok Vajpeyi, Poet
Vishnu Nagar, Poet and Journalist
Abhishek Srivastava, Freelance Journalist, New Delhi

हफ्ता गुज़रा टीवी पर( 9 -16 अक्टूबर)

टीवी ने हस्तियों के जन्मदिन को अपना जन्मदिन मान लिया है। उनका जन्मदिन वे खुद कम मनाते है टीवी ज्यादा मनाता है। पर पूरा हफ्ता शोक भरी खबरों का ज्यादा रहा। डेंगी और चिकनगुनिया ने देश को हिलाया। मौतें सौ से ज्यादा हो चली है। टीवी पर एक तरह के विजुअल, एम्स के इर्द गिर्द घूमते रहे कैमरे। उधर दलितों को ताकत का तकाजा देने वाले नेता कांशीराम सिधार गए। तमाम कार्यक्रमों में वे नजर आए। जाने के बाद। कहते है सत्ता जाने के बाद पार्टियों में फुटमत बढ जाती है। सो शिवसेना का हाल देखिए। सड़क पर भाई वाले समर्थक भिड़ गए। राज ने कहा देख लेंगे। टीवी पर भिडंत के नजारे लोगों को देखने को मिले। उधर गुजरात हाईकोर्ट ने कहा कि यूसी बनर्जी कमिटी अवैध है। टीवी इसे चलाता रहा। यूएन में भले ही शशि थरूर न पहुच पाएं हो, पर टीवी पर छाए रहने वाले योगगुरू रामदेव गरीबी पर दुनिया को समझा आए। देश में भी गरीबी हटाओ को लेकर सरकार कुनमुनाती रही। टीवी पर इस खबर को गरीब ही मान लिया गया। अमीर देश में बसे भारतीय अपनी बौद्धिकता के नजारे देते रहते है। बुकर मिला। अनीता देसाई को द इन्हेरिटेंस आप लॉस में भारत है और प्रवासी भारतीय भी। जो आजकल टीवी पर कम दिखता है। खैर मौसम प्रवासी भारतीय दिवस के आसपास लहलहाता है। विदेशी चेहरे जरूर दिखे पर वे देश में है। शूटिंग जारी है। कवरेज भी। शूटिंग की कम टक्कर की ज्यादा। आधे आधे घण्टे ये चलता रहा। एक खबर ने एक फैसले को लेकर चल रही बहस को एक दिशा दी। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि फांसी माफी, क्लिमेंसी, को किसी भी धार्मिक आधार या बिना सोचे समझे नहीं दिया जाए। सो अफजल का मामले में बढ़ी सरगर्मियां टीवी पर दिखी। खेल है। क्रिकेट को लेकर टीवी में स्लगों, कार्यक्रम के नामों, में लगा चैम्पियन बनने की जंग छिड़ गई। उधर मैच फिक्सिंग का भूत जाग उठा। दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने साउथ अफ्रीका के खिलाड़ी हर्शल गिब्स दिल्ली पुलिस मुख्यालय में आए। हाई कमिश्नर के साथ। पूछताछ हुई। कहा कि हां मैं शामिल था। पर खेलते रहेंगे। खैर दिल्ली पुलिस ने अभी तक किसी भारतीय खिलाड़ी से पूछताछ की जहमत नहीं उठाई। और न उसक पास किसी खिलाड़ी या सटोरिए के खाते में भेजे गए पैसे के कोई सबूत है। सबूत इसके जरूर मिले कि पुलिस कमिश्नर के दबाव में एक इंस्पेक्टर ने आत्महत्या की। स्युसाइड नोट में लिखा कि कमिश्नर वजह है। वजहें ये भी तलाशी जा रही है सबसे तेज चैनल दूसरे नंबर पर क्यों आ गया। साफ है दर्शक समाचार और खबरे देखना चाहता है हर दस मिनट पर एड नहीं। सो तहलका को लेकर किए गए अपने धमाके के बाद नंबर वन बना चैनल अभी पहले पायदान पर है। कब तक। ये भी प्रचार ही तय करेंगे। खबरे नहीं। क्यों है न!

'सूचक'
soochak@gmail.com

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Wednesday, October 11, 2006

Death of a courageous journalist

Death Of A Courageous Journalist
By Katrina Vanden Heuvel

http://www.countercurrents.org/rus-heuvel111006.htm

Russia and the world have lost a great and courageous journalist. The killing of Anna Politkovskaya on October 7 is horrifying and shocking, but not unexpected.

Anti-Putin Journalist Murdered In Moscow
By Patrick Martin

http://www.countercurrents.org/rus-martin111006.htm

The assassination of Russian journalist Anna Politkovskaya is an ominous warning to working people and intellectuals in Russia and throughout the world of the lengths to which the regime headed by the former KGB agent Vladimir Putin will go to suppress criticism and political opposition

Sunday, October 08, 2006

हफ्ता गुजरा टीवी पर( 1 - 8 अक्टूबर)

मौत चाहिए। मौत सस्ती हो चली है। एक परिवार को इच्छामृत्यु चाहिए। राष्ट्रपति से गुहार लगी। टीवी ने कम ही तव्वजो दी। तव्वजो दी, अफजल की फांसी टालने की अर्जी को। वो भी राष्ट्रपति के पास पहुंची। खबर थी। सो खूब चर्चा उठी। सप्ताहांत में एक चैनल ने अच्छी बहस नुमायां की। मौत टीवी पर जारी थी। कही डेंगू से कही चिकनगुनिया से। मरने वालों को अब संख्या में गिना जाने लगा है। पैंतालीस मरे, तीन हजार प्रभावित है। देखिए सबके पास आंकड़ों का मायाजाल है। दर्शक ये सोच ही नहीं पाता कि वो भी इकतालीसवां हो सकता है। बचाव कैसे हो ये जानकारी टीवी कम ही देता है। एक मौत, हत्या थी, के मामले में मारने वाले ने कुबुला कि उसने हत्या की। एक विश्वसनीय चैनल ने वो सीडी चलाई, कि लीजिए ये है सबूत, पर कानून नहीं मानता इसे। वहां को मजिस्ट्रेट के सामने बयान ही धुरी है। सो हत्या करने करने वाला निश्चिंत है, पर इसके पिताजी को मीडिया प्रभाव मे नैतिकता का जामा ओढना पड़ा। सो पद गया। देखिए क्या क्या बिक रहा है। एक दिन टीवी ने फिर दिखाया कि बच्ची बिक रही है। पांच सौ रूपए में। खरीदार भी समाज में है, बिकवाल भी। टीवी भी खरीदता है औऱ मंहगे में बेचता है। खबरें खास भी थी, आम भी। डेंगू से प्रधानमंत्री के दामाद, नाती सब बीमार हो गए। पीएम को देखने जाना पड़ा। पर डेंगू को रोक पाना संभव नहीं दिखा। सावधानी और जानकारी ही बचाव है। पर कश्मीर में सारी सावधानी धरी रह जाती है जब हमला होता है। लालचौक पर हमला हुआ। लोग मरे। हिंसा बढती जा रही है। असम में उल्फा से शांति वार्ता के टूटने के बाद इसके आसार साफ दिख रहे है। टीवी कहता है गांधीगीरी सफल हो रहा है। जरूर। पाकिस्तान एक झापड़ मारकर कहता है कि सबूत दो कि उसका मुंबई बम हादसों में हाथ है। हम दूसरा गाल आगे करते है। आतंकवाद जो खत्म करना है। खत्म हिंसा को भी करना है, जो रह रहकर भड़क उठती है। मैंगलोंर में हिंसा भड़क उठी। वहीं पुरानी बात। वहीं धार्मिक उन्माद। हिंसा जारी है। देखिए धार्मिक भावनाए भी कितती नाजुक होती है। एक शराब कंपनी के एड में हरभजन ने केश खोले तो माफी मांगनी पड़ी। लोकतंत्र भले हो, पर टीवी इसे पहला अधिकार नहीं मानता। वो तो समुदाय की भावनाएं देखता है। और कही न कही विचार सीमित करता है। कहां कद्र है लोकतंत्र में गरीब की। पर लालूजी गरीब रथ चलाए जा रहे है। गरीबी है। दल है। मुद्दे है। पर राजनीति भी है। शिवसेना भाजपा में ठन गई। मामला एक सीट का था। खैर टीवी चैनलों को लगा कि मामला दहकेगा। पर जल्द सिमट गया। खैर इन सबके बीच हम एक सालगिरह धूमधाम से मनी। भारतीय वासुसेना ने पिचहत्तर साल पूरे किए। टीवी पर अच्छे दृश्य दिखेष। गर्व हुआ। लोकतंत्र पर।

'सूचक'
soochak@gmail.com'

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Wednesday, October 04, 2006

Musharraf hot favourite of Indian News Channels

General Pervez Musharraf makes headlines far more in India than Dr. Manmohan Singh and
perhaps as much as he makes in his own country. In the last week of September, between 21
and 28th, Pakistan President Prevez Musharraf got three times more time on primetime evening news bulletins of Delhi based Hindi news channels than the India Prime Minister Dr. Manmohan Singh got during the period, according to a CMS Media Lab analysis.

It was the release of General Pervez Musharraf’s book on September 25th which prompted such an extensive coverage in the news media. What is more, most of this television coverage is not only from USA but include extensive discussion in India and interviews on Musharraf and his book.

Between September 21 and 28, six Hindi news channels of Delhi devoted 378 minutes of their
evening primetime news bulletins for General Musharraf against 114 minutes they devoted for
covering Dr. Manmohan Singh. No Indian Prime Minister for sure would have ever got such a
coverage in Pakistan news media as Musharraf often gets in India.

The news channels covered are DD News, NDTV India, Zee News, Sahara Samay, Star News
and Aaj Tak.

More specifically, Musharraf’s book release on 25th September and discussion on it occupied
277 minutes of the bulletins of these six Hindi News channels. Even before the book release, on
September 21, 22, 23 and 24 Musharraf got a coverage of 102 minutes in the evening primetime bulletins of these six Hindi news channels. This included General Musharraf’s meeting with Dr.
Manmohan Signh in Havana, Musharraf’s meet with US President Bush.

Between 21 and 28 September NDTV devoted 164 minutes for President Musharraf in its
evening primetime bulletins against four minutes it devoted for Dr. Manmohan Singh in the
same bulletins.

Doordarshan news channels, on the other, devoted 94 minutes for Dr. Manmohan Singh against
35 minutes it devoted for Pakistan President Musharraf during the same days and same time
bulletins.

On an average Pakistan’s President got ten minutes per channel of primetime coverage a day
during this week in the news bulletins on these news channels - against hardly three minutes a
day per channel Prime Minister Dr.Manmohan Singh got. That General Musharraf is a favourite of India news media is evident from the coverage he gets from the mainline English newspapers too. On the other, Prime Minister Dr. Manmohan Singh gets low key coverage in news bulletins is perhaps not a surprise.

On September 26 Dr. Manmohan Singh had his birthday. So also the veteran film actor Dev
Anand. On 26th September Dev Anand got a coverage of 34 minutes in all in the primetime
evening bulletins of six Hindi news channels against two minutes and 30 seconds coverage Dr.
Manmohan Singh got on the same channels in the same bulletins.

NDTV devoted 24 minutes on 26 September in its evening primetime news bulletins on Dev
Anand’s birthday. It had no coverage what so ever on Dr. Manmohan Singh’s birthday in the
primetime news bulletins of the evening.

Doordarshan News devoted one minute and 50 second for covering Dr.Manmohan Singh
birthday against 30 seconds it devoted for Dev Anand’s birthday on September 26th in its
primetime evening news bulletins. Zee News had 30 seconds for Dr. Manmohan Singh’s
birthday against 7 minutes for Dev Anand’s birthday on 26 September.
Interestingly, both Aaj Tak and Star News did not cover either of these birthdays in their evening primetime news bulletins.

CMS Media Lab monitors and analysis news bulletins of prime national channels and some
regional channels every day.

Media Lab
Centre for Media Studies

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