Monday, July 30, 2007

पंद्रह लाख का नम्बर और मीडिया

ये मेरा शौक है। मैं पूरी दुनिया में फेमस होना चाहता था। लोग मुझे फोन कर रहे है। मेरे परिवार ने मेरा साथ दिया। और इस तरह एक व्यक्ति मीडिया की बदौलत हो जाता है मशहूर। एक नम्बर। जिसमें जुड़े है सात शून्य। इसे खरीदा गया पंद्रह लाख में। और खरीदार बन जाता है खबर।

खबर। हर उत्पाद की खबर। एक सनक की खबर। एक शौक की खबर। क्या यहीं खबर है। किसी के पास पैसे हो, तो वो कुछ भी फालतू करें। और मीडिया इसे पेश करके समाज में एक आर्टिफिशियल एस्पिरेशन पैदा करें।

आर्टिफिशियल एस्पिरेशन। जी हां। जिस शौक ने एक युवक को पंद्रह लाख खर्चने पर मजबूर किया। वो शौक आज हर शहर में लोगों की जुबान पर है। खरीदार ने एक दिन की शोहरत बटोर ली है। पर जिसे सचमें फायदा होगा वो है फोन कंपनी।

समाज में इस खबर से जो असर गया है, वो आने वाले दिनों में युवको, पैसे वालों और सपनों में जीते मध्यमवर्गीय लोगों को लोलुप करेगा, कि वे ऐसे शौक को पूरा करें। यानि अब एक नया तरह का लालच पैदा होगा। जो सही गलत नहीं पहचानेगा।

मीडिया को इस खबर में जो दिखा वो क्या था, ये समझना मुश्किल नहीं। पहला कि शौक और पैसे के बीच जो रिश्ता है, वो साफ दिखा। दूसरा एक व्यक्ति खबर बना सकता है। वो सक्षम है तो। एक अनोखा कारनामा खबर बन सकती है। एक शौक की हद कुछ नहीं। और हर हद के बाद एक खबर छुपी है।

जाहिर है मीडिया, अखबार से लेकर टीवी तक, अब खबरों के असर को देखना समझना छोड़ चुके है। इसी वजह से वो खरीदार की लालसा को बढ़ाते रहते है। किसी भी अखबार को ले लीजिए। हर हफ्ते वो पर्यटन, आवास, वाहन और शौक से जुड़ी खबरों को रंगीन साचे ढांचे में पेश करता है। टीवी इससे एक कदम आगे है। वो रोजाना इस रंगीनी का एक डोज देता है। उसके ग्राहक तय है।

समाज में जो असर देखा जाता है, वो व्यवहार और बदलाव दोनों तौर है। किसी के हाथ में मोबाईल है तो किसी के मुंह में सिगरेट। ये जरूरत से ज्यादा स्टेटमेंट है।

आर्टिफिशियल एस्पिरेशन यानि छलावे वाली चाहतें पैदा करने वाला मीडिया को इन खबरों से जो बाजार मूल्य मिलता है, वो उसके पीछे भागता है। पर इन खबरों के असर से समाज में जो भागमभाग चल रही है, वो केवल अवसाद और पलायन की ओर ले जाने वाली है।

किसी भी जनसंचार माध्यम से ये अपेक्षा कि वो समाज को एक दिशा देगा, कोई गैरजरूरी मांग नहीं है। क्या टीवी इस खबर के जनक को हतोत्साहित नहीं कर सकती, या क्या उसे इस खबर को दिखाने से परहेज नहीं करना चाहिए। अखबार के लिए भी रोचकता क्या मानक है।

किसी भी उत्पाद के लिए ग्राहक की सोच तो समझना जरूरी होता है। भारतीय शहरी मानस अब मोल तोल से ऊपर उठकर शौक और स्टेटमेंट में जीने लगा है। आने वाले दिनों में ईगो की जगह शौक ले लेगा। और समाज में लड़ाई शौक के लिए होगी। इस दौरान मीडिया के लिए शौक होगा हर सनक और अनोखी खबर। इंतजार है किसी रईस के घर के शानोशौकत की खबर का। या किसी के नायाब शौक की हद का।

Soochak
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Friday, July 27, 2007

मीडियायुग पर 'मीडिया'

हमारे सरोकारों ने हमें मीडिया की सुध लेने का जज्बा दे रखा है। हम अपने स्तर से इसे करते भी आ रहे है। बीच बीच में हमें अपने चिट्ठाजगत में कई लेख देखने को मिलते हैं, जो मीडिया पर केन्द्रित होते है। देखकर खुशी होती है। हमारी आगे से ये कोशिश होगी कि इनके लिंक आपको मीडियायुग पर एक जगह मिले। हमारी लेखक साथियों से भी गुजारिश है कि अपने मीडियालेखों से हमें परिचित कराते रहें।

आज मिले लेख...

कथित न्यूज़ चैनल बॉलीवुड से कुछ सीखें

एक भगोड़े मीडियाकर्मी का बयान

मीडिया और रामू का गधा

मीडिया का बाजार

मीडिया विमर्श के वेब मीडिया अंक का विमोचन

शाबास कैराली टीवी

मीडिया पर दोष


क्या हो गया है भारतीय मीडिया को?

पूजा के प्रतिरोध मे मीडिया की नग्नता


MediaYug

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Thursday, July 26, 2007

शून्य में जीते हम आप

क्या आपको पता है देश में एक ऐसा कानून बनने जा रहा है जो गर्भवती महिलाओं की संख्या का हिसाब रखेगा।

क्या आपको पता है कि देश में के वन कानून में बड़ा बदलाव किया जा चुका है।

क्या आपको पता है कि आईआईएम में अब सरकार निदेशकों के पद भरेगी। इसके विज्ञापन भी निकाले जा चुके है। इससे पहले ये वहां की गवर्निंग बॉडी का काम था।

क्या आपको पता है कि देश में बाल श्रम को लेकर जो कानून लागू है, उसके अनुसार आपको जेल और जुर्माना दोनो हो सकता है।

क्या आपको पता है जंतर मंतर पर आप पांच हजार से ज्यादा की संख्या में धरना नहीं दे सकते है।

क्या आपको पता है कि देश की राजनीति में क्या हो रहा है। और केवल राजनीति ही नहीं जिन नीतियों को राजनेता बनाते है या पेश करते है, वे आपको किस तरह से प्रभावित करने वाली है।

देश में जो हो रहा है, उसका एक चेहरा दिखाने वाली मीडिया अब देश को राजनैतिक, सामाजिक तौर पर जागरूक करने वाला नहीं रहा। ये एक ऐसा वक्त है जब आप देश की राजनैतिक गतिविधियों के हिस्सेदार नहीं है। क्या ये वक्त की जरूरत है या ये अर्थ के प्रभावी होने का प्रभाव है।

क्या फर्क पड़ता है कि हम न जाने कि हमारे लिए कौन सी नीतियां बनाई जा रही हैं। क्या ये मायने रखता है कि हम ये जाने कि सामाजिक विकास की कौन सी कड़िया हम खोते जा रहे हैं।

जनसंचार माध्यमों की भूमिका के मद्देनजर ये उनका कर्तव्य रहा है कि वे वक्त के आगे और पीछे को जोड़कर पेश करें। मतलब कि खबर से जुड़े सभी सरोकारो को पेश करना उनका काम है। लेकिन यहीं पन्ना अब वर्तमान में सिमटता जा रहा है।

देश के राजनैतिक फलक पर होने वाली घटनाओं में केवल चुनाव, सदन स्थगन, दल-बदल और नेताओं की रार ही नहीं होती। हर दिन किसी न किसी नई नीति पर विचार विमर्श चलता रहता है। जो अगले संसद काल में पेश की जानी होती है। जाहिर है हर नीति आपसे जुड़ी होती है। और इससे जुड़ा होता है समाज। तो अगर टीवी या रेडियो, एक अंश में अखबार ने थोड़ी गंभीरता बनाए रखी है, इन नीतियों को पेश न करें तो आप कैसे जानेंगे कि आने वाले दिनों में आपको टीवी रखने पर भी सालाना टैक्स देना होगा।

माना जाता है कि जिस देश की जनता उसके राजनैतिक प्रक्रिया की हिस्सेदार नहीं, वो एक तरह के शून्य में जी रही है। और ऐसा शून्य आपके जीवन को अंधेरे में रखने जैसा है।

हमारे जनसंचार माध्यम, खासकर टीवी को केवल सामाजिक तमाशे को पेश करने की बजाए ये देखना ज्यादा जरूरी है कि वो सामाजिक ताने बाने को पेश करें। राजनैतिक रस्साकशी के ज्यादा राजनीतिक पहल से बनने वाली नीतियों को आगे लाए। और देश के आवाम को ये बताए कि फला कदम आपको यहां ले जाएगा।

देश के एकाध गंभीर अखबार और टीवी चैनलों को ये देखना और भी जरूरी है कि वो अपनी तारतम्यता बनाए रखे। खबरों के बीच एक हार्ड डोज देकर। आपकी चेतना पर जो पर्दा है, उसे केवल आर्डर आर्डर ही दूर न करें। आप खुद भी शिकायती तेवर दिखाकर ये मांग सकते है कि हमें ये देखना है। ये बड़ी बात नहीं है। आप के पास चैनलों के ईमेल, या पते पर अपनी बात लिख सकते है। जब आपके एसएमएस से चैनल किसी को लोकप्रिय या अलोकप्रिया बना सकते है तो आपकी राय की बाढ़ से क्या वे जरा भी नहीं सोचेंगे। सोचिए।

बहरहाल। देश में रहने के लिए संविधान ने आपको कई अधिकार दे रखे हैं। इनमे से किनको कितना इस्तेमाल करना है ये आप पर है। लेकिन देश को जानने के लिए उसकी राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक धड़कन से जुड़ना जरूरी है।

सूचकsoochak@gmail.com

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Saturday, July 21, 2007

हरिया के देश में हैरी पॉटर की जिंदगी

जिस देश में आबादी का एक बड़ा हिस्सा अंग्रेजी के ख्वाब देखता है, करोड़ो खर्च करके अंग्रेज बनना चाहता है. वहां हैरी पॉटर जिंदा रहेगा या मरेगा कितना बड़ा सवाल है। आज सुबह ये रहस्य टूटा कि वो जिंदा रहेगा।

टीवी चैनलों के आम दर्शक के लिए मिथक बन चुका ये फिक्शनल किरदार आज चाचा चौधरी और हमारे बिल्लू, पिंकी, नागराज, ध्रुव और किवदंती सरीखी रचनाओं से बहुत आगे है। चंद्रकांता संतति या किसी अलाद्दीन तो इसके आगे पीछे नहीं है। ये हम नहीं हमारी टीवी कहती है। एक अनुमान के मुताबिक हर खबरिया चैनल ने बीते दिनों में रोजाना आधा घंटा हैरी पॉटर को दिया है। मानो पूरा देश हैरी के बचने की प्रार्थना कर रहा हो।

क्या इसे उदारीकरण कह सकते है। नहीं। क्योकि एकपक्षीय आयातित किरदार का मायाजाल है। जिसे हम आप अब समझ कर भी अंजान है।

टीवी चैनलों को बालक और युवा होते वर्ग को अपने से जोड़ने के लिए इस मायाजाल में अपनी मौजूदगी दिखाना जरूरी है। बाजार में आठ सौ की किताब वो खरीद सकता है, जो इस बाजार के लिए बना है।

अरबों के व्यापार वाली किताबें और अंग्रेजी। क्या हम दिन प्रतिदिन अपनी समझ से कटते जा रहे है। जिस देश में कुछ करोड़ लोग अंग्रेजी के साथ जीते है, वे ही इंडिया है। हरिया को भूल चुके भारत में हैरी ही बचेगा और बिकेगा।

हमें बहलाने और डराने वाले खबरिया चैनलों के सामने जो दिक्कतें है वो समझ के बाहर है। लेकिन क्या बहुप्रचारित और बहुप्रतीक्षित उत्पादों को अपनाने के लिए केवल जनउन्माद ही काफी होंगे।

हैरी को जिंदा किवदंती बनाने वाली जे के राउलिंग के सामने इतिहास में हमेशा मौजूद रखने की चुनौती थी। और आज के टू मिनट मीडिया ग्लेयर का दुनिया में ऐसा सम्मानजनक अंत के साथ किया जा सकता है। सो उन्होने इसे सात किताबों में सिमटा दिया। ताकि आगे कोई हैरी पॉटर पर सीक्वेल भी न लिख सके।

देश को खबरों से आगाह कराने वाले खबरिया चैनलो को ये देखना जरूरी है कि हरिया की मौत के बाद भी उसकी बरसी वो करते रहे। ये हैरी की दुनिया में फिट नहीं बैठता। उसका मायाजाल हमारी कथाओं से बड़ा नहीं है। लेकिन जिस बाजार में वो बिक रहा है,वो हमारी आकांक्षाओं से बहुत बड़ा है।

सूचक
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Tuesday, July 17, 2007

नहीं पता कैसे बचेगी हिंदी

आसपास हिंदी है। बातचीत हिंदी है। माध्यम हिंदी है। और हर जनसंचार माध्यम के साथ हिंदी है। तो क्या माना जाए कि हिंदी, जो कि अब ब्लाग के हजारों पन्नो पर मौजूद है, इतनी लोकप्रिय हो चली है कि उसे रोजाना खबर बनाना जरूरी नहीं है। लगता कुछ ऐसा ही है।

आठ बार हो चुके विश्व हिंदी सम्मेलन के फायदे क्या है। इस बार के हिंदी सम्मेलन में नामधन्य लोग नहीं गए। कहा कि फिजूल है। वहां तो फला विचारधारा का कब्जा है।

तो क्या हिंदी विचारधारा में फंसी भाषा है। वो भारतीय नहीं है। वो किसी लेखक और प्रचारक की मोहताज है।

विदेश मंत्रालय तो इसे हर साल फैलाए जा रहा है। लोग तीन दिनों में इसकी सुध भी ले लेते है। लेकिन क्या हिंदी जनसंचार माध्यमों से फैल रही है। नहीं।

जिस हिंदी की बात इन सम्मेलनों में होती है वो कही किताबों और इतिहास में दर्ज है। आज वैश्वीकरण की जिस तरीके को हिंदी ने ढाला है, वो अनोखी है, क्रियात्मक है।

लेकिन हमारा सरोकार क्या है। टीवी इसे देखता नहीं, रेडियो को गाना बजाने से फुरसत नहीं। पेपरों में कुछ सौ शब्दो में हिंदी की कहना संभव नहीं। तो कैसे बचे हिंदी।

मेरा लिखना केवल लिखना भर है। मैं विचार के तौर पर जानता हूं कि हिंदी को समय और काल ने घेर रखा है। उसे अपनाना हीनता का भाव लाता है। उससे दूर रहना उच्चता है।

टीवी से हिंदी को समय देना अब केवल सपना भर है। रेडियो के विकास ने हिंग्लिश को पनपा रखा है। अखबारों में अंग्रेजी भाषा के शब्द घुस रहे है। तो कैसे बचे हिंदी।

नहीं पता कैसे बचेगी हिंदी।

सूचक
soochak@gmail.com

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Saturday, July 14, 2007

A journalist is always a journalist!

What is the cost of real journalism. Threat or Thumb. A journalist is always a journalist. Vinod kumar Prajapat proves it, he earn for his family and yearn for his past. But fate is tough to him. He gave a strong thumb in the face of Security Gaurd! We can help him....

MediaYug

Controversial report costs reporter his job at Indian newspaper

Dubai: An Indian journalist who quit his job back home after a
controversial story got him in trouble is working today as a security
guard at a Dubai company.

The story earned Vinod Kumar Prajapat, 39, a front page byline in a
Hindi language newspaper in the North Indian city of Jaipur.

"The story was about an elderly woman who was thrown out when she went
to give a petition to an Indian minister. That story made headlines
and I was congratulated by the public, as well as fellow journalists,"
he said.

But his report was termed as a "packful of lies" by the politician and
he was asked to prove its authenticity. More than 350 eyewitnesses
stood by his story.

Credibility
---------------------------------------

"I had to really work to prove my credibility. I realised that a
journalist has to tread carefully when it comes to influential people
who want to keep the truth from coming out,"said Prajapat.

He came to the UAE 15 months ago through an agent after undertaking
weeks of training as a security guard. He reads the Gulf News when he
gets some time out for himself and from his job of standing guard at
the company gates. He is married with two children. Prajapat has also
worked as researcher with a district newspaper in Jaipur.

He earns Dh900 as a 24 hour security guard and his meals are simple:
four parathas [baked Indian flat bread] which he relishes with bites
of onions and green chillies.

His aim is to save enough and get back home.

He says that his mother feared for his life and the family after the
controversy.

Threats

She wanted me to join my younger brother who runs a watch repair shop, he said.

"My mother got very scared. Bullies used to turn up at our door
looking for me,"
he said. After working as a watch technician in his
family-owned shop in Jaipur for a couple of months, Prajapat also
worked as a supervisor at a construction site in Jamnagar in the
Indian state of Gujarat.

But he soon was looking for greener pastures and a job that would help
him save enough to buy a video camera.

"I still long to go back to journalism, but this time I would like to
work in the electronic media. My English language skills are very poor
and so I buy a copy of the Gulf News and try to read it.


"I want to learn to speak in English and get a job as a news reporter
in one of the English news television channels in India. My adverse
circumstances at home got me here. My first love is journalism," he
said.


Courtesy: Gulf News
By Sunita Menon, Staff Reporter
Published: July 14, 2007, 00:04

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Friday, July 13, 2007

एक सचाई: कैसे मिले मीडिया में नौकरी - दी एंड

इंटर्नशिप के दौरान

आप पाते है कि आप अपने सपने के पास खड़े है। पहले दिन आपकी सज्जनता पूरे उफान पर होती है। ये एक वक्त होता है, जब आपको लगता है कि जग जीतने की सारी काबिलियतें आपके पास है और यहीं मौका वो सब आपको दे देगा। चैनल या अखबार में हर किसी को सर कहते हुए आप कुछ ही दिनों में फ्रस्टेट हो जाते है। आपको या को फीड के टीसीआर नोट करने का काम मिल जाता है या किसी डेस्क पर अनुवाद का घसिटाना काम। आपके सपने टूटने से लगते है। लेकिन इसी प्रक्रिया में पत्रकार बनने का एक गुण आप सीख लेते है। चाटुकारिता।

दो महीने बाद

इंटर्नशिप करने वाले अस्सी फीसदी लोगों को दो महीने बाद एक दिन घर जाने की बस पकड़ लेनी होती है। और कईयों को कई रास्ते दिखने लगते है। जो बीस फीसदी बते रहते है वे किसी न किसी तरह के अपमान के बाद नौकरी के पहले पायदान को पाते है। ट्रेनी के तौर पर पत्रकार पैदा होने लगता है। अपवादों के लिए हमेशा जगह होती है। इसलिए सौ में से एक पत्रकार अपनी सही काबिलियत के बल पर भी मौके पाता है। और कुछ साल में वो अपनी जगह भी बना लेता है।

एक सचाई

पत्रकार बनाने वाली सारी संस्थाओं में नौकरी नहीं निकलती है। ज्यादातर संस्थान जो अखबारों में विग्यापन निकालते भी है, वे आगे जाकर एक शब्द से बंधे नजर आते है। जुगाड़ और जान पहचान। सबसे बड़ी बात है जान पहचान होना। ये एक तरह की रेफरल पालिसी जैसा है, जो एक जुबान या संबंध से आगे बढ़ती है। पत्रकार होना भी सीए जैसा है। पहले का सीए ही नए सीए को जन्म देता है। उसी तरह पुराने पत्रकार की सिफारिश से ही नई नौकरी मिलती है।

और ज्यादा खरा ये कि पत्रकारिता अब पैशन नहीं पेशा है। पत्रकारिता अब जूनुन नहीं नौकरी है। और इसे दिलाने के लिए कोई भी योग्यता काफी नहीं है। मैने देखा है कि किस तरह एक बड़े व्यवसायी के बेटे बेटी को माइक थमा दिया जाता है। और किसी के मां बाप पत्रकार हो को जुगाड़ बना दिया जाता है।


सो वे आएं पत्रकार बनने जो ये जानते हो कि ये पेशे में तब्दील हो रहा है। और बाजार में सामान बेचने के लिए कोई भी तरकीब सही मानी जाती है।

Soochak
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एक सचाई: कैसे मिले मीडिया में नौकरी - दी एंड

इंटर्नशिप के दौरान
आप पाते है कि आप अपने सपने के पास खड़े है। पहले दिन आपकी सज्जनता पूरे उफान पर होती है। ये एक वक्त होता है, जब आपको लगता है कि जग जीतने की सारी काबिलियतें आपके पास है और यहीं मौका वो सब आपको दे देगा। चैनल या अखबार में हर किसी को सर कहते हुए आप कुछ ही दिनों में फ्रस्टेट हो जाते है। आपको या को फीड के टीसीआर नोट करने का काम मिल जाता है या किसी डेस्क पर अनुवाद का घसिटाना काम। आपके सपने टूटने से लगते है। लेकिन इसी प्रक्रिया में पत्रकार बनने का एक गुण आप सीख लेते है। चाटुकारिता।

दो महीने बाद

इंटर्नशिप करने वाले अस्सी फीसदी लोगों को दो महीने बाद एक दिन घर जाने की बस पकड़ लेनी होती है। और कईयों को कई रास्ते दिखने लगते है। जो बीस फीसदी बते रहते है वे किसी न किसी तरह के अपमान के बाद नौकरी के पहले पायदान को पाते है। ट्रेनी के तौर पर पत्रकार पैदा होने लगता है। अपवादों के लिए हमेशा जगह होती है। इसलिए सौ में से एक पत्रकार अपनी सही काबिलियत के बल पर भी मौके पाता है। और कुछ साल में वो अपनी जगह भी बना लेता है।

एक सचाई

पत्रकार बनाने वाली सारी संस्थाओं में नौकरी नहीं नितलती है। ज्यादातर संस्थान जो अखबारों में विग्यापन निकालते भी है, वे आगे जाकर एक शब्द से बंधे नजर आते है। जुगाड़ और जान पहचान। सबसे बड़ी बात है जान पहचान होना। ये एक तरह की रेफरल पालिसी जैसा है, जो एक जुबान या संबंध से आगे बढ़ती है। पत्रकार होना भी सीए जैसा है। पहले का सीए ही नए सीए को जन्म देता है। उसी तरह पुराने पत्रकार की सिफारिश से ही नई नौकरी मिलती है।

और ज्यादा खरा ये कि पत्रकारिता अब पैशन नहीं पेशा है। पत्रकारिता अब जूनुन नहीं नौकरी है। और इसे दिलाने के लिए कोई भी योग्यता काफी नहीं है। मैने देखा है कि किस तरह एक बड़े व्यवसायी के बेटे बेटी को माइक थमा दिया जाता है। और किसी के मां बाप पत्रकार हो को जुगाड़ बना दिया जाता है।


सो वे आएं पत्रकार बनने जो ये जानते हो कि ये पेशे में तब्दील हो रहा है। और बाजार में सामान बेचने के लिए कोई भी तरकीब सही मानी जाती है।

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Thursday, July 12, 2007

एक सचाई: कैसे मिले मीडिया में नौकरी - भाग दो

दूसरे पड़ाव के पहले

आप जब अपने शहर से चलते है तो किस्मत कहें या कर्म, आपको कुछ लोगों के नाम और संस्थान पता होते है। ये बात आप भी आम आदमियों की तरह जानते है कि फला किस चैनल में है। यानि आप जानते है जिसे हर कोई जानता है। कभी कभी आप किसी माध्यम से जान जाते है कि नौकरी देने वाली डिपार्टमेंट होता है एचआर। और इस समय फलां पत्रकारिता संस्थान की एचआर के हेड हैं फलां।

तीसरा पड़ाव

हर दिन गुजरता जाता है। आपकी सीवी एक गार्ड से दूसरे गार्ड के पास जाती जाती है। और आप को अखरने लगता है कि आपके पत्रकार को कोई समझ क्यूं नहीं पाता। इसी मशक्कत के दौरान किसी न किसी दिन आपको किसी बड़े संस्थान का कोई बड़ा चेहरा आते जाते मिल जाता है। आपकी खुशी का ठिकाना नहीं होता। आप उससे चलते चलते या सिगरेट के कश लगाते किसी बड़े पत्रकार को ये समझाते है कि आप ही हैं भविष्य के पत्रकार। वो कश जल्दी जल्दी लेने लगता है। और अंत में अपने नाम की एक ईमेल आईडी आपको देता है। सीवी भेज देना, देखते है। आप किस्मती हुए तो आपको वो अपना मोबाइल नम्बर भी दे देता है। आप भागे भागे किसी साइबर कैफे से अपनी सीवी कुछ सुधार कर उसे भेजते है। थोड़ी देर इंतजार करते है। फिर हिम्मत जुटाकर एसएमएस करते है। या आपमें पत्रकार है तो फोन ही कर देते है। फोन नहीं उठाया जाता है। या उठता है तो परिचय समझने के बाद वो कहता है देख लेंगें। एक हफ्ते बाद फोन करना।

एक हफ्ते बाद

ये बीचे के दिन आपकी बेकरारी के सबसे बड़े लम्हे होते है। आप बेसब्री से हर दिन को गुजारते है। घर पर फोन पर आप बताते है कि किस तरह आप फलां से मिल आए है। आपने उससे बात भी की और आपको उसने एक हफ्ते का वक्त भी दिया है। एक हफ्ता। बीत जाता है। आप सुबह सुबह फोन करते है। कई बार करने के बाद फोन उठता है। आप बताते है। और वो झल्ला कर कहता है कि दोपहर में करो। आप घर से बाहर होते है। आपको लगता है कि आज ही आप नौकरी पा जाएंगे। फिर दोपहर हो आती है। आप फोन करते है। फोन उठने पर आप को कहा जाता है कि यार देखो जगह नहीं है। एक महीने बाद फोन करना। अगला आपको हताश नहीं करता। उसे अपना नाम खराब नहीं करना। वो टीवी का युगपुरूष जो है।

अचानक एक दिन

एक दिन आप पाते है कि एक नम्बर से फोन आ रहा है। ये नम्बर जाना पहचाना है। आवाज आती है कि हमारे यहां इंटर्नशिप के लिए आपका सेलेक्शन किया गया है। आप बल्ले बल्ले। और उसी दिन से आप हो जाते है घर के लाडले। लेकिन इसी प्रक्रिया के दौरान हजारों युवक युवतियां या तो घर लौट जाते हैं या किसी और फील्ड से जुड़कर हल्के प्रयास करते है। पत्रकार की मौत हो जाती है।


आगे जारी रहेगा......


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Wednesday, July 11, 2007

एक सचाई: कैसे मिले मीडिया में नौकरी

कैसे मिले मीडिया में नौकरी। ये सवाल आज लाखों मास कम्यूनिकेशन करना वालों के दिमाम में डोल रहा है। ये हर पत्रकार के बनने से पहले का सवाल है। हर दिन संघर्ष का है। ये याद दिलाने वाला तीखा अनुभव आपको तोड़ता है। आज देश के हर कोने से हर साल लाखों युवक युवतियां पत्रकारिता का कोर्स करके बाजार में नौकरी की तलाश में घूम रहे है। इनमें से कुछ फीसदी तो अपने स्थानीयपन को बरकरार रखकर स्थानीय फत्रकारिता के किसी पायदान पर सिमट जाते है। लेकिन जिनमें एक सपना है वे चले आते है दिल्ली। दिल्ली दिल वालों का शहर। यहां से शुरू होती है एक दुस्वप्न की शुरूआत।

पहला पड़ाव

घर से आप अपने अभिवाहकों को रोजाना, कोर्स करने के दौरान, बताते रहते है कि अखबारों में हर खबर के पीछे एक पत्रकार है। टीवी पर माइक थामे वो दुनिया को बता रहा है कि किस तरह ये खबर उसकी बदौलत आप तक पहुंच रही है। इसी सपने को जीने के लिए घर के पैसों पर एक डिग्रीधारी आ जाता है दिल्ली। यहां उसे किसी सस्ते इलाके में रहने के लिए कमरा मिल जाता है। लड़कियां शुरू में रहती है अपने रिश्तेदारों या किसी लेडिज हास्टल में। अगले दिन से शुरू होती है किसी रूटधारी बस में अपने सपने के तलाशने की कोशिश।

पहले पड़ाव से पहले

ज्यादातर पत्रकारिता करने वाले आज के युवक, अगर वे किसी शहर के हैं तो, वो किसी न किसी अखबार या लोकल टीवी या स्थानीय स्तर पर बने बड़े चैनल में एक दो महीने में कोई न कोई बुनियादी सोच पा ही लेते है। ये अनकही मेहनत उनमें उस ताकत को ज्यादा करती है, जिसे वे लिखकर या माइक थाम कर पाना चाहते है। इनमें से कुछ लोग या तो नौकरी के आश्वासन पर या किसी छोटे पद के मिलने के चलते रह जाते है अपने शहर में। और कुछ घर की मजबूरियों के चलते रहते है अपने शहर में किसी न किसी पत्रकारिता आलमबरदार की तरह।

दूसरा पड़ाव

अपनी इंटर्नशिप के दौरान ही नवप्रवेशी पत्रकार जान जाता है कि दिल्ली में फला चैनल के आफिस कहां है या दिल्ली के आईटीओ पर ही सारे अखबारों के आफिस हैं। सो पहला दिन किसी रूट की बस में पिसने के बाद वो किसी ऐसी सड़क पर खड़ा होता है, जहां से रास्ता उसके सपने को जा रहा होता है। लेकिन इसी के बीच में खड़ा है एक गार्ड। गार्ड हर तरह से आपसे ज्यादा उस संस्थान के प्रति जागरूक होता है। वो रोज यहां पत्रकारों को देखता है, उनके कद के अनुसार। आपकी बेबसी समझने वाला वो पहला शख्स है। आपके पत्रकार बनने में आपको वो पहली बाधा लगता है। आप अमूमन इसे संघर्ष की तौर पर लेते है। गार्ड को ये सख्त आदेश होते है कि वो किसी भी अनजान के पत्रकारिता की हद में प्रवेश न करने दे। न जाने इस फरमान के चलते कितनी खबरों की मौत संस्थान के दरवाजे पर ही हो जाती है। आप गार्ड के ये समझाने की कोशिश करते है कि आपको जिससे मिलना है,वो कितना जरूरी है। वो समझता नहीं है। और आपको अपनी बायोडाटा उसके हवाले करना पड़ता है। यानि आपको अपना सपना वहीं मरता दिखता है।

आगे जारी रहेगा......

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Tuesday, July 10, 2007

"The Race of English News In India"

Welcome to the World on Indian English News. English sounds elite. So the caterer of English channels caters elite advertisements with choosy news. In a country where no single language reins, English market has immense possibilities. So the news has four national channels. National Channels. You can say, but in true means, the constitution of content and presentation is sometime like a Hollywood movie dubbed in Bollywod.

English news market has ruled by Times Now. As the stats says. The other competitors are good enough, but are over burdened. The tag they shoulders is the problem, the very pacy runner CNN-IBN is lagging, the masterstroke player NDTV is little succumbing.

Why? Headlines Today is never considered a news player? Why Times Now Rules? These are the current Questions hounded the market and the planner of the second, third placed channels.

At a time when the serious journalism is a miracle type of expression, English channels cater a good some of serious news and variety, you can see all this on their websites. But this is the cliché. Why a viewer is get bored?

News is a serious business and the players are so serious about it. After launching Headlines Today , the channel CEO quote this - G Krishnan, CEO, TV Today Network, said, "Our news channel offers quality programming to its viewers, and would certainly be accepted by them. Any other channel that comes into existence will have to create a niche for itself. This is possible only if the channel understands the pulse of the target audience and plan accordingly."
And after passing four years in market, they are only on Television, not in viewers mind and choice.

What exactly this tells? Come to NDTV, the English niche channel. At a time it was market leader. And currently surviving for its image. They actually become Bata of the market, which hold good image and have loyal viewers. But can it works in a market. Especially in future.

CNN-IBN has started with, Whatever it takes, so they can give all they have! You see they have so many distinct programmes and left little space for live news!

Come to the real picture, why Times now is No.1. The tag they follow is NOW. And it works slowly. The colors they use are dark (Red& Blue). Which shows vibrancy and alarm ness, and at the end they are almost live in passion. They devout very much time in politics and have long discussion.

This is not all, they translate the Hindi formula. There slotting is according to Hindi News channels, like they have a women show at 2:30 pm. And after all people change their taste!

Surely the war of news is not going to cake pie revenue share. English viewer is little choosy always and not follow the dictum. And this is why they change their taste.

One more thing to add is The Times of India Effect. The paper has immense effect on India English Journalism. And the group is promoting the news channel from the launching day. People gradually attach them selves to this intention of the group.

NDTV and CNN-IBN has a chance to play the game indirectly. It includes a heavy outdoor Advertising, People Campaign and less focus on programming. Channels are for News and when you portray yourself an epic, don’t write slogans then.

The new funds of web journalism and Citizen journalism is not very close to viewers, so do your level best but show, the benefitable content.

CNN-IBN lagging is mostly due to the brand they attach with them is not very much reputed. After Iraq, CNN is supposed to embedded.

Here Times Now has a leap, Reuters. So they use as much as they can. Reuters has many Indian reporters, this converts into local attachment.

English news market is not saturated, like Hindi is. So the upcoming channels have a space to play. But if the runners didn’t play the game rightly, they loose in future.

'Soochak'
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Monday, July 09, 2007

मीडियायुग खुलासा : ताज के नाम पर लुटा देश


हम लुट गए। ताज की मोहब्बत में। किसे दोष दे सकते है। बीते दिनों जिस तरह से आपने देश प्रेम और ताज प्रेम की भावना का सम्मान करते हुए करोड़ो वोट एसएसमएस और इंटरनेट के जरिए दिए उसी ने ताज को आज सात अजूबों में खड़ा किया है।

ताज को सात अजूबों में मानना उनकी मजबूरी और फायदा रहा जिन्होने ये पूरा जाल बुना था। जाल। जी हां। एक स्विस व्यापारी। उनका व्यापार। पूरी दुनिया। एसएमएस का पैसा। और सात अजूबे।

बर्नार्ड वेबर नाम के स्विस व्यवसायी ने न्यू ओपेन वर्ल्ड कारपोरेशन के जरिए जो तमाशा फैलाया उससे यूनेस्को तक को कोई सरोकार नहीं है। यूनेस्को ही विश्व धरोहरों की देख रेख के लिए वैश्विक उत्तरदायी मानी जाती है। बेवर ने अपने कारपोरेशन में यूनेस्को के एक पूर्व निदेशक को लिया, नाम फेडेरिको मेयर। और अपने धनकमाऊ प्रोजेक्ट को दी वैश्विक विश्वसनीयता। यानि एक निजी कंपनी ने ले लिया दुनिया को नए सात अजूबे देने का ठेका।

अब बात भारत में ठगे जाने की एक बानगी। आईएमसीएल नाम की एक कंपनी के पास थे वो राइट्स, जो कि आपके द्वारा किए जाने वाले हर एसएमएस पर कमा रहे थे। और इस कमाई का हिस्सा जा रह था, सरकार को, टेलीफोन(एयरटेल, हच, आईडिया, बीएसएनएल) सेवा प्रदान करने वाली कंपनियो को और वेबर को।

सबसे बड़ी बात जो गौर करने लायक थी कि एक व्यक्ति जितनी बार चाहे उतनी बार एसएमएस करके वोट कर सकता था। यानि आपके हर बार के राष्ट्रप्रेम की कीमत आप चुका रहे थे।

मिस्त्र में इसे लेकर काफी हो हल्ला मचा। सो इस समझदार व्यवसायी ने मिस्त्र के पिरामिडो को दे दी "हानररी न्यू सेवन वंडर्स कैंडिडेट" की उपाधि। मिस्त्र वालों को इस बात का डर था कि वे कही इस दौड़ में लिस्ट से गायब न हो जाए।

हर देश के लोगों ने अपनी पहचान को बरकरार रखने के लिए दस करो़ड़ के करीब वोट डाले। यानि अगर एक अनुमान भी लगाएं, तो तीस करोड़ रूपयों में से सबने अपना अपना हिस्सा खाया।

तो किसको दोष दें। जाहिर है मीडिया को। रातों दिन पेपरों, रेडियों और अखबारों ने चीख चीख कर ये कहा कि बस दो दिन, छह धण्टे बचे है। ताज को सरताज बनाने में। सारे देश को भी बिना किसी मेहनत के वोट करना था। सो तीन रूपए देने में किसी ने हर्ज नहीं जताया। लेकिन हमारे हित की बांचने वाले पत्रकार कहां थे। क्या ये कर्तव्य नहीं बनता था कि अखबार, टीवी और रेडियो वाले ये जांचे कि जिस विरासत को हमने बिना किसी वोट के सात अजूबों में माना था, उसके लिए बिना किसी प्रामाणिक संस्था के वोट की ये कारस्तानी को उजागर करे।

सारी पत्रकारिता किसी खुलासे के ईर्द गिर्द करने वाले टीवी चैनल और आम आदमी की खबरों को परोसने वाले अखबार क्यो सोते रह गए। अब क्या बचा है। खुश होना चाहिए कि नासमझ जनता ने अपनी देश भावना से लाज बचाई। वरना अगर ताज न चुना जाता तो क्या होता।

जाहिर है बाजार और नई तकनीकी के साथ किसी भी साजिश को बड़ी ही खूबसूरती से लूटने का औजार बनाया जा सकता है। मुझे ये विदेशी डायरेक्ट मार्केंटिंग के जमाने से चुभ रहा है। और आज इसकी चुभन और बढ़ गई है।

Soocak
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Friday, July 06, 2007

इस हमाम में सब नंगे

पत्रकार वो जो खबर के लिए किसी से भी लड़ जाए। पत्रकारिता वो जो समाज के हित में किसी भी खबर को आपके सामने लाए। लेकिन इसी पत्रकारिता के कई चेहरे है। राष्ट्रीय,क्षेत्रीय और स्थानीय पत्रकारिता के हित भी अलग अलग है। जहां देश के स्तर पर पत्रकार देश हित को देखता है तो क्षेत्रीय स्तर पर वो मकान और ठेके की भी सोचता है। वहीं स्थानीय पत्रकारिता ने तो सारी हदें ही तोड़ रखी है। ब्लाग की हिंदी की दुनिया में एक चिट्ठे से ये वाक्या मिला।

आप भी पढ़े...
और ये चैनल के (नंगे) रिपोर्टर

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Thursday, July 05, 2007

'सूरज' और टीवी समाचार का भविष्य

देश के सामने सूरज खड़ा है। या कहें कि एक बोरवेल के गड्ढे में गिरा है। उसे बचाने में मीडिया लगा है। वो बचा भी ले शायद। हरकतें बता रही है कि सूरज या तो बेहोश है या वो…। मीडिया के सामने वो एक लाइव रिपोर्ट है। पल पल की खबरें। देखा जाए तो ये देश किसी ओर से कोई सबक लेता नहीं दिखता। मीडिया भी सबक नहीं लेता। एक जान की कीमत से किसी को कोई गुरेज नहीं है। लेकिन ये हादसा यहीं बताता है कि इस भावनात्मक देश में कुछ घण्टों के लिए पूजा अर्चना के लिए तो वक्त है, लेकिन स्थानीय हादसों को रोकने की इच्छा उनमें रत्ती भर भी नहीं है। कल रात से ही देख रहा हूं। और आज शाम तक सूरज की जान बचाने के लिए सारा किया धरा हल्का पड़ रहा है। कैसे हम आप चाहते तो है पर बेबस है। एक क्रेन के उलटने से एक घायल भी हो गया। सीसीटीवी और तमाम फुटेज भी हमें यही बता रही है कि हम अब केवल टीवी के सामने देख ही सकते है कि क्या होगा आगे। ब्रेक लेने का सिलसिला इस बार टीवी नहीं छोड़ना चाहता है। प्रिस के मामले में टीवी ने मिसाल पेश की थी। इस बार को उसी के बिना पर चीख रहा है। देखिए ये भी कैसा विरोधाभास है। सोचकर देखिए क्या बाजार ऐसी खबरों को पसंद करता है। करता है। क्योंकि बाजार कोई मशीन नहीं। उसे तो बस टीवी पर ऐसा कंटेंट चाहिए, जिससे दर्शक चिपका रहे। और इसी के बीच में वो प्रचार को परोस कर खरीदार को माल तक ला सकें। देश और दुनिया की तमाम गंभीर खबरो में रूचि रखने वाले के लिए अब जनसंचार माध्यमों में जगह सिमट रही है। वो भी सूरज के निकलने के इंतजार में है। आने वाले दिनों में आप देखेंगे कि सूरज और प्रिस तो होते रहेंगे, पर भावनात्मक खालीपन में दर्शक के लिए उनसे जुड़ना मुश्किल होगा। तो क्या होगा।

आज आप पाते है कि खबरों में जो रोमांच दिखाया जाता है वो असल जिंदगी में दिखता नहीं है। आज आप देखते है कि जिस तरह की पेशकश के जरिए एक आम सी खबर को ताना जाता है, वो सूचना महज एक लाइन की होती है। तो कैसे रख पाएगा टीवी अपने दर्शको को बाखबर।

आने वाला समय ये तय करेगा कि टीवी के लिए क्या सूचना जरूरी है या खबर की सनसनी। आप कहेंगे कि मुद्दा पुराना है। लेकिन गौर से देखिए। टीवी ने अपना सफर पहले खरी खरी राजनैतिक खबरों से शुरू किया। फिर इन्ही खबरों को मसाला और नमक लगाकर पेश किया गया। इसके साथ ही भारतीय टीवी चैनलों ने बरसो से पेंचीदी किस्म के सामाजिक मुद्दो को भुनाना शुरू किया। मसलन, पंचायत और तलाक। ये बात ज्यादा आगे न बढ़ पाई थी कि टीवी ने पकड़ लिया पारिवारिक संबंधों की दरार को। हर दरकता परिवार अब नंगा था समाज के सामने। साथ ही टीवी ने भारत की नब्ज पकड़कर सस्ती खबरों और अंधविश्वास को बेचा। और आज ये सिलसिला सेक्स, सस्पेंस और सेंसेशन पर टिका है। आपको हर खबर में ये फैक्टर दिखेंगे। चाहे वो लिखने का पक्ष हो या टीवी पर दिखने का।

तो क्या सूरज बचेगा। हां। सूरज को आज भले ही गड्ढे में देखा जा रहा हो, लेकिन जिस तरीके से,या कहें कि अनजाने में टीवी ने लोकतंत्र में एक जान की कीमत बता दिया है, वो ही उसे बदलने को मजबूर करेगा। एक औरत आज सुबह अपने आधे कपड़े उतार कर सड़को पर आ गई। उसे ससुराल वाले प्रताड़ित कर रहे थे। वो क्या करती। उसने सबसे सटीक उपाय ढूंढा। विरोध का। और इसका असर देखा गया।

आने वाले समय में आपके पास समय ही कम होगा। और ऐसे में खबर के देखने की आपकी पंसद भी निश्चित होगी। तो इसके लिए आपकी राय ली जानी जरूरी है। बस, यही से शुरू होगी एक ऐसी प्रक्रिया, जिससे आप देख पाएंगे खबर। तो क्या आप तैयार है अपना मत देने के लिए। हर दिन हर समाचार चैनल पर उनके फीडबैक के लिए फोन, पते और ईमेल दौड़ते रहते है। और अपनी सूचनात्मक जिंदगी में आपके पास इतना वक्त तो होगा ही कि आप दो चार शब्द कह सकें।
यकीनन सूरज को बचना चाहिए। लेकिन उसे आप बचा सकते है। जागकर। सवेरा हो गया है।

'सूचक'soochak@gmail.com

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Tuesday, July 03, 2007

Citizen Journalism : A reality byte

Mumbai is drowning, Kerala is flooded and Kolkata is sailing. Then what can Television news do? Every time we see a crisis is looming, CITIZEN JOURNALISM cry is on every channel, especially on english news channels. After completing one year in India, citizen journalism is only tatooed on the arm of educated one. Those who speak well are citizen journalist!

Well Media Yug got a good article on CITIZEN JOURNALISM.

Citizen journalism: A journey unfinished

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Monday, July 02, 2007

भूत और कामुकता के बीच विज्ञापन

भागो भूत आया। अरे भई ये भूत अमिताभ बच्चन का है। और वो भी कैडबरी चाकलेट के प्रचार में। क्या टीवी के भूत अब तीस सेंकेंड वाले प्रचारों में आ गए है। स्वाद के दीवाने ही जाने। बहरहाल भारतीय टीवी पर्दे पर दिखने वाले प्रचारो की किस्में बांचने वाले आजकल तकनीकी, अंधविश्वास, साहस और कामुकता के बीच डोल रहे है। मिरिंडा के प्रचार में जाएद खान एनिमेटड कैरेक्टर में बदल जाते हैं तो थम्पअप के एड में अक्षय कुमार किसी स्पाइडर मैन को भी मात देते है। वहीं अमूल माचो ने तो कामुकता को धोबी घाट पर ही धो डाला। एक धोने वाले साबुन और डिटर्जेंट ने सबको कन्फ्यूज ही कर दिया। रिन अब सर्फ एक्सेल हो गया है। मतलब। मतलब की उन्नीस रूपए का साबुन। कपड़े धोने के लिए।

टीवी पर अब कार के प्रचारों ने काफी जगह घेरी है। तमाम ब्रांड अपनी अपनी खासियतों से लैस कार को टीवी पर ब्रेक लगा रहे है। दूसरा स्पेस घेरा है होम अप्लाएंसस ने। घर में हर चीज केवल एक शब्द से। ईएमआई।

पंखों के प्रचारों मे आजकल बेतहाशा बढ़ोतरी देखी जा रही है। मानो पंखे से तनाव, पंखे से यौवन और पंखे से ही ताजगी आती है। आती है जनाब पर उस ग्रे मार्केट का क्या करिएगा, जो आज ब्रांडेड की आधी कीमत में भी हवा देता है।

वैसै एपेनलिबे के शेरो शायरी वाला प्रचार देखकर मन थोड़ा मीठा जरूर हो जाता है। वहीं दांतो की चमक से रास्तो को गुलजार करने वाला प्रचार अनोखा और बदहजमी जैसा दिखता है।

हवाई यात्रा के अनुभवों से रूबरू जनता को लुभावने एयर होस्टसों को तैयार करने वाली कंपनियों के एड जरूर भाते होंगे। कोई हवा में उड़ना चाहता था तो कोई इसे अपनी चाल से ही ये जता देता है कि वो खास है।

खास अंदाज में पानी की छींटे रंगीन अंदाज में टपका टपका कर रिलायंस की बातों के रंग एक गीला गीला सा अनुभव पैदा करते है। बातचीत में रंगीनी तो समाज में कुछ और ही मानी जाती है वैसै। प्रेमियों को रात भर बात करने की आजादी का ख्याल मोबाइल कंपनियों ने सदैव रखा है भई। चक दे फट्टे और मोबाइल की चोर को सुविधा देने वाले प्रचार मोबाइल की अहमियत बता रहे है।

कुछ प्रचारों के साथ ब्रांड इमेज जुड़ी होती है।जैसे मयूर और च्यवनप्राश के सारे एड। मयूर का चेहरा तो सलमान खान हो गए है तो अमिकाब बनाम शाहरूख की लड़ाई च्यवनप्राश और कुछ सूटिंग शर्टिग वाले विज्ञापनों में देखी जा सकती है।
टीवी को दिखाने की एक और लड़ाई जारी है। डीटीएच के जरिए। टाटा स्काई लगवाए या डिश टीवी। डायरेक्ट प्लस, डीडी वाला भई, को तो कोई पूछ ही नहीं रहा है।

टीवी से कम्पूटर के खरीदार भी खूब बन रहे है। लिनेवो को आपको खोने के बाद भी पहचानने का दावा करता है। और काम्पैक का दुकानदारी शाहरूख बढ़ा ही रहे थे।

लेकिन जिस सेक्टर ने सबसे ज्यादा टीवी को घेर है वो घर का मामला है। घर बनाना है। रिएल स्टेट में तो इतने नाम आ गए है कि यहां उन्हे गिना पाना आसान नहीं है। रेडियों में तो वे हर गाने के आजू बाजू खड़े है।

तो क्या हम सूचना के बाढ़ में तैर रहे है। हमारे आस पास की इमारतों नें खिड़किया कम नजर आने लगी है। प्रचार के बोर्ड ज्यादा हो गए है। आकाश के बीच में एक बड़ा सा आउटडोर एजवर्टाइजिंग का बिलबोर्ड टंगा है। जो बताता है कि हम बनाए आपका जीवन सुंदर।

दरअसल पेपर वालों से लेकर टीवी-रेडियो-इंटरनेट वालों तक सबको रोजी रोटी देने वाले विज्ञापन आज उत्पाद की हर दुकानदारी में लगे है। आपकी नजर में बने रहना ही उनकी जरूरत है। और इसके लिए आपको चौकन्ना करना इनकी जिम्मेदारी है। आने वाले दिनों में आपके मोबइल पर इनका कब्जा होना है। और फिर आपकी निजी जिंदगी में ये हर पल कहते रहेंगे कि वेअरएवर यू गो, आवर नेटवर्क फालोज।

Soochak
soochak@gmail.com

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