Monday, August 27, 2007

टेलिलिटिगेशन और समाज


क्या टीवी अदालती फैसलों को प्रभावित कर रहा है।
क्या टीवी पर बार बार दिखने वाले चेहरे अपराधी की परिभाणा अपनी छवि से बदल रहे है।
क्या टीवी ने हर नामी गिरामी पर दिए जाने वाले फैसले पर सहानुभूति बटोरना शुरू कर दिया है।
क्या टीवी फैसलों में अदालती बराबरी को हैसियत वालों के हिसाब से देख रहा है।


ऐसे तमाम सवाल है जो बीते दिनों संजय दत्त और सलमान खान को दिए गए फैसलों की छांव में खड़े किए जा सकते है।

ये सवाल कोई भी आम आदमी उठा सकता है। इसके लिए पत्रकारिता की लाठी थामे हाथों की जरूरत नहीं है। पत्रकार को खबर और खबर बनने वाले के बीच की फासला बड़ा करना होगा। नहीं तो वो खबर वाले की छवि में खबर को खो बैठेगा। कुछ ऐसा ही हो रहा है।

बीते दिनों कई बड़ी हस्तियों की प्रामाणिकता पर सवाल खड़े हुए है। चाहे गवाह के साथ बचाव पक्ष का वकील का साठ गांठ हो या मुंबई में वारंट की खरीद फरोख्त का मसला हो। टीवी ने कही न कही हर खबर से एक नया दायरा खड़ा कर दिया है। सोच को पक्ष में करने का दायरा।

संजय दत्त या हो सलमान खान दोनों को दिए गए फैसलों में टीवी ने उनके जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों और मार्केट,यानि बालीबुड पर असर को बढ़ा चढ़ाकर दिखाया। सलमान को तो मानो शुक्रवार को सजा देना ही गलत था। संजय दत्त की मुन्नाभाई छवि और बीते दिनों सलमान की चित्रकार की इमेज के दायरे में पेश की गई हर खबर के मायने आम आदमी के सहानुभूति पैदा कर रहे थे।

अमेरिका में एक मामले में इसे लेकर बड़ी जोरदार चर्चा है कि टीवी पर होने वाली ट्रायल के क्या असर है। वहां के इतिहास में अब तक की सबसे चर्चित मीडिया ट्रायल को लेकर अब किताब भी आ गई है। और इस टीवी ट्रायल को टीवी लिटिगेशन का नाम दिया गया है।

टीवी लिटिगेशन। यानि टीवी के जरिए एक ऐसी हस्तक्षेप जो जाहिर है समाज में होने वाले किसी भी किस्म के अपराध और अपराधी के पक्ष में चलाया जा रहा अभियान ही समझा जा सकता है।

ये एक नए तरह की अदालत है। जहां जनभावनाओं के अनुकूल ही फैसलों के लिए राय बनाई जाती है। राय भी ऐसी जो एक झटके में को सही लगती है। लेकिन जिसके परिणाम किसी भी समाज में एक आदर्श मिसाल नहीं बन सकते।

मिसाल बनाने वाला टीवी अब रहा भी नहीं। फौरी खबरों के लिए फौरी तैयारियों के बीच खबर पेश करने की जो कला, या कहें कि विकृति टीवी ने पैदा की है, वो जाहिर है किसी भी देश में मिसाल को नहीं ही बना सकती।

टीवी ने स्वरूप बदला। खबर के चेहरा बदला। दर्शक की सोच बदली। समाज की रूख बदला। और अब ये बदल रहा है एक देश की संस्कृति को। इसे किसी तरह की तैयारी नहीं करनी। क्योंकि आप खरीदार है। और बेचना ही, फैल चुकी लोकप्रिय संस्कृति की निशानी है।


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Sunday, August 26, 2007

Media Law and Ethics

In the era of media the most vulnerable term is Media Ethics. Ideally media has to always try to portray the truth of the society, but practically it is not visible. This is the common reaction of channel and newspaper heads that there is some sort of market interference, which succumb us to live in paparazzi and trivial issues. This is the play ground where all bad traits of journalism prosper in the name of market and livelihood. So what is the future? Every human who work for society in the name of journalist is little confused and want to take a breath.

This breath is come into the shape of writing and analysis. Television folks are always cursing print folks for not understanding the ground realities of television journalism. And television folks always busy in leg pulling of print for their style and traditionalism. This is the river, which has two corners. Both are shaping society, but not along with a common view. That’s why you saw a big gap between news paper and television news.

In the light of a new book, Media Law & Ethics: Reading in Communication regulation, Edited by: Kiran Parasad, the issues are more discussable for the mass communication student, journalist and for the civil society intellectuals. The book is published in two volumes, Volume 1 covers: Section 1(THEORITICAL FOUNDATIONS OF COMMUNICATION REGULATION) Freedom , Regulation and Ethics: Market, State and Media Accountability System- Claude-Jean Bertrand, Communication and Values- Kiran Parasad, A theory of Media Ethics: Foundation and Key Issues- Kiran Prasad, Satellite Broadcasting Regulation and Cultural Exception: An Arab Islamic View of Communication- Basyouni Ibrahim Hamada , Section 2 (PRESS AND BROADCASTING REGULATIONS) Law and Regulations Governing Press Freedom in India-P E Thomas, Laws and Regulations in Indian Broadcasting- G Nagamallika, Foreign Direct Investment in Print Media: Legal and Ethical Issues- Roy Mathew, Freedom, Individualsim and Ethical Behaviour: A Comparative Study of Print and Electronic Media Journalist- Kiran Parasad, Electronic New Media and Emerging Ethical Issues- Bhavya Srivastava.

This is not the all that the volumes cater, the whole dilemma facing by mass media and the booming new media is also covered in depth, in two books. The most fascinating thing the arena it covers. From Print to Television, Communication to Market, Law to Democracy, Individualism to mass media.

Media is as diverse as this country is. We must understand the limitations in which the news and content is present. The medium is the message, and when the message is clear it shapes society. Overall we have to live in a society, which created leader and dominates the values.

Media Ethics is always everywhere, in every newsroom, there is a veteran, who is anguish about the drama and press the PRESS button.



Bhavya Srivatava
Producer
Star News


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Sunday, August 19, 2007

सरोकार से शोर की पत्रकारिता

आउटलुक हिंदी देखी। चैनलों की गलाकाट प्रतियोगिता, या कहें कि विध्वंस प्रस्तुति को लेकर कवर स्टोरी छपी है। देखकर अजीब लगा। प्रासंगिक है। लेकिन क्या सरकार की एक मुहिम की छांव में चैनलों की हकीकत बताना जायज है।

समाचार चैनलों पर क्या दिखाया जाएगा, ये तय करना समाज का काम है। लेकिन भारत जैसे देश में समाज की सहमति को लेकर ही कई तरह के भ्रम जनसंचार माध्यमों में नजर आते है। पत्रिका में जो विमर्श है, वो समाज में नहीं दिखता। एक बड़े पत्रकार ने लिखा कि किसको बता रहें है कि जो दिखाया जा रहा है, वो सही नहीं है। जो टीवी देखता है, वो आम आदमी हो या खास, वो अपनी व्यस्तता के बाद ही इस चौखटे के सामने बैठता है। और इसी व्यस्तता की थकान मिटाने को टीवी चैनलों ने इस चौखटे को मनोरंजन का माध्यम बना रखा है।

सिनेमा को लेकर यहीं निष्कर्ष निकाला जाता है आदमी को वो दिखाओ जिससे वो सिनेमाहाल में अपनी निजी जिंदगी को भुला बैठे। यानि एक तरह की माया। जिसमें आप अपनी पहचान भुला बैठें। तो क्या टीवी ने भी आपको अपनी पहचान भूलने पर मजबूर कर दिया है।

गाहे बगाहे आप अपने अखबार में टीवी की खबरों के चुनाव और असर को लेकर लेख पढ़ते रहते है। इसकी प्रासंगिकता भी खबर को भूलने तक रहती है। क्या इसे दौर कहना उचित होगा, जब एक जल्दीबाजी में टीवी मीडिया खबर और मनोरंजन के बीच की रेखा को भुला बैठा है। क्या खबर को देखने का दिन कोई और होगा।

अनुभव यहीं बताते है कि तकनीकी और समय के साथ मीडिया के विषय उतने ही सीमित होते जाते है, जितनी उनका असर। एक खबर आपको कब तक बांध सकती है। अधिकतम एक दिन। तो फिर कैसे सोचा जाए कि मीडिया का असर लम्बा रहेगा। समाज बदलने की हद तक।

आज विकसित देशों में हर तरह की मीडिया पर नजर रखने के लिए हर तरह के संगठन और तमाम विकल्प मौजूद है। लेकिन क्या इससे किसी देश में सरकार और समाज के बीच मीडिया खड़ा है। क्या वो पुल है। जिससे गुजरकर सूचना समाज के लिए खबर बन जाती है। किसी भी देश में देख लीजिए। बड़े मीडिया समूह पर किसी न किसी घराने का कब्जा है। और यहीं खबर पर कब्जे की वजह है।

विकासशील देशों के हाल और भी नाजुक है। यहां पहले तो मीडिया विकसित सोच की अवस्था में नहीं है, और अगर एक दो देशों में है भी तो वहां दिशा और दशा तय करने वाले कारक उसे प्रभावित करते रहते है।

भारत में पत्रकारिता के आयाम राजनीति, समाज और समय के साथ अर्थ रहे है। सरोकार से शोर की पत्रकारिता आज मौजूद तो है, लेकिन उसका चेहरा बदल सा गया है। आज खबर लहरी है तो साथ में वार्ता फलक भी है। आज द हिंदू है तो टाईम्स आफ इंडिया भी है। आज एनडीटीवी इंडिया है तो स्टार न्यूज़ भी है।

दो चेहरों के बीच खबर ने स्वरूप और सामर्थ दोनों खो दिया है। बचा है तो केवल एक विश्वास कि एक दिन केवल पत्रकारिता के लिए पत्रकार होगा और खबर के लिए हायतौबा।

सूचक
soochak@gmail.com


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Monday, August 13, 2007

ब्लाग्स पर 'मीडिया' के लेख

पत्रकार और मीडिया का नाता श्वास और जिंदगी का है। दोनों के लिए एक उद्देश्य होने पर ही समाज का हित होता है। लेकिन वक्त बदलता गया और दोनों ने अलग अलग राह धर ली। आज पत्रकार एक शून्य में जीता है और पत्रकारिता बाजार में। खैर हमने जब चिट्ठाजगत को खंगाला तो बीते दिनों में ये लेख हमें भाएं।

आप भी पढ़ें....

पत्रकारों पर हमला : एकजुट होइए या फिर पिटते रहिए

दबी , दबती , दब गई जन पत्रकारिता

पत्रकारिता जनता से दूर होती जा रही है : पी साईनाथ

एक पत्रकार की दुखद मौत, हमारी श्रद्धांजलि

विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन से आगे - आलोचनाओं में छुपा है नये रास्‍तों का सफर न्‍यूयार्क से लौटकर :- पवन जैन

मीडिया का गिद्धभोज

श्श्श्श्श… मुस्लिम

एक अच्‍छी बाढ़ सबको पसंद है

मेरे लिए पत्रकारिता की पाठशाला हैं पी साईनाथ

खबर क्या है?

गिरफ्तारी से मालामाल हुआ हनीफ

ये पत्रकारिता का स्‍वर्णकाल है

हिन्दी टीवी पत्रकारिता और पाकिस्तान में फ़र्क है


हिंदी पत्रकारिता का प्रश्न काल

आज कौन तय कर रहा है पत्रकारिता का मक़सद?

स्टाक एक्सचेंज और अच्छी पत्रकारिता का संबंध

टीवी पत्रकारिता का सबसे शर्मिंदा वक्‍त

पत्रकारिता का भटियारापन और वैज्ञानिक का भटकता मन

कब था पत्रकारिता का स्‍वर्ण काल?


पत्रकारिता को ज़िंदा रखने वाले लोग


भूमंडलीकरण और पत्रकारिता

राजा साहब का थोबड़ा टी.वी. में.


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Monday, August 06, 2007

न हंसिए न रोइए, केवल खुद को बचाईए

ब्राडकास्टिंग सर्विसेज रेग्युलेशन एक्ट 2007 के प्रारूप में नजर डालने पर आदर्श और व्यावहारिकता के बीच का फासला नजर आने लगता है। ये पत्रकारिता पढाने वाली संस्थाओं के निकले छात्र और काम करने वाले युवाओं के अनुभव से बेहतर समझा जा सकता है। चौथे पन्ने पर न्यूज एण्ड करेंट अफेयर्स चैनल की परिभाषा देख कर समझा जा सकता है कि खबर के जिस पहलू को हम आज समाचार चैनलों पर देखते है, वो न तो आदर्श में सही है न ही व्यावहारिकता में। मसलन परिभाषा में, एक चैनल को हालिया घटनाओं की रिपोर्ट, बहस, विचार, जनता के बड़े हिस्से की रूचि को दिखाने वाली खबरों, ऐसे व्यक्ति और संस्थाओं को, जो राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक तौर पर जुड़े हो, की खबरें दिखाता हो। ये उस कागज पर लिखा है, जो आने वाले दिनों में हर चैनल के चेहरे पर चिपका होगा।

तो क्या चैनल इसे अपनाने को तैयार है। नहीं। वे स्वयं पर खुद नियंत्रण वाले मूड में है। यानि सेल्फ रेग्युलेशन। नया शब्द नहीं है। पर चैनल चलाने वाले खर्चो के आगे किसी तरह की रेग्युलेशन नहीं पहचानते। वक्त बदला है। लाइव का तमाशा है। इमोशनल खबरों की पूछ है। लो सोसाइटी के विजुअल की इलक नहीं है। शहरों की खबरे है। अपराध की बाढ़ है। और है कुछ मिनट के विजुअल पर घण्टों खेलने का माद्दा।

जरा अपने बच्चे से पूछ कर देखिए क्या वो काण्डोम या एड्स के बीच के संबंध को जानता है। पर वो सेक्स और सेक्सी के अंतर को समझने लगा है। एक हालिया फिल्म में बच्ची नाम सेक्सी पुकारा जाता है।

शिक्षा के दूर जाते चैनल अब आसानी से मिल जाने वाली दोयम दर्जे की खबरों को दिखा दिखा कर समाज को समझा रहे है कि यहीं खबर है। इसे ही देखिए। यही है। पारिवारिक मूल्यों की नींव अब अपराध और नाजायज संबंधों ने हिला दी है। अब केवल समाज में बलात्कार ही नही होता। होता है खुलेआम आवासीय मुहल्लो से देह व्यापार, जिसे स्टिंग आपरेशन से दिखाया जाता है आपको।

रोकना था किसी न किसी को। नागरिक समाज की चेतना को कौड़ी के भाव मानने वाले समाचार चैनलों के स्वयंभू प्रवक्ता अब दिशाहीन नाव के सवार है। एक स्थापित प्रिंट जर्नलिज्म की चीखोपुकार को वे हताशा बताते है। नौकरी पाने की हताशा।

आने वाले दिनों में आप टीवी पर जो देखेंगे वो आपको आपकी आने वाली कई पीढ़ियों तक व्यवहार और आचार में देखना पड़ेगा। किसी दिन किसी तमाशे के किरदार आप होंगे और उस दिन आप न हंस सकेंगे न रो।

http://mib.nic.in/informationb/POLICY/Bill200707.pdf

Soochak
soochak@gmail.com

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Thursday, August 02, 2007

Good drought to Magsaysay Award.

Palagummi Sainath. A name of a dedicated Indian. We know him by Everybody Loves A Good Drought.. Sainath gets 2007 Ramon Magsaysay award for Journalism, Literature, and Creative Communication Arts.


This is a moment of accredition. We got a current interview of Sainath on India Together.

Have a look on the Bharat, he thinks.

"Invisible India is the elephant in your bedroom"

MediaYug


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