Internet changes the social communication of urban society. We may face a virtual identity on net, but geeks enjoy anonymity. In the meantime, the media, aviation, retail, tele communication, finance, investments are become your second land on Internet. You use Internet to deal anyone, buy and purchase,make your life easy and save time.
But all merits have demerits. So, the ticket booking facility of Internet has some dark circles.
Read this email, this is ent by a buyer of internet ticket.
Media Yug got this mail on 17 November by k.i.s.sandhu@gmail.com.
And we only want to aware the internet community, that this is also a issue to concern. The mail was sent to some media news channels.
Media Yug
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from k.i.s.sandhu@gmail.com
to feedback@ndtv.com,
info@aajtak.com,
info@saharaone.com,
mediayug@gmail.com,
email@indianews.com,
editor@ibnlive.com,
web.moca@nic.in
date Nov 17, 2007 5:38 PM
subject An important issue....
mailed-by gmail.com
Hi,
I am Kanwar Inder Singh Sandhu. I am working at Bangalore.
I have a complaint regarding the airlines and the websites which book the tickets for the domestic airlines
I have purchased a ticket from ezeego1.com on 23rd October, 2007 . Ticket was scheduled for Delhi to Bangalore on 12th November, 2007 at 7:10 a.m. in morning. PNR number and reference number was issued for the ticket by ezeego1.com. Ticket was with JetLIte airways. The amount has been deducted from my ICICI Gold Credit Card.
When I reached the airport at 4.30 a.m. on the day of departure I asked the JetLite officials at the airport counter to confirm that ticket is ok. That guy, only having a look at the e-ticket print out, confirmed the ticket and asked me to enter into the terminal via gate number 1. I (as ticket was confirmed by airline official), asked my parents to leave for Patiala, Punjab.
After my parents left, I entered the terminal to get the boarding pass. I got through my luggage scanning and get into the queue for getting the boarding pass. But to my utmost surprise the JetLite official at the boarding counter, declined the air ticket saying that there is no booking for the specified PNR and reference number. I again checked with the reservation officials of JetLite. At this time officials were changed and after checking into the system they refused the ticket and told that they can't do anything about this. And I was not allowed to board the plane.
I tried calling ezeego1 customer center numbers but no one was picking up the phone. And the situation is same till today. No one picks the phone even after 30 minutes of call. So, I with no option left I started looking for another flight but due to diwali season no flight was available for 12th November, 2007. So, after 5 hours fight with JetLite and ezeego1 I left the airport and went for hotel in Delhi.
Then I got the flight for Wednesday i.e. 14 th November, 2007. I have to stay at a hotel at Delhi, lost three working days and an important meeting at office, and new flight cost me a lot. The mental and physical harassment that I went through was immense.
After reaching Bangalore I mailed ezeego1 and JetLite asking for explanation for the same and refund of ticket charges. JetLite responded back with the same answer that there was no booking for your PNR that's why you were not allowed to board the plane. But the frauds, ezeego1, have not replied till today. I have mailed them three times but of no use.
There are some other guys and gals which are facing the same problem with the tickets booked from ezeego1. You can check them out at
http://www.complaintsboard.com/complaints/ezeego1-travels-amp-tours-pvt-ltd-c33102.html
I know two guys personally who went through the same, these guys are:
Gaurav Banyal
Location: Bangalore .
Contact Number: +91-9986082635
Shailesh
Location: Bangalore .
Contact Number: +91-9886289201
I kindly request you to please help us out. And help us to bring this issue in front of Indian public and government, So that no other fellow Indian should face the same problem as we are facing right now. Indian government should take a strict action against these websites.
If you want I can give you e-ticket copy and the scanned copy of the written and duly stamped statement from JetLite.
Waiting for your help,
Kanwar Inder Singh Sandhu,
+91-9980788000
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Sunday, November 25, 2007
छोटे शहरों में लोकल टीवी
इन तस्वीरों को देखने के बाद जो पहली राय बनती है, वो मायने रखती है। इन्हे कौन देखता होगा। जब आपके सामने आज तकीनीकी ने एक से एक बेहतरीन नजारों और प्रस्तुतियों वाले कार्यक्रम दे रखें है, तो हर मध्यम और बड़े शहर में दसियों की संख्या में चलने वाले इन लोकल चैनलों के ग्राहक कौन लोग हैं।
आज हर एक लाख से ऊपर की आबादी वाले नगर में कई लोकल चैनल चल रहे है। इनमे से ज्यादातर तो केबल कनेक्शन के संजाल का व्यापार करने वाले लोगों के है। ये धंधा भी इसी तरह पनपा है। लोकल टीवी का मतलब भी है कि पूरी तरह स्थानीय। मालिक से लेकर खबर तक। हम इस परिभाषा में अपवाद पा सकते है। सिटी चैनल या इन केबल जैसे चैनलों के तौर पर, जो बड़े शहरों में जीटीवी और हैथवे के लोकल चेहरे हैं।
खैर, बात को छोटे शहरों के लोकल प्रसारणों पर लाते है। तो क्या शहर के लोगों को सचमुच इन लोकल चैनलों पर दिखाए जाने वाले लोकल लेवल के प्रसारणों में रूचि है। अगर आप व्यापार की नजर से इसे देखेंगे तो ये कुछ लाखों का खेल है। प्रसराण के लिए केबुल वाले से सांठगांठ और दिखाने के लिए कुछ कैमरों और एडिटिंग मशीनों की पूंजी। और कमाई के लिए टीवी के हर कोने में कुछ हजार रूपयों में चलने वाला व्यापार।
दरअसल लोकल टीवी ने तकरीबन आज से पांच छह साल पहले अपनी पारी शुरू की। मानिए कि क्षेत्रीय चैनलों के शुरू होने के बाद से। आईडिया वहीं था, लेकिन दिखाना क्या था ये तय नहीं था। सो इस पारी की शुरूआत हुई दिन भर गानों की पेशकशों से। पहले बालीवुड, फिर क्षेत्रीय संगीत फिर पाइरेटेड नई फिल्में, कभी कभी कोई एडल्ट मूवी और फिर शाम को दूरदर्शन की तरह तय समय पर दिखाया जाना लगा समाचार।
समाचार का अपनी दायरा होता है। सो लोकल टीवी ने दायरा बनाया नगर और गांव को। सांसद, विधायक, उद्धाटन,अपराध, सांस्कृतिक कार्यक्रम, खेल आयोजन, और तमाम शहरी जानकारियां। इन खबरों में साफगोई के अलावा सबकुछ होता है। दृश्य टीवी पर चलते है। और राय बनाने से इनकी सरोकार कम होता है।
लोकल टीवी में जो आता जाता है, वो उस इलाके में तभी देखा जाता है, जब वहां की खबर या अपनी मौजूदगी उसमें दर्शक को दिखती है। समस्या उठाने से लोकल टीवी का नाता कम ही दिखता है। लोकमंचों में भी प्रस्तोताओं की लचर प्रस्तुतियों से मुद्दा कमजोर होता है। स्थानीय हितों के आगे सबकुछ कमजोर नजर आता है।
शायद तभी लोकल टीवी की छवि टीवी पर धुँधली नजर आती है। लेकिन इससे हमें ये संकेत भी मिलता है कि हर मोर्चे पर आपको दिखाने वालों की कमी नहीं है। लेकिन जिसे देखना है वो शायद अभी ध्यान नहीं दे रहा है।
आने वाले वक्त में बाजार और चेतना के बढ़ने पर इन लोकल चेहरों में कुछ पैनापन आएगा। इसकी वजह संचार माध्यमों से मिलने वाली धारदार सूचना और कम्पेरिजन होगा। उम्मीद है कि ये लोकतंत्र में आवाज को आगे लाने में मददगार होंगे।
सूचक
soochak@gmail.com
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Sunday, November 11, 2007
ओम शांति ओम बनाम सांवरिया
कला बनाम तमाशा। ओम शांति ओम बनाम सांवरिया। या कहें सांवरियां बनाम ओम शांति ओम। एक में बिखरा है नजारों का तमाशा तो दूसरी कला की नुमाइश पेश करती है। दोनों ही फिल्में पिछले दिनों एक दूसरे से टीवी पर जंग लड़ रही थी। अपने आप को हर घर, हर दिमाग और हर सोच में बुनने के लिए टीवी से बढ़िया हथियार कुछ नहीं हो सकता है। वार जारी रहे।
दोनों फिल्मों में समानताएं है। आप कहेंगे क्या गैरजरूरी बात है। पर है। ओम शांति ओम का स्ट्रगलिंग करता ओम बनना चाहता है सुपर स्टार। सांवरियां का राज भी अपनी पहली पेशकश, स्टेज पर, के बाद रानी मुखर्जी से पूछता है कि क्या वो स्टार बन सकता है। ओम की शांति से दोस्ती के बाद दूसरी मुलाकात में शांति उसे नजरअंदाज करती है। राज से दूसरी मुलाकात में सकीना भी यहीं करती है। एक माया को हकीकत बनाती फिल्मी दुनिया के फसाने को सपनों में बुनकर बदले की भावना के साथ पर्दे पर पेश करती है। तो दूसरी यानि सांवरिया भी एक फंतासी लोक में एक हीरो की हीरोइन से मुलाकात करवा फसाने बुनता है।
लड़ाई व्यक्तित्व की ज्यादा लगती है। पर्दे पर आप संजीदा अभिनय को हमेशा सराहते है। भावुक हुए तो आंसू आंख कि किनारों पर आ जाते है। ओम शांति ओम में ओम का दिल टूटना, आग में प्यार का खाक हो जाना, पुरानी बातों में खुद को तलाशना या सांवरिया में राज की चुभन, सकीना का जुनूनी प्यार, गुलाबजी की नापाक मोहब्बत सब छू जाती है। लड़ाई किरदारों ने लड़ी है और हर कोई इनाम का हकदार है।
पर्दे का हीरो लबरेज है एक नई ऊर्जा से। शाहरूख की चपलता, रणबीर की चंचलता, दीपिका की मदहोशी, सोनम की खामोशी सब कुछ खो जाने के लिए काफी। दीवाली पर बोनांजा है ये सब।
एक दर्शक को खींचने में ओम शांति ओम ज्यादा सफल बताई जा रही है। सांवरिया की स्टारटिंग धीमी रही। क्या इसे दोनों की पटकथाओं में दर्शक की रूचि का परिणाम माना जाए। खैर आम दर्शख पटकथा क्या जाने। उसे तो उसके आस पास के संचार माध्यमों ने बताया कि ओम शांति ओम फुल्ली टाइमपास एंटरटेनिंग मूवी है और सांवरिया एक गंभीर निर्देशक की नायाब प्रस्तुति। जाहिर है मनोरंजन प्रथम। सो ओम शांति ओम ने अभी मार रखी है बाजी।
सांवरिया के एक दृश्य में भारत का जिक्र है। राज की मकानमालकिन कहती है कि ऐसा तो भारत के इतिहास में पहली बार हुआ होगा। राज अपने कपड़े प्रेस कर रहा होता है। एक फंतासी दुनिया, नीले काले सेटों की यूटोपिया, और प्यार को तलाशते दो अनोखे किरदार। रूसी कहानी से प्रेरित फिल्म में भारत की जिक्र निर्देशक की चूक है या सोचा समझा छलावा।
ओम शांति ओम में इक्तीस सितारों वाले गाने के बाद हीरो जा पहुंचता है अपनी पिछली जन्म की मां के पास। कैसे उसे सबकुछ याद आ गया। आखिरी सीन में भूत बनकर शांतिप्रिया आ धमकती है। पुनर्जन्म और भूत। जबकि फिल्म में विलेन बने मेहरा खुद ओम कपूर से कहते है कि पुनर्जन्म की कहानी पर फिल्म बनाना बेवकूफी है। ओम शांति ओम अपने ही फार्मूले को फिल्म में कई बार काटती है। पर चलती है।
भारतीय सिनेमा में दो नए चेहरों की नुमाइश में इन दोनों फिल्मों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिल्मों को कला को सर्वश्रेष्ठ माध्यम माना गया है। और कला की नुमाईश में सचमुच कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है ओम शांति ओम और सांवरिया ने।
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Friday, November 02, 2007
खून में सने शब्दों का दौर
एनडीटीवी के पत्रकारों प्रकाश सिंह और अभय मोहन झा समेत अन्य चैनलों के पत्रकारों पर बिहार के दुर्दान्त विधायक अनंत सिंह द्वारा किए गए हमले की मीडियायुग घोर निंदा करता है। पिछले दिनों देहरादून समेत पूरे देश में जिस तरीके से पत्रकारिता पर हमले तीखे हुए हैं, वह दिखाते हैं कि किस तरीके से सत्ताएं अब निरंकुश होती जा रही हैं और सचाई को दबाने की साजि़शें तेज हो रही हैं। हालिया घटना के बहाने दुनिया भर में पत्रकारों पर हमलों का जायज़ा लेती अभिषेक श्रीवास्तव की एक रपट कॉम्बैट लॉ के अप्रैल-मई अंक से साभार...
यह सच है कि हमारे समय में सबसे बड़ा संकट यदि खड़ा हुआ है, तो वह सचाई का है। सही सूचना हमेशा सही दृष्टिकोण का निर्माण करती है और परिदृश्य को ठीक-ठीक समझने में हमारी मदद करती है। इस लिहाज से अगर अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर बात की जाए तो हम पाएंगे कि एक परिघटना की तरह जैसे-जैसे अखबारों के संस्करण क्षेत्रीय हुए हैं, घटनाओं के कोने-अंतरे में रिपोर्टर-स्ट्रिंगर फैले हैं तथा टीवी चैनल केबल से ग्लोबल हुए हैं, ठीक वैसे ही सही सूचना का संकट हमारे सामने गहरा होता गया है। चाहे वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इराक, फलस्तीन और लेबनान जैसे संकटग्रस्त क्षेत्रों से रिपोर्टिंग का सवाल हो अथवा मऊ और गोरखपुर जैसे राजनीतिक और साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील पूर्वी भारत और बिहार के इलाके, माइक्रो से लेकर मैक्रो तक सही खबर लाने का न तो आग्रह दिखता है और न ही सूचना माध्यमों की दिलचस्पी कि वे बाजारू एजेंडे को छोड़ कर जनपक्षीय रिपोर्टिंग करें।
एक बार को हम सरसरी तौर पर कह कर निकल सकते हैं कि मीडिया में लगने वाली पूंजी की विशालता और बाजार के ये दबाव हैं, जिसमें जनता के सूचना के अधिकार का हनन होता है। लेकिन, यही एक पहलू होता तो भी बात बन सकती थी क्योंकि बाजार के दबावों से मुक्त होना व्यक्तिगत प्रतिबध्दता और साहस की मांग करता है। चूंकि, पत्रकारिता का मूल स्वभाव ही सत्ता विरोधी रहा है, लिहाजा साहसिक पत्रकारों की आज भी कमी नहीं दिखती। लेकिन, पूंजी दुधारी होती है। बाजार जिस सत्ता विमर्श से संचालित होता है, वह दोहरे तरीके अपनाता है। एक ओर पत्रकार को लिपिक में तब्दील करता है तो दूसरी ओर प्रतिबध्दता और साहस पर प्रत्यक्ष हमले करता है। ये हमले ग्लोबल होते हैं। रूस से ले कर देहरादून वाया इराक अभिव्यक्ति पर गोली दागी जाती है, तलवार चलाई जाती है और दूसरी ओर अभिव्यक्ति को सहमति में बदलने की कोशिशें जारी रहती हैं।
पिछले दिनों मीडिया संस्थानों, प्रेस की आजादी के लिए लड़ने वाले समूहों और कुछ मानवाधिकार संगठनों के एक गठजोड़ इंटरनेशनल न्यूज सेफ्टी इंस्टिटयूट की एक रिपोर्ट आई है जो यह साबित करने के लिए काफी है कि न तो हमारे समय में जनपक्षीय पत्रकारों की कमी है और न ही सत्ताएं उन्हें बख्शती हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि पिछले एक दशक में 1100 से ज्यादा पत्रकारों और उनके सहयोगियों की जानें रिपोर्टिंग के दौरान ले ली गईं हैं। इनमें से करीब आधों को गोली मार दी गई और अधिसंख्य, करीब 657 पत्रकारों को अपने ही देश में रिपोर्टिंग के वक्त मार डाला गया। 'किलिंग द मैसेंजर' नामक यह रिपोर्ट बताती है कि इराक युध्द शुरू होने के बाद पत्रकारों पर हमले बहुत तेज हुए हैं। यह संयोग नहीं है कि पिछले एक दशक में पत्रकारों के लिए सबसे खराब वर्ष 2006 रहा जिसमें मारे गए पत्रकारों की कथित संख्या पूरी दुनिया में 167 रही। यह संख्या 2005 में 149, 2004 में 131, 2003 में 94, 2002 में 70 और 2001 में 103 रही।
पिछले वर्ष की 167 की यह संख्या अगर कम जान पड़ती हो तो 31 दिसम्बर 2006 को जारी प्रेस की आजादी के लिए काम करने वाली संस्था 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' के आंकड़े देख लें। इसमें मरने वालों की संख्या छोड़ दें तो पिछले वर्ष 871 पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया, 1472 पर शारीरिक हमला किया गया या उन्हें आतंकित किया गया, 56 का अपहरण किया गया और 912 मीडिया संस्थानों को प्रतिबंधित किया गया। ये आंकड़े पूरी दुनिया के हैं। सबसे खतरनाक स्थान इराक रहा जहां 2003 में युध्द शुरू होने के बाद से लेकर अब तक 139 पत्रकार मारे जा चुके हैं। इसके बाद सबसे खतरनाक स्थिति रूस और कोलंबिया की रही। रूस इस मायने में विशिष्ट रहा कि पुतिन के सत्ता में आने के बाद 21 पत्रकारों को मार दिया गया। पिछले अक्टूबर में नोवाया गजेटा की मशहूर पत्रकार अन्ना पोलित्कोव्सकाया की दिनदहाड़े गोली मार कर की गई हत्या ने यह साबित कर दिया कि बहुत लोकप्रिय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त बड़े पत्रकार भी सत्ता की हिंसा से नहीं बच पाते। याद करें कि कश्मीर टाइम्स के दिल्ली में ब्यूरो चीफ इफ्तिख़ार गिलानी जैसे लोकप्रिय पत्रकार को भी भारतीय सत्ता ने नहीं बख्शा था, जबकि उनका कसूर सिर्फ इतना भर था कि वे कश्मीर के एक अलगाववादी नेता के दामाद हैं।
एक नई परिघटना पिछले साल यह देखने में आई कि जैसे-जैसे मुख्यधारा के मीडिया में स्पेस घटने के कारण इंटरनेट की ब्लॉग जैसे विधा पर अभिव्यक्ति की बौछारें शुरू हुईं, ठीक उसी गति से इंटरनेट पर प्रतिबंध और हमले भी तारी किए जाने लगे। पिछले दिनों भारत में कुछ ब्लॉग्स पर जबरदस्त प्रतिबंध अकारण ही लगा दिया गया था जो संकेत है कि जितनी तेजी से पत्रकार अभिव्यक्ति के रास्ते खोज रहे हैं, सत्ताएं भी उसी गति से हमले जारी रखे हुए हैं। 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' ने 13 देशों को पिछले वर्ष 'इंटरनेट का दुश्मन' घोषित किया था। इनमें बेलारूस, बर्मा, चीन, क्यूबा, मिस्र, ईरान, उत्तरी कोरिया, सउदी अरब, टयूनीशिया, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान और वियतनाम हैं। इन देशों के ब्लॉगरों और ई-पत्रकारों को अक्सर जेलों में डाल दिया जाता रहा है। वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगाए गए हैं और सत्ता विरोधी संदेशों को मिटा दिया जाता रहा है। पिछले वर्ष 30 ब्लागरों को गिरफ्तार कर कई हफ्तों तक हिरासत में रखा गया था। इन देशों में सबसे आगे चीन, ईरान और मिस्र थे।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमलों को कितनी गंभीरता से दुनिया भर के देशों में लिया जाता है, यह इसी से पता चलता है कि पिछले वर्ष हुई हत्याओं के दो-तिहाई मामलों में हत्यारों की पहचान नहीं की जा सकी तथा सिर्फ 27 मामलों में आरोप दाखिल किए गए हैं। चूंकि, हर साल मारे जाने वाले अधिकतर पत्रकार कमोबेश अचर्चित, छोटे संस्थानों के स्थानीय बीट कवर करने वाले होते हैं, इसलिए उन्हें लेकर बहुत दबाव नहीं बन पाता। और जहां तक बड़े पत्रकारों की हत्या का सवाल है, इनके हत्यारे ही बाद में हत्या की जांच के लिए कमेटी गठित कर साफ बच निकल जाते हैं, जैसा कि अन्ना पोलित्कोव्सकाया के मामले में हुआ है। 'समयांतर' के दिसम्बर 2006 अंक में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक इस बहुचर्चित विपक्षी पत्रकार पर रूस की खुफिया एजेंसी केजीबी की बरसों से नजर थी और हमले भी उसने कई बार करवाए। आखिरकार, अन्ना को जाना ही पड़ा। ठीक ऐसे ही चीन में विदेशी मीडिया के दो बड़े पत्रकारों झाओ यान और चिंग चेयांग को क्रमश: तीन और पांच वर्षों तक जेल में रहना पड़ा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका हल्ला होने के बावजूद उन्हें उनकी मौत की सजा के खिलाफ अपना बचाव करने का मौका नहीं दिया गया था।
आंकड़ों के मुताबिक अगर देखें तो प्रतिवर्ष पत्रकारों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं और धीरे-धीरे खबर लाने वाले जीव राजनीतिक भेड़ियों के सॉफ्ट टारगेट में तब्दील हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इस मसले पर बोलने वाले समूह नहीं, बल्कि मुख्यधारा के मीडिया के भीतर जो विभाजन पूंजी के आधार पर पत्रकारों के बीच इधर के कुछ वर्षों में हुआ है- चाहे वह वेतन का हो, भाषाई कारणों से या प्रोफाइलगत- उसने खुद पत्रकार बिरादरी में ही एक ऐसा सत्ताधारी वर्ग खड़ा कर दिया है जिसे किसी स्ट्रिंगर के मारे जाने का दर्द छू तक नहीं जाता। ऐसे में, हम कह सकते हैं कि आने वाला समय जनपक्षीय पत्रकारिता के लिए न सिर्फ भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण और उदारीकरण के जुमलों की वजह से खतरनाक होगा, बल्कि सीधे कहें तो खबरियों की हत्याएं और बढ़ेंगी।
चूंकि, सूचना हथियार है और राजा कभी नहीं चाहेगा कि यह हथियार प्रजा के पास आ जाए। और, सबसे दीगर बात यह हमेशा याद रखना है, कि पत्रकार चाहे अमेरिका का हो या गाजीपुर का, न्यूयॉर्क पोस्ट का हो या किसी जागरण का, वह आखिर में प्रजा का ही हिस्सा होता है।
घर की आग
चूंकि, भारत में निजी मीडिया को आए एक दशक से कुछ ज्यादा वक्त ही हुआ है, इसलिए यहां अब भी खासकर टीवी पत्रकारिता उतनी परिपक्व नहीं हो सकी है जितना पश्चिमी देशों में है। इसके बावजूद पिछले कुछ दिनों में हर चैनल पर आई स्टिंग ऑपरेशनों की बाढ़ ने पत्रकारों पर हमलों की स्थितियों को पैना कर दिया है। इस तरह के मामलों में हालांकि अब तक कोई बहुत बड़े नुकसान की खबर तो नहीं रही है, लेकिन केन्द्र सरकार समेत राज्य सरकारें जिस किस्म के दमन चक्र की जमीन बना रही हैं, उसमें भविष्य बहुत खतरनाक दिखाई देता है।
छत्तीसगढ़ विधानसभा द्वारा पिछले दिनों लाया गया एक कानून इस मामले में गौर करने लायक है। चूंकि, राज्य नक्सली आंदोलन की चपेट में है इसलिए वहां किसी को भी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से रिपोर्टिंग करने पर तीन साल की सजा देने का प्रावधान बनाया गया है। यहां तक कि कोई गैर-पत्रकार भी यदि सरकार की नज़र में माओवादियों के संपर्क से जुड़ा हुआ है या सरकार को ऐसी शंका होती है, तो वह दंड का भागी होगा। गृह मंत्रालय की एक गुप्त रिपोर्ट के बारे में पता चला है कि पूरे देश में जहां कहीं जनवादी संघर्ष चल रहे हैं, सरकार को उन क्षेत्रों में सशस्त्र बल विशेष सुरक्षा कानून(आफ्सपा) लागू करने का प्रस्ताव दिया गया है। वैसे भी, सरकार यह मानती है कि देश के पंद्रह राज्य नक्सलवाद की चपेट में हैं। यदि ऐसा हुआ तो देश भर में स्थितियां कश्मीर और पूर्वोत्तर जैसी हो जाएंगी। फिर खबरें जैसी भी आ रही हैं, वे भी दबा दी जाएंगी। तब पत्रकारिता सिर्फ बिग बॉस जैसी चीजों तक सिमट कर रह जाएगी। भविष्य की यह तस्वीर हमें पिछले दिनों 'द ग्रेटर कश्मीर' के संपादक और आंध्र में एक द्विमासिक पत्रिका के संपादक वेणुगोपाल पर राजसत्ता द्वारा किए गए हमलों के रूप में दिखाई देती है। प्रकाश सिंह और उनके साथियों पर अनंत सिंह द्वारा किया गया हमला ताज़ा मिसाल है कि इस देश में अब पत्रकारिता करने का क्या नतीजा हो सकता है।
उपर्युक्त या तो प्रत्यक्ष तौर पर सत्ता के हमलों अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता के दुरुपयोग की कहानी कहते हैं। कम से कम समूचे दक्षिण एशिया के बारे में कहें तो नेपाल की संसद में माओवादियों के आने के बाद जो स्थिति बनी है, वह अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसके दलालों द्वारा अभिव्यक्ति और लोकतंत्र के प्रति उनकी दमनकारी कार्रवाइयों को और ज्यादा सुनियोजित बना रही है। उस पर से कई मायनों में अपसंस्कृति के हमले की वजह से मीडिया और प्रेस का एक बड़ा सत्ताधारी तबका खुद अपने ही अधिकारों के प्रति संवेदनशील नहीं रह गया है। ऐसे में, खासकर भारत के संदर्भ में प्रेस की आजादी बहुत कुछ तब तक पत्रकारों के कंधों पर ही टिकी हुई है जब तक अभिव्यक्ति के दुश्मनों के दांत प्रच्छन्न हैं। जब ये सामने आएंगे, तब तक व्यक्तिगत साहस और प्रतिबध्दता के दायरे बदल चुके होंगे।
कुछ आंकड़े
मारे गए पत्रकार/सहायक गिरफ्तार शारीरिक हमला अपहरण मीडिया संस्थान प्रतिबंधित
2006 113 871 1472 56 912
2005 68 807 1308 - 1006
एक बार को हम सरसरी तौर पर कह कर निकल सकते हैं कि मीडिया में लगने वाली पूंजी की विशालता और बाजार के ये दबाव हैं, जिसमें जनता के सूचना के अधिकार का हनन होता है। लेकिन, यही एक पहलू होता तो भी बात बन सकती थी क्योंकि बाजार के दबावों से मुक्त होना व्यक्तिगत प्रतिबध्दता और साहस की मांग करता है। चूंकि, पत्रकारिता का मूल स्वभाव ही सत्ता विरोधी रहा है, लिहाजा साहसिक पत्रकारों की आज भी कमी नहीं दिखती। लेकिन, पूंजी दुधारी होती है। बाजार जिस सत्ता विमर्श से संचालित होता है, वह दोहरे तरीके अपनाता है। एक ओर पत्रकार को लिपिक में तब्दील करता है तो दूसरी ओर प्रतिबध्दता और साहस पर प्रत्यक्ष हमले करता है। ये हमले ग्लोबल होते हैं। रूस से ले कर देहरादून वाया इराक अभिव्यक्ति पर गोली दागी जाती है, तलवार चलाई जाती है और दूसरी ओर अभिव्यक्ति को सहमति में बदलने की कोशिशें जारी रहती हैं।
पिछले दिनों मीडिया संस्थानों, प्रेस की आजादी के लिए लड़ने वाले समूहों और कुछ मानवाधिकार संगठनों के एक गठजोड़ इंटरनेशनल न्यूज सेफ्टी इंस्टिटयूट की एक रिपोर्ट आई है जो यह साबित करने के लिए काफी है कि न तो हमारे समय में जनपक्षीय पत्रकारों की कमी है और न ही सत्ताएं उन्हें बख्शती हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि पिछले एक दशक में 1100 से ज्यादा पत्रकारों और उनके सहयोगियों की जानें रिपोर्टिंग के दौरान ले ली गईं हैं। इनमें से करीब आधों को गोली मार दी गई और अधिसंख्य, करीब 657 पत्रकारों को अपने ही देश में रिपोर्टिंग के वक्त मार डाला गया। 'किलिंग द मैसेंजर' नामक यह रिपोर्ट बताती है कि इराक युध्द शुरू होने के बाद पत्रकारों पर हमले बहुत तेज हुए हैं। यह संयोग नहीं है कि पिछले एक दशक में पत्रकारों के लिए सबसे खराब वर्ष 2006 रहा जिसमें मारे गए पत्रकारों की कथित संख्या पूरी दुनिया में 167 रही। यह संख्या 2005 में 149, 2004 में 131, 2003 में 94, 2002 में 70 और 2001 में 103 रही।
पिछले वर्ष की 167 की यह संख्या अगर कम जान पड़ती हो तो 31 दिसम्बर 2006 को जारी प्रेस की आजादी के लिए काम करने वाली संस्था 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' के आंकड़े देख लें। इसमें मरने वालों की संख्या छोड़ दें तो पिछले वर्ष 871 पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया, 1472 पर शारीरिक हमला किया गया या उन्हें आतंकित किया गया, 56 का अपहरण किया गया और 912 मीडिया संस्थानों को प्रतिबंधित किया गया। ये आंकड़े पूरी दुनिया के हैं। सबसे खतरनाक स्थान इराक रहा जहां 2003 में युध्द शुरू होने के बाद से लेकर अब तक 139 पत्रकार मारे जा चुके हैं। इसके बाद सबसे खतरनाक स्थिति रूस और कोलंबिया की रही। रूस इस मायने में विशिष्ट रहा कि पुतिन के सत्ता में आने के बाद 21 पत्रकारों को मार दिया गया। पिछले अक्टूबर में नोवाया गजेटा की मशहूर पत्रकार अन्ना पोलित्कोव्सकाया की दिनदहाड़े गोली मार कर की गई हत्या ने यह साबित कर दिया कि बहुत लोकप्रिय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त बड़े पत्रकार भी सत्ता की हिंसा से नहीं बच पाते। याद करें कि कश्मीर टाइम्स के दिल्ली में ब्यूरो चीफ इफ्तिख़ार गिलानी जैसे लोकप्रिय पत्रकार को भी भारतीय सत्ता ने नहीं बख्शा था, जबकि उनका कसूर सिर्फ इतना भर था कि वे कश्मीर के एक अलगाववादी नेता के दामाद हैं।
एक नई परिघटना पिछले साल यह देखने में आई कि जैसे-जैसे मुख्यधारा के मीडिया में स्पेस घटने के कारण इंटरनेट की ब्लॉग जैसे विधा पर अभिव्यक्ति की बौछारें शुरू हुईं, ठीक उसी गति से इंटरनेट पर प्रतिबंध और हमले भी तारी किए जाने लगे। पिछले दिनों भारत में कुछ ब्लॉग्स पर जबरदस्त प्रतिबंध अकारण ही लगा दिया गया था जो संकेत है कि जितनी तेजी से पत्रकार अभिव्यक्ति के रास्ते खोज रहे हैं, सत्ताएं भी उसी गति से हमले जारी रखे हुए हैं। 'रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स' ने 13 देशों को पिछले वर्ष 'इंटरनेट का दुश्मन' घोषित किया था। इनमें बेलारूस, बर्मा, चीन, क्यूबा, मिस्र, ईरान, उत्तरी कोरिया, सउदी अरब, टयूनीशिया, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान और वियतनाम हैं। इन देशों के ब्लॉगरों और ई-पत्रकारों को अक्सर जेलों में डाल दिया जाता रहा है। वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगाए गए हैं और सत्ता विरोधी संदेशों को मिटा दिया जाता रहा है। पिछले वर्ष 30 ब्लागरों को गिरफ्तार कर कई हफ्तों तक हिरासत में रखा गया था। इन देशों में सबसे आगे चीन, ईरान और मिस्र थे।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमलों को कितनी गंभीरता से दुनिया भर के देशों में लिया जाता है, यह इसी से पता चलता है कि पिछले वर्ष हुई हत्याओं के दो-तिहाई मामलों में हत्यारों की पहचान नहीं की जा सकी तथा सिर्फ 27 मामलों में आरोप दाखिल किए गए हैं। चूंकि, हर साल मारे जाने वाले अधिकतर पत्रकार कमोबेश अचर्चित, छोटे संस्थानों के स्थानीय बीट कवर करने वाले होते हैं, इसलिए उन्हें लेकर बहुत दबाव नहीं बन पाता। और जहां तक बड़े पत्रकारों की हत्या का सवाल है, इनके हत्यारे ही बाद में हत्या की जांच के लिए कमेटी गठित कर साफ बच निकल जाते हैं, जैसा कि अन्ना पोलित्कोव्सकाया के मामले में हुआ है। 'समयांतर' के दिसम्बर 2006 अंक में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक इस बहुचर्चित विपक्षी पत्रकार पर रूस की खुफिया एजेंसी केजीबी की बरसों से नजर थी और हमले भी उसने कई बार करवाए। आखिरकार, अन्ना को जाना ही पड़ा। ठीक ऐसे ही चीन में विदेशी मीडिया के दो बड़े पत्रकारों झाओ यान और चिंग चेयांग को क्रमश: तीन और पांच वर्षों तक जेल में रहना पड़ा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका हल्ला होने के बावजूद उन्हें उनकी मौत की सजा के खिलाफ अपना बचाव करने का मौका नहीं दिया गया था।
आंकड़ों के मुताबिक अगर देखें तो प्रतिवर्ष पत्रकारों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं और धीरे-धीरे खबर लाने वाले जीव राजनीतिक भेड़ियों के सॉफ्ट टारगेट में तब्दील हो रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इस मसले पर बोलने वाले समूह नहीं, बल्कि मुख्यधारा के मीडिया के भीतर जो विभाजन पूंजी के आधार पर पत्रकारों के बीच इधर के कुछ वर्षों में हुआ है- चाहे वह वेतन का हो, भाषाई कारणों से या प्रोफाइलगत- उसने खुद पत्रकार बिरादरी में ही एक ऐसा सत्ताधारी वर्ग खड़ा कर दिया है जिसे किसी स्ट्रिंगर के मारे जाने का दर्द छू तक नहीं जाता। ऐसे में, हम कह सकते हैं कि आने वाला समय जनपक्षीय पत्रकारिता के लिए न सिर्फ भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण और उदारीकरण के जुमलों की वजह से खतरनाक होगा, बल्कि सीधे कहें तो खबरियों की हत्याएं और बढ़ेंगी।
चूंकि, सूचना हथियार है और राजा कभी नहीं चाहेगा कि यह हथियार प्रजा के पास आ जाए। और, सबसे दीगर बात यह हमेशा याद रखना है, कि पत्रकार चाहे अमेरिका का हो या गाजीपुर का, न्यूयॉर्क पोस्ट का हो या किसी जागरण का, वह आखिर में प्रजा का ही हिस्सा होता है।
घर की आग
चूंकि, भारत में निजी मीडिया को आए एक दशक से कुछ ज्यादा वक्त ही हुआ है, इसलिए यहां अब भी खासकर टीवी पत्रकारिता उतनी परिपक्व नहीं हो सकी है जितना पश्चिमी देशों में है। इसके बावजूद पिछले कुछ दिनों में हर चैनल पर आई स्टिंग ऑपरेशनों की बाढ़ ने पत्रकारों पर हमलों की स्थितियों को पैना कर दिया है। इस तरह के मामलों में हालांकि अब तक कोई बहुत बड़े नुकसान की खबर तो नहीं रही है, लेकिन केन्द्र सरकार समेत राज्य सरकारें जिस किस्म के दमन चक्र की जमीन बना रही हैं, उसमें भविष्य बहुत खतरनाक दिखाई देता है।
छत्तीसगढ़ विधानसभा द्वारा पिछले दिनों लाया गया एक कानून इस मामले में गौर करने लायक है। चूंकि, राज्य नक्सली आंदोलन की चपेट में है इसलिए वहां किसी को भी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से रिपोर्टिंग करने पर तीन साल की सजा देने का प्रावधान बनाया गया है। यहां तक कि कोई गैर-पत्रकार भी यदि सरकार की नज़र में माओवादियों के संपर्क से जुड़ा हुआ है या सरकार को ऐसी शंका होती है, तो वह दंड का भागी होगा। गृह मंत्रालय की एक गुप्त रिपोर्ट के बारे में पता चला है कि पूरे देश में जहां कहीं जनवादी संघर्ष चल रहे हैं, सरकार को उन क्षेत्रों में सशस्त्र बल विशेष सुरक्षा कानून(आफ्सपा) लागू करने का प्रस्ताव दिया गया है। वैसे भी, सरकार यह मानती है कि देश के पंद्रह राज्य नक्सलवाद की चपेट में हैं। यदि ऐसा हुआ तो देश भर में स्थितियां कश्मीर और पूर्वोत्तर जैसी हो जाएंगी। फिर खबरें जैसी भी आ रही हैं, वे भी दबा दी जाएंगी। तब पत्रकारिता सिर्फ बिग बॉस जैसी चीजों तक सिमट कर रह जाएगी। भविष्य की यह तस्वीर हमें पिछले दिनों 'द ग्रेटर कश्मीर' के संपादक और आंध्र में एक द्विमासिक पत्रिका के संपादक वेणुगोपाल पर राजसत्ता द्वारा किए गए हमलों के रूप में दिखाई देती है। प्रकाश सिंह और उनके साथियों पर अनंत सिंह द्वारा किया गया हमला ताज़ा मिसाल है कि इस देश में अब पत्रकारिता करने का क्या नतीजा हो सकता है।
उपर्युक्त या तो प्रत्यक्ष तौर पर सत्ता के हमलों अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता के दुरुपयोग की कहानी कहते हैं। कम से कम समूचे दक्षिण एशिया के बारे में कहें तो नेपाल की संसद में माओवादियों के आने के बाद जो स्थिति बनी है, वह अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसके दलालों द्वारा अभिव्यक्ति और लोकतंत्र के प्रति उनकी दमनकारी कार्रवाइयों को और ज्यादा सुनियोजित बना रही है। उस पर से कई मायनों में अपसंस्कृति के हमले की वजह से मीडिया और प्रेस का एक बड़ा सत्ताधारी तबका खुद अपने ही अधिकारों के प्रति संवेदनशील नहीं रह गया है। ऐसे में, खासकर भारत के संदर्भ में प्रेस की आजादी बहुत कुछ तब तक पत्रकारों के कंधों पर ही टिकी हुई है जब तक अभिव्यक्ति के दुश्मनों के दांत प्रच्छन्न हैं। जब ये सामने आएंगे, तब तक व्यक्तिगत साहस और प्रतिबध्दता के दायरे बदल चुके होंगे।
कुछ आंकड़े
मारे गए पत्रकार/सहायक गिरफ्तार शारीरिक हमला अपहरण मीडिया संस्थान प्रतिबंधित
2006 113 871 1472 56 912
2005 68 807 1308 - 1006
Thursday, November 01, 2007
रेडियो की दशा दिशा...
रेडियो को लेकर एक चर्चा जारी है। रेडियो के हालिया बरसों में विस्तार के बाद उसके बदलते स्वरूप पर विचार किया जा रहा है। एक वेबमैगजीन ने इसे अपने इस बार के त्रैमासिक अंक में जगह दी है। रेडियो से जुड़े बहुत सारे पहलुओं पर यहां अपने विचार लिखे गए है।
आप भी इन विचारों से अवगत हो।
http://mediavimarsh.com/
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Media and Poverty: Not so newsy
Media is no poor. It has the market, the ruler and the news of upwardly developing India. International Day for the Eradication of Poverty passed on 17 October. The media is silent. We somehow get the facts that there is acute poverty in our country. Sometimes a story evoke our conscience. And we feel little embarrased. But is like a sneez.
We got a good analytical story on a website, read and open your eyes...
Is the media watching poverty enough?
Courtesy: www.indiatogether.org
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