Monday, April 28, 2008

अंधविश्वास का पिटारा

क्यों तीन बेटे अपनी मां को बेरहमी से पीटकर मार डालते है। क्यों वे अपनी ही बहन को मारकर अपनी मरी मां को जिंदा करना चाहते हैं। क्यों वे एक हवन को सम्पन्न कर अपनी मां पर से प्रेतबाधा दूर करना चाहते है। क्या शहरी जीवन के तनावों में भी अंधविश्ववास हावी है। गांव देहात में तो किसी पेड़, किसी बागीचे, किसी कुएं या पुराने मकान में रहता है एक भूत, पिशाच, जिसे किवदंती मानकर कम पढ़े लिखे लोग अपनी जिंदगी को एक डर के साथ जीते है। लेकिन शहर के शोर में किसी के मन में भूत और प्रेत की इस भावना को कौन जगह दे रहा है।

टेलीविजन। जी हां। गुनहगार है टेलीविजन। हर दिन किसी न किसी हिंदी समाचार चैनल पर दिखती है भूत प्रेत से ओतप्रोत खबरें। कहीं वो किसी हवेली में किसी के साथ कर रहा है बलात्कार तो कहीं वो किसी सुरंग में एक भूतनी के तौर पर बुला रही है किसी की मौत। गाजियाबाद में तीन बेटों ने अपनी मां को इस शंका में पीट पीट कर मार डाला कि, उसपर किसी की प्रेतबाधा सवार हो चुकी है। साथ ही अपनी बहन को मारकर वो एक अंधविश्वास में अपनी मरी मां को जिंदा भी करना चाहते थे। ये क्या है।

एक ऐसा समाज जो अपने ऊपरी स्तर में तो तमाम शहरी आडंबरों को अपना चुकी है, लेकिन वो गहरे मन से रोजाना एक भय को जगह दे रहा है। टीवी इस अंधविश्वास को रोजाना बढ़ा रहा है। जिस दिन ये बेरहम घटना होती है, उसी दिन आईबीएन-7 एटा में एक सुरंग में भूतनी होने के दावे को दिखा रहा था। शहरी तनाव और जिम्मेदारियों के बीच जब दर्शक टीवी की ओर रूख करता है तो वो पाता है ऊलजूलुल पेशकश और अंधविश्वास को बढावा देने वाली खबरें। इससे एक तरह का दबा अहसास उसमें बैठने लगता है। भारतीय मानस में मिथकों और विश्वासों की गहरी परंपरा के बोझ में आम आदमी भी मानने लगता है अंधविश्वास के इस मायाजाल को। वो ग्रहों से डरता है, राशियों पर उसकी निर्भरता है, अंधविश्वास उसकी सोच में एक जाल सा बुनता है। और इसके कारण वो कई बातों, व्यवहारों और सोच में इसे अपनाने लगता है।

टेलीविजन इससे पहले भी निजी रिश्तों में नाजायज सोच को काफी जगह दे चुका है। वो हर बारीक रिश्ते के बीच शंका की जो रेखा खींच चुका है, वो पति-पत्नी, मां-बेटे, भाई-बहन को अब उतना सहज नहीं रहने देते, जितना समाज ने उन्हे रखा था। फिल्मों में अश्लीलता, टीवी पर कामुकता और खबरों में अविश्ववास की कहानी ने आम दर्शक को मानसिक तौर पर कमजोर बना दिया है। इससे जुड़ी रोचक बात ये है कि संदेह और सस्पेंस के साथ हर चीज को पेश करके इसे ऐसा बनाकर पेश किया जाता है कि दर्शक खाली समय में इसे देखता रहे, देखता रहे। और जिस तरह सास-बहु सीरियलों का नशा है, उसी तरह हिंदी समाचार चैनलों पर भी किसी कंटेंट को इतना दिखाया जाता है कि वो इस नशे में तब्दील हो जाए। और ये झूठ को बार बार बोलने से ही हो सकता है। सो टीवी बोले जा रहा है झूठ पर झूठ।

आपकी दुनिया में जानकारी की कीमत है वक्त। वो वक्त जो आप आज किसी जाया जानकारी में दे रहे है, वहीं कीमत आप आगे चुकाएंगे। सो संभल जाइए। टीवी पर उन खबरों का बहिष्कार करिए, जो आपको ले जा रही है एक गर्त में।

'सूचक'
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2 comments:

रवीन्द्र प्रभात said...

सचमुच अंध विश्वास समाज की कोढ़ है , संवेदनाएं शून्य करती जा रही है हमारे समाज की ...!

Udan Tashtari said...

अफसोस होता है इन हालातों पर.