Friday, January 12, 2007

पत्रकार ही सोचेगा...वही बदलेगा

वो आदमखोर है। उसने लाशों के छोटे-छोटे टुकड़े किए। वो बच्चों के साथ सेक्स करता था। वो लाशों के साथ संबंध बनाता था। वो करीने से लाशों से अंग निकलता था। वो मांस खाता था। ये वो बातें हैं जो पिछले हफ्ते टीवी ने हमें आपको सुनाई और पूरी म्यूजिक-इफैक्ट के साथ दिखाई। कही रिकंस्ट्रक्शन के साथ, तो कही ग्राफिक्स के ऊपर। सच क्या है। औऱ जो भी हो। क्या ये सब कहना जरूरी था। घिनौना काम था। दोनों ने जो भी किया। पर क्या टीवी सारे मानकों को तोड़कर भाषा की हदें छोड़कर जो कहे, जैसा कहे। सब चलता है क्या...। किसी ने टीवी पर पूरे तमाशे को और ज्यादा भयावह बनाकर पेश किया तो किसी ने दो कदम आगे जाते हुए आदमखोर होने की बात को प्रमाण के साथ पेश करने की जल्दी दिखाई। निकलकर जो आया हो। पर किसी को पचा नहीं। दोनों का नारको टेस्ट चलता रहा। खुलासे भी चलते रहे। किसी ने कहा हमने बताया था कि वो आदमखोर है। पर कहीं ये भी छपा कि उसने केवल कोशिश की थी। पर उलट दिया था। खैर मैं क्यों आपको बेचैन कर रहा हूं। ये सवाल ही जवाब है। जो हम देखते है, वो सोचते है, उस सारे मामले की जांच, सोच, दिशा उन्ही खुलासों से तय होती है। जैसे अब कही भी बच्चा गायब हो, निठारी से जोड़कर टीवी वालों को देखना भाता है। एक राइस मिल में लाशें मिली। निशाने निठारी के नजदीक तलाशे जाने लगे। और तो और कई चैनलों पर स्लग भी निठारीनुमा हो गए। ऐसे में ये सवाल अपने आप में ही जायज हो जाता कि कितना देखना है और कितना दिखाना है। कितना बेचना है और कितना बचाना है। क्या खबर के नाम पर हर जानकारी देना दर्शक को बांधे रखता है। बीमारी बताइए। दोष बताइए। दोषी बताइए। पर नाट्य रूपांतरण क्यों। क्या बच्चे को समझाना है या एडल्ट को। खैर दोष केवल पत्रकारों पर देना उचित नहीं है। टीवी चैनलों के एसी कमरों में बैठे वीडियो एडिटरों को इफैक्ट यूज करने में पीड़ा सुख आने लगा है। वे झमाझम के चक्कर में ऐसे प्रयोग कर रहे है जो अभी भी पत्रकारों की कल्पनाशक्ति से दूर है। सो वो तर्क से परे है। पैकेज, वो खबर जो टीवी पर चलता है, को रोचक, जोरदार, भयावह और सुखनुमा बनाने को जहां स्क्रिप्ट पर कलमें शब्दाडंबर रच रही है, वहीं मशीनों पर बैठा तकनीकी हो चुका दिमाग, रच रहा है रंग, संगीत औऱ अनचाहे इफैक्ट। एक देखने वाले से पूछा तो उसने कहा कि - शब्द खो जाते है, तस्वीरें खेलती है। समझ नहीं आता कि दिखाना क्या चाहते है, दिखा क्या रहे है। जैसे नशे में नशेड़ी की दुनिया के खोई खोई सी तस्वीरें। खैर सामान्य हो कर सोचिए। क्या वो खबर वहीं है जो आप दफ्तर में लेकर पहुंचते है, और कुछ घंटों बाद रंग तरंग के साथ वो बनकर पेश होती है। पत्रकार ही सोचेगा। वहीं बदलेगा। वहीं चाहेगा। तो परिवर्तन आएगा। इंतजार है.....

'सूचक'
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