एक आम दर्शक कभी कभी ये सोचता है कि ये जो पचासों खबरिया चैनल चल रहे है, इनकी आमदनी का ज़रिया क्या है। थोड़ा जागरूक देखने वाला ये जानता है कि विग्यापन के जरिए ये चैनल आमदनी करते है। लेकिन ये आमदनी कितनी होती है, खर्चे कितने होते है, ये सारे सवाल मीडिया में काम करने वालों को भी कभी कभी सोचने पड़ते है। आप जिस पेशे में हो उसके बारे में जितना जानते है, उतना वो आपके लिए फायदेमंद हो जाता है। अब केवल हिंदी में चलने वाले चैनलों की सूची ले लें तो आजतक, ज़ी न्यूज, स्टार न्यूज़, एनडीटीवी, आईबीएन-7, एसवन वो ऱाष्ट्रीय चैनल है, जो रोजाना आप तक खबरें पहुंचाते है। पर केवल खबरें ही नहीं, विभिन्न उत्पादों के प्रचार भी। वैसे कुछ विश्लेषकों का ये मानना भी है कि प्रचार भी तो सूचना और जानकारी है। ठीक। लेकिन सूचना के संजाल में कितनी जानकारी है और कितना 'कूड़ा-कचरा' ये कौन तय कर रहा है। 'आप' या उत्पाद बनाने वाली कंपनी या टीवी चैनल चलाने वाले जर्नलिस्ट। ये जानना कठिन है। और इसपर सीधे उतरना कठिन है। क्योकि समाचार की दुनिया खबरें भले ही सीधे देता हो पर वो अंदरूनी तौर पर बहुत ही उलझा हुआ है। खबर संवाददाता से शुरू होकर आप तक पहुचने में कम से कम दस स्टेज पार करती है, ऐसे में खबर में ऐसे बदलाव आते है जिन्हे आपका सक्रिय दिमाग नहीं बल्कि अवचेतन दिमाग पकड़ता है। खबर भले ही राजनीतिक हो, पर उसमें दिखाए गए विजुअल, कही गई बात और न कही गई बात के असर बड़े अनोखे होते है। जैसे भले ई-मेल के जरिए प्रधानमंत्री को जान से मारने की धमकी दी गई हो, पर इस खबर को जितना तूल दिया जाता है, उससे ये उतनी ही स्वीकायर्ता पाता जाता है और व्यवहार बन जाता है। खैर ये समाजशास्त्रीय विश्लेषण का विषय है। सो इसकी बात कभी और। पर विग्यापन का क्या। वे तो आपकी जिंदगी का वो हिस्सा हो चले है जो आपको हर खरीदारी में प्रभावित करते है। कैसे। जैसे टूथपेस्ट कौन सा, साबुन कौन सास और शर्ट कौन सी। ये सब आप कैसे तय करते है। जाहिर है पिता का बताया तो धुंधला सा याद होगा, सो टीवी रोजाना याद दिलाता है। यानि एड न हो तो खरीदारी मुश्किल होगी। और चैनलो का चलना भी। गौर करिए। ये वो ताजा आंकड़े है जो तस्वार साफ करते है। कौन कितनी खबर और कितना प्रचार दिखा रहा है।
चैनल खबर(%) प्रचार(%)
आजतक - 47 53
स्टार न्यूज - 65 35
जी न्यूज - 69 31
एनडीटीवी - 70 30
ये तो कुछ खास चैनलों के खास आकड़े है जो कहानी को बड़े कैनवास में दिखाते है। पर ज्यादा बड़ा हकीकत ये है कि ये सारे खबरिया चैनल जिस भी मात्रा में खबरें चलाते इसमें भी क्या चलता है। सारे न्यूज चैनलों पर चलने वाली खबरों में साठ फीसदी ऐसा होता जो ट्राइवियल या पेरिफेरल माना जा सकता है। यानि ऐसी खबरें जो किसी के काम न आएं। यानि ऐसी सूचना जो इस्तेमाल न की जा सके। यानि खबरिया चैनलों पर फिजूल की खबरें। लगता है कुछ। सच यही है। न यकीन हो तो टीवी खोल लीजिए और एक घण्टा देखने के बाद याद कीजिए कि क्या क्या देखा और जाना। वैसे विग्यापन जरूर याद रह जाता है। क्यों। क्योकि वो आपकी जरूरत के अनुसार बुना और पेश किया जाता है। शायद टीवी को ये समझना बाकी है।
'सूचक'
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3 comments:
इसबार दुखती रग पर हाथ रख दिया.
सच तो यह है की विज्ञापन तथा खबरे ऐसी गुथमगुथा होती हैं कि इनमें भेद करना ही मुश्किल होता है.
बानगी देखीये...
एक स्क्रोल चल रहा हैं... लावारिस चीजे न छुए..पुलिस को सुचीत करे..वगेरे..वगेरे...अपने घर में मैजिक आई जरूर लगवाएं...
विज्ञापनों और खबरी चैनलों का जैसे चोली दामन का रिश्ता है।
अच्छा विश्लेषण है। धन्यवाद।
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