एक चैनल। एक गवाह। और सैकडों सवाल। ये सवाल पैदा हुए है एक गठजोड़ के बारे में। इस भयानक सच ने देश की न्यायिक व्यवस्था की सचाई खोली है। गवाह अपने बयान बदलते रहते है। सवाल उनकी सिक्योरिटी और उनके हित का रहा है। अदालतें मजबूर होकर फैसला देती रही है। सवाल उनके सामने पेश होने वाले सबूतों का है। टीवी को फैसलों की बहसें दिखाना अच्छा लगता है। बचाव और अभियोजन दोनों अगर मिल जाएं, तो अभियुक्त के पास बच निकलने के सारे औजार होते है। टीवी को ये पता है, बल्कि समाज को भी पता है। लेकिन गवाह की मदद के बिना ये संभव नहीं है। और गवाह की मंशा सबसे मायने रखती है। गवाह का खेल।
यहीं से बीएमडब्ल्यू मामले में सुनील कुलकर्णी की भूमिका पर सवाल खड़े होते है। कुलकर्णी एक ऐसा गवाह, जो 1999 की उस रात से संदेह के घेरे में था। वो दिल्ली में था भी या नहीं, वो बार बार दिल्ली में किसके खर्चे पर रूकता और उसे शायद इन्ही वजहों से उसे गवाहों की फेहरिस्त से हटाया गया। तो क्या बचे एकमात्र गवाह सुनील कुलकर्णी ने मीडिया के लालच को अपने हित में भुनाया है। क्या वो सब कुछ समझदारी से कर रहा था। चैनल की रॉ फुटेज में उसकी डिफेंस लायर आर के आनंद से बातचीत का लहजा बताता है कि वो ये तय कर चुका था कि उसे बिकना है, या वो शुरू से ही बिका था। उसने स्पेशल पब्लिक प्रासीक्यूटर आई यू खान से जो बातें की उससे कुछ साफ नहीं होता। उसने आनंद से हवाईअड्डे पर जो कहा, वो ये साफ करता है कि वो अपनी गवाही की बोली लगा रहा था। चैनल ने इस खुलासे से बड़ी सचाई रखी। बाद में भी चैनल ने ये बताया कि वो कुलकर्णी की पिछली करनियों के जिम्मेदार नहीं है। लेकिन क्या चैनल को कुलकर्णी के पिछले रिकार्ड नहीं परेशान कर रहे थे। स्टिंग के जरिए जो तूफान मचा है, और जिम्मेदारों को जो भी सजा मिली, वो कम है।
देश की न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाने वाला टीवी आज कही न कही गवाह के बुने जाल में शिकार बना है। इसे कम कमतर करके नहीं आंक सकते। हम मानते है कि खुलासे लोकतंत्र में विश्वास की नींव को हिलाकर सच के प्रति सकारात्मक माहौल बनाते है। लेकिन किरदारों को लेते वक्त उनका जायजा लेना इससे और जरूरी हो जाता है।
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Wednesday, June 06, 2007
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2 comments:
ये सच है की कुलकर्णी खुद संदिग्द है, पर असल मुद्दा तो वकीलों का सच बाहर लाना था ....क्यों ?
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