एक ऐसा खांका जो भारतीय राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मीडिया की आंखे खोलने को पर्याप्त है। ये एक ऐसा सच है जिससे हमारे देश का टेलीविजन मुंह मोड़ चुका है। आज के समय में अगर वजहें तलाशी जाएं तो हम केवल एक शब्द में सिमट जाएंगे। बाजार। जहां मॉल है, उत्पाद है, सेल है, शहर है। यहां गरीबी का अभाव है। यहां कल का अभाव है। आज में जीने वाले बाजार को आज का टीवी परोस रहा है। हर दिन का तमाशा तय है। हर दिन के फिक्स्ड प्वाइंट चार्ट भी डिसाइड है। कैसे खबरों को दरकिनार करके समाज को वो दिखाने की होड़ लगी है, जिसे आज से पचास साल पहले सौ साल पहले हमारे कर्णधार दकियानूसी बता चुके है। वे तब धारा के खिलाफ थे। आज हम धारा के बीच है। आज टीवी पर अंधविश्वास है, टोना टोटका है, अंधविश्वास की भुतहा पेशकश है, तंत्र मंत्र है, अपराध है, ज्योतिष है, नाजायज संबंध है, सेलेब्रिटी की पल पल की गतिविधियां है, शहरों की चमक है, बहसे मुबाहिसे है, एसएमएस पोल है, नेताओं से जुड़े हल्के किस्से है, फिल्म है, फूड है, सेक्स है, क्राइम है, और है तमाम नाकाबिले बर्दाश्त की जाने वाली पेशकशें।
तो आखिर हम कहां जा रहे है। कभी कभी अच्छी खबरों की टाइमिंग देखकर लगता है कि चैनल भी न चाहते हुए उन्हे चला रहे है। हर राजनैतिक खबर पर तंज का भाव दिखता है। हर बेरहमी में नाइंसाफी की चीखो पुकार। और हर गलती पर बस फांसी देने का सुर।
क्या सामाजिक तौर पर जिम्मेदार इन समाचार चैनलों को ये बताना पड़ेगा कि हम एक विविधता वाले देश है, जहां धर्म, कर्म और मोक्ष के बाद चीजें मायने रखती है। सुख शांति और समृद्धि के लिए आज माध्यम कई है। लेकिन टीवी से जुड़कर आप सबसे कट जाते है।
एक टीवी को नैतिक रूप से क्या होना चाहिए, तय होना बाकी है। तबतक एक विदेशी चैनल की सुध देखिए। जो काम हमें रोजाना करना चाहिए वो, वे कभी कभी करते है। अनुरोध है इस प्रयास को यूं ही न आंकिए। उन्हे भी बाजार देखना है। और भारत की गरीबी दिखाकर बाजार नहीं जोड़ा जा सकता। तो क्यों भारतीय माध्यमों पर मर चुके इस मुद्दे को वे दिखा रहे है।
जवाब। पत्रकारिता और सरोकार है जनाब।
Agricultural Problems Lead to Farmer Suicides in India
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Wednesday, June 27, 2007
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