Wednesday, June 13, 2007

आपकी जरूरत इस संस्थान को अब नहीं है। धन्यवाद।

मीडिया नाइंसाफी के खिलाफ है। मीडिया हक मारने वालों को चैन से नहीं जीने देगा। मीडिया अधिकारहीन को अधिकार दिलाएगा। मीडिया चौथा स्तंभ है। लोकतंत्र का। लेकिन इसी मीडिया में काम करने वालों के कोई अधिकार नहीं है। एक प्राइवेट फैक्ट्री में काम कर रहे मजदूर की तरह। ये एक ऐसी हकीकत है जिससे हर मीडियाकर्मी सरोकार रखता है। थोड़ा कम, थोड़ा ज्यादा। एक दिन अचानक आपको बुलाकर कहा जाता है कि आपकी जरूरत हमारे समाचार चैनल में नहीं रह गई है। या आपकी भूमिका में बदलाव करके हर दिन गलतियों को ढूंढा जाता है और आपसे नमस्ते कर ली जाती है। ये महज शब्द नहीं है। सचाई है।

एक चैनल है। जो अब समाचार में पूरी तरह आने वाला है। चैनल के इस नए रूप के लिए लोग चाहिए। जो पहले से है, वे खुश थे कि नए रोल में वे भी हिस्सेदार होंगे। लेकिन उन्हे बुलाकर सप्रेम कहा जाता है कि वे पारिवारिक कारणों से इस्तीफा दे दें। पिछले दिनों में पचासों लोग सड़क पर आ गए। वे सारे पत्रकार है। लेकिन उन्हे नौकरी करनी थी।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। और आगे भी होता रहेगा। याद होगा आपको दिल्ली के कनाट प्लेस इलाके में एक मशहूर अखबार के आफिस के आगे कुछ लोग अपने निकाले जाने पर कई महीनो तक धरना देते रहे। वे शायद आज कहीं नौकरी कर रहे होंगे।

टीवी में अधिकारों की लडा़ई लड़ने का हौसला कम होता है। तभी तो दस एक साल से टीवी समाचार चैनलों ने केवल दो न्याय के किस्से पेश किए है। एक जेसिका दूसरा प्रियदर्शिनी मट्टू। वो भी एसएमएस से सहयोग देने की कमाई के साथ।

लोगों का बिना नोटिस, सूचना निकाला जाना मीडिया में आम हो चला है। लेकिन देखने सुनने वाला कोई नहीं है। सबको नौकरी करनी है। सो कर रहे हैं। देखा जाए तो शहर में रहकर चुनावी करना मुश्किल है। जीना भी तो है। लेकिन क्या इससे पत्रकारिता को कोई लाभ होगा। जो व्यक्ति अपने अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ पा रहा है,वो कैसे समाज के अंतिम आदमी की लड़ेगा।
आज एक मिटते चैनल के कुछ लोग सड़क पर है। वे नई नौकरी ढूंढ रहे है। वे मालिक या किसी से नाराज नहीं है। मान चुके है कि यहीं सत्य है। मीडिया का सत्य।

मैने देखा है कि समाज में एक ओर बर्दाश्त करने की काबिलियत खत्म हो रही है, तो एक ओर वो आपको इतना कमजोर कर दे रही है कि आप सिसक तो सकते है, रो नहीं।

यकीन मानिए। आप कहीं न कहीं जिम्मेदार है। खुद के निर्णयों के लिए। जिस तरह रनडाउन पर बैठकर खुद लगाई गई खबरों के लिए।

लोकतंत्र में एक आदमी के अधिकार क्या होते है, ये पत्रकार से बेहतर कौन जानता है। ये वकील भी जानता है, सो उसे कोई प्रताड़ित नहीं करता। ये बैंक का कर्मचारी भी जानता है, सो उससे आप बैंक में नहीं लड़ सकते। ये आपकी कामवाली भी जानती है, सो जो वो मांगती है वो आप देते है। ग्लानि के साथ।

पत्रकार मर रहा है। ये सच नया नहीं है। रोज नौकरी करके वो समझौतावादी हो चला है। एक ऐसा समझौता जो वो एक मकान, एक गाड़ी, एक छुट्टी के लिए करता है। और बदले में उसे निजाम बदलने पर मिलती है एक नोटिस। आपकी जरूरत इस संस्थान को अब नहीं है। धन्यवाद।

सूचक
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