Sunday, January 13, 2008
हल्ला बोल
आम आदमी से खास बनना और फिर आम हो जाना। किसी और की लड़ाई को लड़कर खुद को पाने की कोशिश। “रिपोर्ट क्यों नहीं लिखाई। ये सवाल मीडिया पूछता है एक किरदार से। वो किरदार पूछता है किसके खिलाफ लिखाई जाए रिपोर्ट। वे जो मार रहे थे। ये वे जो देख रहे थे। या वो मीडिया जो किसी को सरेआम पिटते देख रही थी, फिल्म बना रही थी”। हल्ला बोल के मर्म को समझना आसान है। अपनाना कठिन। एक सरेआम हत्या से जुड़ी इस कहानी में कई मोड़ है। जीत कर हार है। हार कर जीत। कहने में तो एक आम आदमी के कुछ उसूल तोड़ कर खास बनने की कोशिश है, तो उसूलों के दायरे में रहकर सबका दर्द अपनाने वाले एक और शख्स की समाज की हर बुराई से लड़ाई है। दो धाराएं है। लेकिन एक अपनी मजबूती के साथ है, तो दूसरा हर कमजोरी के बाद मजबूत होता है।
हल्ला बोल में नायक कहता है “मैं डर गया था”। वो अपने परिवार के आंसू नहीं झेल पाता। वो कुबूलता है कि वो डर गया था। और वहीं है एक ऐसा शख्स जो डर को पीछे छोड़ चुका है। वो समाज को डरने से बचाने की आग लेकर चलता है। फिल्म का कथानक हकीकत के आसपास है। मीडिया के और भी करीब। जैसिका लाल की हत्या के बाद उसके परिवार और बहन की कोशिशों और मीडिया के जारी रहने से एक आवाज को बराबर सुना गया। हल्ला बोल। लेकिन। अभी तक किसी किरदार ने समाज की बुराईयों के खिलाफ हल्ला नहीं बोला है।
हल्ला बोल में नायक और खलनायक के बीच केवल एक बात का फासला है। सच का। एक सच को छोड़ने के बाद पर्दे का नायक बनता है, और सच के साथ चलने के बाद वो खुद की नजर में हीरो। लेकिन इंसानी कमजोरी को साफ करती इस फिल्म के फलसफे में पंकज कपूर की भूमिका एक आम किरदार से ज्यादा की है। सच की ताकत। देखने में वो आम है, लेकिन अपनी क्षमता को जानने के बाद वो आवाम की ताकत जैसा है।
फिल्म में कितना सच है, कितना बनावटी ये, फिल्म के अखबारी समीक्षक जाने। और क्या जाने। सबने इसे औसत फिल्म आंका। “ओम शांति ओम धांसू फिल्म थी”। समाज और इंसानी कमजोरी और ताकत को दिखाने वाली औसत फिल्म बताया जा है हल्ला बोल को। ये फिल्मिया समीक्षक है, जो समाज के साथ चलने वाले सिनेमा के पहरेदार है।
खैर। एक अच्छी फिल्म को देखने का लुत्फ लेना हो तो, देखिएगा। इस फिल्म में सारे तत्व है, जो फिल्मी आधार के है। लेकिन फिल्म में इंसानी हकीकतों और कथानक को बुनने में जो मेहनत की गई है, वो काबिलेतारीफ है। कम से कम बीते सालों की चर्चित फिल्मों की तरह इसे किसी तरह का अव्यवहारिक अंत या अनैतिक अंत को नहीं दिखाया गया है।
सूचक
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