देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रगति में मीडिया की भूमिका खबरदार-होशियार की हो चली है। पर इस मुख्यधारा के इतर भी जो लौ जल रही है, उसकी झलक या तो गांवों में दिखती है या तो शहरों के द्वितीय तबके के सेमिनार हालों में नजर आ जाएगी। हम बात कर रहे है, देश के विकास में सहभागी बन चुके गैरसरकारी संगठनों और उनके द्वारा जलाई गई एक ऐसी मशाल की, जो इस पंक्ति पर ज्यादा मुफीद लगती है...जलाए न जले; बुझाए न बुझे। ये आग केवल संगठन खड़ा करने की नहीं, वालंटियर बनाने की नही, मुहिम चलाने की नहीं, परिणाम दिखाने की नहीं; बल्कि बदलाव लाने की विचलन भरी कोशिश की है। क्या फिक्शन की ओर बढ़ते मुख्यधारा के समाचार चैनलों को इसकी चिंता है। क्या नॉन फिक्शन की अवधआरणा पर खरे उतरते हजारों वित्तचित्र निर्माणों पर किसी की नजर जा रही है। जी हां बहस का मुद्दा यही है। तमाम विदेशी चैनल इस बात को समझ चुके है। भारतीय विजुअल मीडिया को ये समझना बाकी है। केवल और केवल अब यहीं रास्ता बचा नजर आता है! डाक्युमेंट्री की विधा को समझने वाले, इसे अपने परिणाम से जोड़कर देखने वाले और सचाई को आंकड़ो के बरक्स रखने वाले वित्तचित्र निर्माणों को जगह क्यो नहीं मिल रही है? सवाल पूछने वाले अपने अभियानों में इस कदर मशगूल है कि वे चिंता ही नहीं करते कि जो बनाया है, उसे सब देंखे। किसकी आंखें खोलनी है ये शायद तय नहीं हो पाया है। दरअसल वर्ग की संकल्पना यहां नजर आती है। उन्हे ही दिखा लो जो जुड़े है, या जो फंड दिला सकें तो समझो गंगा नहा लिए। खैर विमर्श के बिंदू कई है, पर लगता है वक्त आ गया है जब देश के हजारों सचाई के परकाले आवाज बुलंद करें कि हमें हमारे काम को जगह दी जाए। केवल एक बंद हाल के एक मटमैले पर्दे पर हमें नहीं दिखाना अपना सत्य। इसकी अभिव्यक्ति के माध्यम जनसंचार के चैनल क्यो न हो? उम्मीद है जल्द ही उनींदापन टूटेगा और सत्य दिखाने का माध्यम घर में दिखने वाला टेलीविजन होगा। हर घर में सत्य दिखेगा, विदर्भ का सत्य, मुंबई का सत्य, कश्मीर का सत्य, जीवन का सत्य औऱ तमाम अनछुए पहलू जो इस इतजार में है कि वे छुए जाएं। खुशी होगी जिस दिन किसी सत्यानवेषण की साबका किसी समाचार चैनल पर होगा। रोकने की लालसा में कुछ भी दिखाने वाले चैनलों को सोचना चाहिए।
'सूचक'
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