निंदा की जानी चाहिए। शर्म आनी चाहिए और मानवता को शर्मसार करने वाली इस घटना पर दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। आजादी का दिन, एक व्यक्ति बिहार के गया में किन्ही कारणों से आत्मदाह करने की कोशिश में साठ फीसदी जल गया। अगर ये सूनसान जगह पर किया गया कृत्य होता तो दोषी समाज और सरकार होते, पर पूरी मीडिया के सामने उसने आग की एक तीली से अपने शाल को के अंश को आग लगाई और धूं धूं कर जलने लगा। कैमरा कई एंगलों से दृश्य लेने लगा। जीता जागता तमाशा जल रहा था। कैमरामैन औऱ संवाददाता चिल्ला चिल्ला कर कह रहे थे कि, यहां से नहीं वहां से आग लगाओ, यहां नहीं वहां से दृ्श्य लो ( ये बात घटना स्थन से पता चली है)। हाल ही में दिल्ली में एक पुलिस वाले ने एक जल रहे व्यक्ति को खुद की जान पर खेलकर बचाया था, दिल में आस जगी कि मानवता शेष है। पर क्या मीडिया में मानवता का मोल नहीं रह गया है। एक व्यक्ति जल रहा है। संवाददाता मौजूद है, कैमरामैन खड़ा है, लोग देख रहे है, व्यक्ति जल रहा है। साठ फीसदी जल गया। बचा है तो जला शरीर। खाक हुई है तो मानवता। क्या इंसान का यह कर्तव्य नहीं बनता कि वो किसी भी जान देते व्यक्ति को रोके, टोके और किसी भी चाही घटना को रोके। शर्म आती है सोचकर कि ये है भारत का मीडिया, सचमुच 'खबर हर कीमत पर' के नाम के पैगाम से चलने वाले ये चैनल खबर जान लेकर भी चलना जानते है। वो भी एक्सक्लूजिव। दोषी कौन है सवाल जायज है। देखने वाला गुस्सा हो सकता है, चैनल बदल सकता है। बनाने वाला खबर का एंगल बदल देगा। पर मानवता को मारता रहेगा। इस बार अति हो गई सी लगती है। आप दृश्य देखकर यह सोचेंगे कि क्यों नहीं रोका गया उस जलते हुए व्यक्ति को। वजह साफ है। संवाददाता को हाईलाइट होना है, चैनल तो टीआरपी बढ़ानी है। शायद ये बहस ही खत्म हो चुकी है कि संवेदनशीलता मर चुकी है। अब तो सवाल ये है कि कब कौन जलेगा, किस चैनल पर जलेगा, कितने बजे जलेगा। मानवता को शर्मसार करने वालों सजा मिन ली चाहिए, नहीं तो जलना इनके लिए खबर बनती रहेगी, एक्सक्लूजिव खबर।
'सूचक'
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