Friday, August 11, 2006

टीवी की कृषि उपज...

'मीडियायुग' ने अपने चार माह के जीवन में इतना जरूर जान लिया है कि बदलाव कोई बाहर से नहीं लाया जा सकता है। हमने आज के मीडिया की उलझने औऱ मजबूरियों को समझते हुए एक मंच की परिकल्पना की थी, जो मीडिया खासकर टीवी को सही दिशा और सही जिम्मेदारी की अहसास कराए। बात केवल टीवी की ही नहीं, बदलते वक्त में हर मीडिया के सामने ये चुनौती है कि वो किस तरह अपनी उपादेयता साबित करे। नवप्रवाह और नवचेतना के इस युग में खबर बदली है, रूप बदला है और उसके सरोकार भी। कोई खबर जन की हो औऱ मन को भी भाए, ये जरूरी नहीं। आबादी की ज्यादातर जरूरतें ऐसी है जिनके लिए 'एक चिथड़े सुख' की लड़ाई जारी है। घर, मकान औऱ रोजी की रोजमर्रा जरूरतों में उलझा 'मानुस' क्या खबर के उस पहलू में सम्मिलित है जो पेश की जा रही है। गरीबी है, बेरोजगारी है, तंगी है, मिलावट है, कतारें है, सपने है और है एक बिन पहचान वाली जिंदगी। रेल के जनरल क्लास या महानगरों के बसों में ठुंसे लोग की कोई पहचान नहीं होती। वे भारत नहीं बनाते, सो खबर भी तब बनते है जब सैंकड़ों में हलाक हो जाते है। गोलियों से 'शहीद' होते है और घटनाओं से 'हलाक'। 'फोकस' क्या हो ये बाजार तय कर चुका है, प्रोग्राम में मुद्दे राजनैतिक तूफान, सामाजिक विद्रूपताएं, आर्थिक धक्के और फिल्मी तर्ज की लहरदार खबरें ही बन रही है। नटवर का फसाना हो या मटुकनाथ की रासलीला, शेयरबाजार की कमनीयता हो या अपराध की सनसनीखेज दास्तान, सबने आम आदमी की खबरों की जगह को घर रखा है। किसे आभास था कि टीवी अपनी उपादेयता रीजनलिज्म या अनुवादित प्रोग्रामों में खो देगा। विचार शून्यता सा हो चला है। मौलिक क्या हो सकता है, इसका अकाल पड़ा है। वजह साफ भी है, क्या केवल शहरों से भारत की कल्पना कर सकते है। क्या एक सामाजिक तानेबाने वाला देश केवल एक परिवेश में जी सकता है? क्या केवल पढ़े लिखे लोगों से देश का जनमानस बनता है, क्या बाजार का ग्राहक केवल शहर भर है? क्यों नहीं गांवों तक प्रसार के लिए निजी प्रसारकों ने डीटीएच जैसे माध्यमों को पहले पेश किया। क्या तकनीकी को दोष दिया जा सकता है। शायद नहीं, मंशा को हां जरूर दीजिए। आज गांवों में इंटरनेट है, स्वउत्पादित बिजली है, जल है और है जिंदगी, अपने तरह की जिंदगी। भदेसपन को शहरी अमलीजामा पहनाकर यदा कदा पेश किया जाता है, पसंद भी किया जा सकता है। पर ये क्यों नहीं सोचा जाता कि गांव को ही टार्गेट किया जाए। उन्हे वो दिखाया जाए जिससे फसल, उपज औऱ रोजगार हो, हर किसान के पास आय हो, वो उत्पाद खरीद सके, और टीवी उन्हे बेच सके। कृषि पर अर्थव्यवस्था टिकी है। सेवा पर भविष्य। सो टीवी को सेवा बनाकर कृषि क्यो नहीं की जाती!

'सूचक'
soochak@gmail.com

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