मैं सोच में हूं कि इसे क्या मीडिया कहूं, या साहित्य कहूं, या दो सहेलियों के बीच की 'शेयरिंग' कहूं, किसी मनोचिकित्सक की काउंसलिंग कहूं या किसी सोशल मोरल वैल्यू के निर्माताओं की चर्चा कहूं, या फिर मानवीय भावनाओं का मापदण्ड तय करने वाले सामाजिक नेताओं की बहस कहूं....क्या कहूं कुछ समझ में नहीं आता। पिछले दिनों 'सहारा समय' के न्यूज रीडर और एंकर दिनेश गौतम किसी 'लव ट्राएंगल' के पैट्रन से बात कर रहे थे। किस्सा तो कुछ यों था कि किन्ही दो लोंगो के बीच में करार था कि वो शादी करेंगे आपस में। और प्रेमी के किसी अन्य लड़की से भी गहरे 'अंतरंग' संबंध थे। अब हमारे एंकर महोदय दोनों कन्याओं से लगातार बातचीत कर रहे थे। एक से कि क्या उसे नहीं लगता कि ये धोखा है, उसके साथ और लड़किया तो ये सह ही नहीं सकती कि उनके प्रेमी के किसी दूसरे से संबंध हो और दूसरी से कि आपके ही ख़त दिखाई पड़ रहे है, उन सज्जन के तो खत या उनकी तरफ से दिया हुआ तो कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।
किस्सा ए कोताह, ये मामला कुछ जालसाजी के प्रतीत होता था, जिसमें दोनों लड़कियां बुरी तरह इस्तेमाल की हुई प्रतीत हुई। मगर इसका प्रस्तुतिकरण किसी प्रेम त्रिकोण की तरह था, या किसी एक कन्या की वकालत की तरह कि दूसरी उसका पीछा छोड़ दे या फिर वो उस शख्स को सजा दिलाना चाहती है।मैं अचंभित हूं कि मीडिया किस चीज की पड़ताल कर रहा है औऱ उसे हिंदुस्तानी औरतों की सामाजिक और वैयक्तिक स्थिति के बारे में कितनी जानकारी है, और इस खबर की चीरफाड़ से ये भी स्पष्ट नहीं होता कि वो किसके ओर है? वो उस लड़के की वकालत करते भी नजर आते है। एक लड़की को पीड़ित औऱ एक को आरोपी बनाते भी नजर आते है। समझ में ये नहीं आता कि आखिर वो कहना क्या चाहते है।
प्रो. मटुकनाथ की प्रेमकहानी के ऐसा रंग चढा कि अब हर चैनल को नया मसाला मिल गया है। दिक्कत तो तब आती है जब ये भी स्पष्ट नहीं होता कि मीडिया आखिर क्या कहना चाहता है। मीडिया इस प्रेम त्रिकोण को क्या स्त्री शोषण के नजरिए से देख रहा है या फिर क्राइम की तरह....ये उसकी रिपोर्टिंग से कही भी स्पष्ट नहीं हुआ।
सवाल ये भी है कि क्या इन प्रेम कहानियों के अतिरिक्त समाज में कहीं भी कुछ और नहीं घट रहा है, जिस पर बात करना मीडिया की जिम्मेदारी होती है। और जिसे मीडिया बिल्कुल अनदेखी कर रहा है।
आखिर ये मीडिया है या खाला बी और बुलाका बुआ की दोपहर को होने वाली गपशप, जिसमें वो सारे मोहल्ले की खबर रखती और बताती है, जिनका बदला हुआ स्वरूप है आज की किटी पार्टीज।
मीडिया का स्वरूप कुछ ऐसा बदल रहा है कि अब समझदार और संवेदनशील लोग न्यूज चैनल को देखना ही छोड़ देंगे। गंभीर सवालों और लोकत्रांतिक व्यवस्था के पहरेदारों को उनकी जिम्मेदारियों का अहसास दिलाना या उसको खींचने की जगह अब सब घर चौबारों की खबर पाटने बैठ गए है। तो हम इन न्यूज चैनलों को की जगह घर चौबारा क्यों नहीं कहते?
स्वधा
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2 comments:
अरे भाई, इनको तो टी आर पी बढानी है, तो मसाला खबरें लाते नही, निर्मित भी करते हैं, आप चाहे जिस नाम से पुकारें, "तो हम इन न्यूज चैनलों को की जगह घर चौबारा क्यों नहीं कहते?"
ये तो वही ला रहे हैं, जो बिक रहा है.
खिज होती हैं जब समाचार चेनल 'सत्यकथा' मार्का कहानीयाँ उसी अंदाज में बयान करने लगते हैं. जैसे आजतक का समाचार (?) नागीन का बदला.
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