Wednesday, November 22, 2006

टीवी के बारे में अनकही...

मुझे इंतजार था। पर क्यों किसी का ध्यान इस खबर की ओर नहीं गया। क्या इस वजह से क्योंकि
टीवी ने इस खबर को एक बाप के रहम पर उतार दिया।मतलब कि उस तरह नहीं धुना जैसा प्रिंस या राखी सावंत को। बात अनंत की हो रही है। अनंत का अगवा होना एक आम खबर थी, पर उनसे जुड़ा परिवार खास था। वो एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी के बड़े अधिकारी का तीन साल का लड़का था। और ये एक तरह की आपराधिक राजनैतिक खबर थी। जिसके आयाम कई थे।टीवी से इसे पहले कानून व्यवस्था, फिर पिता की रहम और फिर जान की कीमत पर छोड़ने का मन बनाया। कहा कि पिता के आग्रह पर हम अनंत से जुड़ी खबरे नहीं दिखाएंगे। क्या कदम रहा। टीवी की नैतिकता के बारे में सोचना हम आप छोड़ ही चुके है। सेक्स, भ्रमण, अपराध और छींटाकशी के अलावा कम ही ठोस दिखता है। दिखता है तो असर नहीं छोड़ता। क्या आपको पत्थर बनाकर मोम की कामना की जा सकती है। यही हुआ है। पहले असंवेदनशीलता के प्रहार और फिर मानवीय होना की गुहार। खैर हम चोला बदलते रहते है। टीवी ने नैतिकता के नाम पर खबर नहीं चलाई। नतीजा या कहे कि वो सिहरन जो सत्ता को बेध रही थी, ने मजबूर किया ये दबाव बनाने में कि वो वापस ले आए एक तीन साल के अबोध को। पर टीवी ने ये नहीं बताया कि किस तरह एक बाप ने अपनी तकनीकी समझ से बच्चे को वापस लाने में खास भूमिका निभाई। चलिए। जरूरी था। अनंत के वापस आने के बाद। एक बार फिर टीवी ने धज्जियां उड़ाई। पुलिस की अनंत गाथी की। क्या क्या फर्जी गढ़ा गया था। उसे पर्दाफाश करने में टीवी ने हर तरह की कहानी के पेंच खोले। खैर सबक पर गौर करिए। जब भी किसी मानवीय खबर पर टीवी पिल पड़ता है, तो नतीजे किसी न किसी तरह सार्थक हो जाते है। टीआरपी की चिंता में हर रोज नया करने और बांधने की कोशिश मे इस जनसमचार माध्यम ने कुछ गरिमा जरूर खोई है, पर जो बचा रहा है वो कही न कही किसी मूल्य को स्थापित करते है। एक बार जो कही नहीं गया वो गौर करने लायक है। अनंत ने घर पहुंच कर जो खुशी दिखाई, जो आपने हमने टीवी पर देखा। वो खुशी टीवी की बदैलत है। टीवी की बदैलत है आपको ये अहसास कि आप भले ही ज्यादातर शिकार होने पर पर्दे पर नजर आते है।पर न्याय आपके पास आने को तभी तैयार होता है जब आपके साथ जनभावनाएं होती है। जो टीवी बनाता है।

'सूचक'
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