होली की मस्ती ने हर चैनल को रंगोगुबार में रंगीन कर दिया। हर चैनल ने अपने अपने फूहड़ तरीके से होली को टीवी पर्दे पर खेला। पता नहीं सुरूर होली का था या सारारारा का। फूहड़ कामेडी कलाकारों के साथ होली के मौके पर किसी की खिंचाई से मनी टीवी की होली। मानो चौक मोहल्लों की रगड़ारगड़ी टीवी वालो ने अपनी ली। इसे आप होली पर हंसी की गोली देने वाला कहें तो बेहतर। कोई बिग बी को घेरे पड़ा था, तो कोई ठेठ अंदाज में होली को पास पड़ोस से जोड़ रहा था। खैर बीत गई होली। अब लोग घर में रहना पसंद करते है। बड़े शहरों की सोसाइटीज वाले मकानों में अगर पार्क हो तो खेल लेते हैं, न हो तो घर के बच्चों को तमाम तमाशे से दूर होली खेलेने देते है। शहरों से दूर मध्यमवर्गीय शहरों को टीवी कवर नहीं करता। क्यों। क्यों आप जहां से आए है वहां की होली देखना नहीं चाहते क्या। आप टीवी के दायरों में बंधे दिल्ली, मुंबई, कोलकाता की होली भर देख पाते है। पटना में टीवी जाता भी है तो लालू के घर तक। सड़कों पर खेली जाने वाली होली टीवी पर नदारद है। स्टूडियों में पारंपरिक कपड़े पहने एंकर बताते है, कि देखिए किस तरह देश खेल रहा है। पर क्या होली केवल शहर खेलेते है। किसी चैनल ने अपनी जद़ को गिने चुने शहरों से आगे न ले जाकर गिनी चुनी होली तक सीमित रखा। यानि शहरों की होली ही टीवी की होली है। कस्बों और मध्यमवर्गीय शहरों का समाज सचमुच होली को समरसता के तौर पर मनाता है। उल्लास और मस्ती का आलम वहीं ज्यादा खुला नजर आता है। बनारस से लेकर बदायूं तक, इलाहाबाद से गोरखपुर तक, रांची से जमशेदपुर तक और सिवान से मुजफ्फरपुर तक, होली की जो छटा जो रंग यहां बिखरते है, वे टीवी का हिस्सा नहीं है। क्यों। वजह सीमित दायरों में फीडबैक लेने वाला टीवी सिमटता जा रहा है। हर भारतीय दस से पन्द्रह मिनट ही न्यूज़ चैनलों को निहार रहा है। मोहति होकर नहीं। मजबूर होकर। सोचना होगा। और कहना होना।
बुरा न मानो होली है।
Soochak
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1 comment:
सही कह रहें हैं आप ! होली तो हमारे जेसे छोटी सी जगहोँ की होती है जहाँ यदि एक भी व्यक्ति न आए तो सब एक दूसरे से उसकी कुशलता पूछते हैं । मिलकर खेलते हैं मिलकर खाते हैं । मस्ती भी प्रेम भी ।
घुघूती बासूती
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