हिंदी व्यावसाईक भाषा नहीं है। इसमें व्यापार करना मुश्किल है। ये बात आम मानी जाती है। और शायद सच भी। एक साल से हिंदी में चल रहे ब्लागों को देखकर भी ऐसा अहसास होता है। अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के तौर पर हर दिन हिंदी में आठ से दस ब्लाग तो बन ही रहे है। कहानी, कविता, विश्लेषण, बाजार और स्वयं की सोच को रखने के तौर पर ब्लाग बन-बुन रहे है। लेकिन क्या व्यवसाय हो रहा है। सवाल तीखा हो सकता है। आंकड़ो की कहें, तो जरूर ही। देश में अभी कुछ फीसदी ही इंटरनेट उपभोक्ता है। और इनमें से भी एक सीमित संख्या में ऐसे कम्प्यूटरों से जुड़े है, जो हिंदी को दिखा सकें। तो ऐसे में कितने लोग हिंदी को आपस में फैलाकर लोकप्रिय बना रहे है, सवाल ये है। हिंदी को एक भाषा और संस्कृति के तौर पर अपनाने के दावे को पूरा करने में सरकारें असपल रही हैं। तो क्या माना जाए कि इंटरनेट इसे कर पाएगा। कुछ रूकावटें है। जिन्हे अब पार पाने की कोशिशें जारी है। तकनीकी को छोड़ दें, तो अपनाने और उसे फैलाने में हित का सवाल बड़ी है। क्यो विस्तार दिया जाए। जिस एक प्रमुख प्रथम वेबसाइट ने इस कार्य को शुरू किया, उसके हित और मंजिल साफ थे। आज वो रीजनल बाजारों में मौजूद है। बाजार के सारे व्यावसाइक फंड़ो के साथ। वो कमा रहा है, लेकिन ब्लाग वाले लिख तो रहे है, पर क्या वे बाजार को देख रहे हैं। बाजार को देखना पड़ेगा। क्यों। क्योंकि जिस जमाने की देन ब्लाग और अभिव्यक्ति के नए माध्यम है, वो सीधे बाजार से जुड़े है। दुनिया भर की चर्चित ब्लाग प्रोवाडर्स की कमाई का जरिया भी बाजार के विग्यापन है। तो कहां छिपा है हिंदी ब्लागर्स का बाजार। देश में इंटरनेट की गति, ब्लाग पर मौजूद आम आदमी लायक जानकारी, ब्लाग से रोजाना के जीवन में होने वाले प्रभाव, दबाव समूहों के तौर पर ब्लाग का उभरना, ब्लाग को समस्या या जानाकरी के लिए प्रयोग किया जाना। तमाम ऐसी जरूरतें है जिनसे जुड़कर ही भारत का हिंदी ब्लाग का आकाश तारें पैदा कर सकता है।
गंभीरता से नजर डालने पर ज्यादातर ब्लाग सर्वव्यापकता के शिकार दिखते है। ये ईमेल के शुरूआती दिन जैसा है। लोग ईमेल आने का इंतजार करते थे। आज कमेंट का इंतजार है। लेकिन वो आता भी है तो एक गिने चुने वर्ग से। सो प्रसन्नता से ज्यादा निराशा होती है। हमेशा वहीं नाम। दूसरी ओर ज्यादातर ब्लाग लेखक क्रांतिकारी दिखते है। वे एक मुहिम के तौर पर ब्लाग चलाते है। जैसे कुछ को पढ़ाकर वे दुनिया बदल लेंगे। जुबानी प्रचारों के जरिए भी मशहूर होने वाले ब्लाग आज हाशिए पर है। अंग्रेजी में कच्चा चिट्ठा खोलने वाले मशहूर ब्लाग- वार फार न्यूज- को भी लोकप्रियता का चरम माने तो व्यवसाय का क्या। क्या कमाना जरूरी है। उद्देश्य से बढ़कर। हां, सवाल कमाने का नहीं, उद्देश्य पूर्वक कमाने का है। लोगों को जोड़ना आपके बस में हो या न हो, लेकिन उनका जो भी वक्त आपके साथ बीते, उसकी कीमत होनी चाहिए। ये फ्री टू एयर का जमाना हो सता है, लेकिन पे चैनल होकर ही आप आधार बनाते हैं। रही बात भविष्य की तो, वो हमारा होगा। लेकिन आप विकसित देशों में अपने आप को लोकप्रिय बनाने की ओर सोचें तो। अमेरिका या लंदन में बसे लाखों भारतीय हर चीज कीमत देकर खरीदते है। आपके लिए ये ग्राहक और प्रशंसक दोनों है। पर भारतीय होने के गर्व के साथ आप पेश करने में माहिर हो तो। अपनी बहस को आगे बढ़ाने का इच्छुक हूं। इसलिए नहीं कि कमाना चाहता हूं। इसलिए कि कीमत होने पर ही आप स्वाकीरे जाते हैं।
सूचक
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6 comments:
बहुत अच्छा लेख।
लेकिन मै भी वही सवाल पूछता हूँ, क्या हर चीज मे व्यवसायिक उद्देश्य देखे जाने चाहिए? मै यह नही कहता कि व्यवसायिक उद्देश्य होने चाहिए, लेकिन क्या इतनी जल्दी। अभी आधार तो बनने दीजिए। कितने प्रतिशत लोग जुड़े है इनसे? समय आएगा।
हिन्दी चिट्ठाकारी को लोकप्रिय होने दीजिए, जन जन की आवाज बनने दीजिए। हिन्दी को इन्टरनैट पर राज करने दीजिए, फिर देखिएगा। ग
सूचक जी,
मेरे हिसाब से आपने अत्यन्त महत्वपूर्ण बात कही है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी ब्लॉग्स कमा नहीं रहे हैं। उदाहरण के तौर पर हिन्दी ब्लॉग्स डॉट कॉम इतना कमा लेता है कि एक आदमी की घर बैठे रोजी रोटी चल सकती है। जरूरत है तो इसे समझने की।
पुनीत
बहुत अच्छा
बढ़िया लिखा आपने.. ब्लॉग्कों की प्रवृत्तियों को पकड़ा है आपने.. मैं भी उनमें से एक हूँ.. पर मैं पैसे भी कमाना चाहता हूँ.. आपने सवाल खड़ा किया है.. मैं जानना चाह्ता हूँ क्या कीमत है मेरी बाज़ार में.. मैं अपना लेखन बेचना चाहता हूँ.. आप रोशनी दिखायें.. कौन देगा पैसे.. विज्ञापनदाताओं को लुभाने के लिये क्या अपने लेखन की शैली को भी बदलना होगा. क्या ज़्यादः पैसे कमाने के लिये बिपाशा के देहयष्टि का विश्लेषण करना होगा.. या क्रिकेट की खुर्चन परोसनी होगी..हो सकता है वही बिके और मैं ऐसा करने से मुकर जाऊँ.. मगर फिर भी आप अगर जानते हैं तो मार्गदर्शन करें..कोई तो चराग़ जलाओ बड़ा अँधेरा है..
वर्तमान में हिन्दी चिट्ठा एक पौधे जैसा है, इसे अभी खाद-पानी व संरक्षण की आवश्यकता है. समय आने पर फल भी देगा.
ऊपर जीतू जी और संजय जी से सहमत हूँ। आप एक बार हिन्दी के पैर तो जमने दीजिए नेट पर। जुम्मा जुम्मा ४ साल ही तो हुए हैं इसे शुरु हुए। इंग्लिश और दूसरी भाषाओं के बारे में बात करने से पहले ये तो सोचिए वो कितने सालों से हैं नेट पर।
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