किस तरह की पत्रकारिता के खरीदार है आप। सुबह से लेकर शाम तक आपके सामने से कई तरह के संचार साधन गुजरते है। हर की कीमत तय है। अखबार, टीवी, रेडियो और इंटरनेट। सबने बीड़ा उठा रखा है कि वो आपको सूचना देगी। एक ऐसी सूचना, जिसका उपयोग आप अपनी किसी जरूरत को पूरा करने में कर पाएंगे।
अखबार में पहले पन्ने की खबर में से पाई गई एक सूचना से दिनभर की बासी बहसों को नया आयाम मिला करता था। लेकिन आज तमाम और निजी जरूरतों ने इनपर कब्जा कर लिया। किसी से पहली मुलाकात में देश, विदेश और समाज नहीं अब फाइनेंस, गाड़ी, मोबाइल और बेहद ऊपरी बातें होती है। ये हाल तो शहर का है। लेकिन ग्रामीण अंचलों में लोग अब सरकार से ज्यादा लोकल स्कीम्स, व्यवसाय की खबरों, मंडी भाव और मनोरंजन की खबरों को तव्वजों देने लगे है।
टीवी ने जिस ऊबाउपन को दूर किया था, आज वो बीच बीच में आने वाले ब्रेक्स से बढ़ गया। तकरीबन एक सी प्रस्तुतियों से लोगबाग अपनी सामान्य समझ को किनारे रखकर टीवी देखने लगे है। मनोरंजन की विविधता के दर्शन के नाम पर गाना बजाना, फूहड़ हंसी और रोमांच के नाम पर पैसों का खेल। लेकिन इसके भी दो चेहरे है। सरकारी चैनल अभी भी कुछ जमीनी है। वैसे भी दूरदर्शन के दर्शक कम से कम अपने घरों में नैतिकता की शिकायत नहीं कर सकते। निजी टीवी चैनलों की रचनात्मकता केवल बनावटी और नकल को अपने ढांचे में पेश करने में ज्यादा दिखती है। वैसे अपने कांसेप्ट पर हमने जो भी ऊंचाईयां पाई है, वो आज के दौर में इतिहास है। आगे आने वाले दिनों में बेकार समय गुजारने का माध्यम टीवी अगर नहीं बन पाया तो इसके पीछे केवल देशकाल की समझ रखने वाले कंटेट को ही अपनाना वाला होगा। जो हमें अपनी पहचान के पास रखेगा, और टीवी को उसकी।
रेडियो की आवाज बदल गई है। वहां आवाजें तो बहुत है। लेकिन प्रभाव घट गया है। हालांकि रेडियो को इस धमाल का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिसके गाने बजाने से आज रेडियो जिंदा है। एफएम एक पहल थी। जो बीते कुछ सालों में लूप में बजने वाले गाने सी होकर रह गई है। सरकारी रेडियो ने भले ही अपनी मौजूदगी बनाए रखी हो, लेकिन उसका पुरकशिश अंदाज अब पुराना सुर सा लगता है। खबरों के लिए रेडियो सुनने वालों की कमी हो गई है। सुबह शाम बीबीसी सुनने वाले अब कम हो चले है। रेडियो को नई पहचान तो मिली, लेकिन उसकी अतीत अब ज्यादा प्रभावी लगता है।
इंटरनेट पर खबर पढ़ने वालों को माध्यमों की बहुलता से जूझना पड़ता है। आप गूगल पर खोजकर सूचना को ज्यादा उपयोगी नहीं बना सकते। सूचना को सींचना कैसे ये इंटरनेट पर तय करना मुश्किल है। सबसे बड़ी दिक्कत तो स्क्रीन की चंचलता ही है। प्रचार, सामग्री का ऐसा घलमेल होता है कि आप कि एक गलत क्लिंकिग आपका समय ही बर्बाद करती है। और अगर आप किसी ग्रुप के सब्सक्राइबर है तो सूचना के साथ आफर इतने कि आप का जी आजिज। शोध की गहरी संभावना को शायद इंटरनेट ने खत्म सा कर दिया है। इसे पत्रकारिता अच्छे से समझ सकता है।
तो क्या आने वाले वक्त मे हमें एक नए संचार माध्यम की जरूरत होगी। या हम वाहियात सी लगने वाली सूचनाओं से अपने आप को आगे बढ़ाएंगे। बहरहाल जो भी हो आप खरीदार बनें रहेंगे। और जो भी उत्पाद आप खरीदेंगे उसी से तय होगा कि आपकी सूचना क्या है।
सूचक
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