साल के आखिरी दिन सोचना जरूरी है कि क्या बीता। क्या देखा। क्या जाना और क्या सुना। बीते साल के आखिरी दिन यानि 31 दिसम्बर 2006 को दिल्ली में डीटीएच लागू करने का आखिरी दिन था। वो लागू न हो सका। लेकिन टीवी पर सबकुछ चालू रहा। जाते साल में टीवी पर गंभीर-अगंभीर सबकुछ दिखा। देखने लायक से बोर होने लायक तक।
वैसे आप इसे हादसों का साल कह सकते है। हैदराबाद से लेकर अजमेर तक बम फटे। मासूम लोगों की दर्दनाक तस्वीरें चैनलों पर कई दिन तक चलती रही। और हमारी चेतना को ये जगाने के लिए काफी था।
आंदोलनों का भी साल रहा। गुज्जरों ने उत्तर भारत को हिला और ठहरा सा दिया। नंदीग्राम का आग ने वाम दलों को हिलाया। पूरे देश में जमीन और अधिकार की बात को टीवी न कहते हुए भी दिखा रहा था।
उछाल के लिए किसी पोलवाल्ट प्लेयर की मिसाल को सेंसेक्स ने पीछे छोड़ दिया। अभी आप उठे नहीं कि टीवी पर सेंसेक्स ने एक हजार की छलांग लगा दी। लाखों करोंड़ो के वारे न्यारे। लेकिन एक डर के साथ। लेकिन टीवी पर इसे हमेशा सकारात्मक तरीके से पेश किया गया।
गर्मी भी छाई रही। साल भर ग्लोबल वार्मिंग की चर्चा रही। और आर के पचौरी को साझा नोबेल मिलने से इसे गर्मी मिली। तापमान बढ़ रहा था। और इसका असर पूरे देश में गर्मी बढ़ने के साथ महसूस किया गया। देश की राजधानी को बरसात की झलक कम ही मिली। हालांकि देश के कई भाग डूबे से रहे।
जो उभरा वो सितारा। यानि साल भर एक ही सितारे ने हर टीवी चैनल पर अपनी मौजूदगी दिखाई। शाहरूख खान। यकायक लगा कि शाहरूख हर कहीं है। वे चक दे के कोच के साथ साथ अपने दोनों ओम किरदारों के साथ शांति का संदेश देते रहे। क्रिकेट हो या रियल्टी शो। शाहरूख का रूख हर जगह दिखा।
दिखी तो दो गुमनाम महिलाएं भी। एक भूली बिसरी मॉडल- गीतांजलि नागपाल और एक सताई गई महिला- पूजा चौहान। दोनों ने सड़क पर से टीवी के पर्दे पर कई दिनों तक जगह बनाई। एक ने इलाज पाया तो दूसरी को इलाज की जरूरत बताई गई। खैर ये नारी की ताकत ही कहा जाएगा। पूरे साल नारी की ताकत का ये सबसे सशक्त नजारा था, जो टीवी पर रहा।
माधुरी का आना, नचले का फसाना। रास न आया। विवाद भी जुड़ा। या जोड़ा गया। लेकिन किसी को उनका ढ़लता रूप रास न आया। आजा नचले को टीवी ने प्रमोशन कम दिया, खींचा ज्यादा।
वहीं ओम शांति ओम और सांवरियां के खाते में खड़े रहे टीवी चैनल। बेचते रहे। दिखाते रहे कि क्लास और मास में एक बड़ी दूरी है। और लोकतंत्र में जीतता तो क्लास ही है। सो ओम शांति ओम जीतती रही।
राजनीति का रूख तकरार वाला रहा। पहले एन-डील, फिर रामसेतु, फिर नंदीग्राम, फिर गुजरात- सभी जगह यूपीए कमजोर रही। विपक्षी इसका फायदा तो उठाते रहे, लेकिन देश के लिए किसी ने भी विजनरी का रूख नहीं दिखाया। टीवी ने नंदीग्राम, एन-डील, गुजरात को वेदी मानकर वाम, कांग्रेस और मोदी को चढ़ाया। नतीजा केवल अभी तक मोदी के पक्ष में ही रहा। वे करण थापर के इंटरव्यू में बीच में उठकर चले जाते है। उनका विखंडित समाज इसे उनका अपमान मानता है। वे बंपर जीतते है।
कभी अंदर तो कभी बाहर। संजय दत्त और सलमान खान तो साल भर यही करते रहे। हर बार मीडिया में अपील। मानो बिन गलती के सजा भुगत रहें हो। खैर टीवी ने इसे खूब दिखाया। शायद इसे ही वो सबकी खबर मान चुका है।
साल भर जिस खुमार को टीवी भुनाता रहा, वो क्रिकेट का रहा। खैर हम जीतते हारते रहे। 20-20 में धोनी की जीत तो खैर सचमुच मायने रखती है। इसके साथ ही हाकी में भी चक दे इंडिया की धुन पर टीवी हमारी जीत दिखाती रही। जीते तो विश्वनाथन आनंद भी। लेकिन एयरपोर्ट पर उनका स्वागत कैमरों ने कम ही किया।
आसमान में सैटेलाइटों के ऊपर एक महिला ने कई महीने बिताएं। वो भारतीय मील की थी। सुनीता विलियम्स भारत आई। टीवी पर एक हफ्ते वो खूब खबरों में रही।
शादियां आसमान में तय होती है। और अभिऐश की शादी में न्यौता मिलना भी आसमानी सौगात रही। टीवी चैनल बाहर रहे। अंदर शादी चलती रही। टीवी के लिए सबसे कमजोर वक्त था। निजी जिंदगी में उसकी दखल के बढ़ने के बाद उसे दरवाजे पर खड़ा रखना जरूरी था। हुआ वही। घरों के बाहर वो बिन बुलाए बाराती की तरह मौजूद रहा।
खरीदारी का साल रहा। लक्ष्मी निवास मित्तल ने आर्सेलर पर कब्जा जमाया, तो टाटा कोरस के अपने झोले में ले आई। ये
खबरें रही। खैर सोना मंहगा, कारों के नए नए मॉडल के साथ देश मजबूत होता दिखा।
मजबूत को मायावती भी हुई। टीवी ने इसे दिखाया। और इस मीडियायुग में उन्होने अपने तरीके से चुनाव जीता। टीवी उनके बढ़िया प्रदर्शन को राजनीति की नई पहल की पहल की तौर पर पेश करता रहा।
लेकिन साल के अंत में जिस घटना ने टीवी के पर्दे को हिला दिया, वो रहा बेनजीर की हत्या का मामला। टीवी ने हर ओर से इस घटना को दिखाया। और कोशिश की कि उसकी गंभीरता बनी रहे।
उम्मीद है इस साल टीवी पर आपको दिखेगा कुछ नया। नया यानि जो आपकी पसंद से जुड़ा हो। और जिसे आप सूचना के तौर पर तो कम से कम उपयोग किया जा सके।
सूचक
soochak@gmail.com
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Monday, December 31, 2007
Sunday, December 30, 2007
बेनजीर हत्याकांड और ब्लाग
विश्वसनीयता का मानक क्या है। किसी बड़े हादसे के बाद टीवी के सामने ये सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है। पाकिस्तान की आला नेता बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद टीवी पर खबरों का रूख पल पल बदलता नजर आ रहा है। पहले जिसे गोली से लगने वाली मौत माना जा रहा था, वो सरकारी बयान के बाद एक हादसा सा दिखाया गया। लेकिन इसे काटने के लिए भारतीय टेलीविजन चैनल एक से एक बढ़कर दावे पेश कर रहे है। आज एक प्रमुख समाचार चैनल ने एक ब्लाग पर से दिखाई गई तस्वीरों के बिना पर पाकिस्तान के सरकारी दावे की धज्जी उड़ाई। इन तस्वीरों को आप भी देखिए..
जाहिर है इस ब्लाग पर दी गई इन तस्वीरों में बहुत कुछ साफ नहीं है। लेकिन ये ब्लाग की ताकत को दिखाता है। चैनल ने लगातार कई घंटों तक ब्लाग के नाम और उसमें कहीं गई बातों को दिखाया। ऐसा शायद पहली बार हुआ है, जब एक बड़ी राजनीतिक हत्या के बाद एक ऐसे सोर्स को पेश किया गया, जो पाकिस्तान में तो अभी नया ही कहा जा सकता है।
भारतीय चैनलों की इस हड़बड़ी को समझना जरूरी है। दरअसल कल दिन से ही एक अंग्रेजी चैनल ने पाकिस्तान में द हिंदू अखबार की संवाददाता के जरिए इस बात को बताया कि कैसे बेनजीर की हत्या के वक्त वे मौका ए वारदात पर थी। फिर हिंदी के समाचार चैनलों ने पाकिस्तान के आंतरिक मंत्री जावेद चीमा के बयान को आधार मानकर थ्योरी को स्कल डैमेज से जोड़कर दिखाया गया। कहीं न कहीं सरकार के नजरिए को चैनल दिखा रहे थे। जबकि आज उनका रूख बीच वाला था। शाम से ही भारत में चैनल गोली की थ्योरी और स्कल डैमेज के बीच अंतर को दिखा रहे थे। पत्रकारीय सोच की एक झलक दिख रही थी। लेकिन पल पल बदलने वाले इस हादसे में जांच का रूख तय करता पाकिस्तान की सरकार ही दिख रहा था।
वैसे शाम तक ब्लाग पर दिखी तस्वीरों से एक बार फिर दिखा एक आम नजरिया। जो कहीं न कहीं सरकार के दावों की धज्जियां उड़ा रहा था। खैर सूचना के इस दौर में नए खुलासों के लिए इंटरनेट की इस नई दखल का स्वागत किया जाना चाहिए।
"सूचक"
soochak@gmail.com
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जाहिर है इस ब्लाग पर दी गई इन तस्वीरों में बहुत कुछ साफ नहीं है। लेकिन ये ब्लाग की ताकत को दिखाता है। चैनल ने लगातार कई घंटों तक ब्लाग के नाम और उसमें कहीं गई बातों को दिखाया। ऐसा शायद पहली बार हुआ है, जब एक बड़ी राजनीतिक हत्या के बाद एक ऐसे सोर्स को पेश किया गया, जो पाकिस्तान में तो अभी नया ही कहा जा सकता है।
भारतीय चैनलों की इस हड़बड़ी को समझना जरूरी है। दरअसल कल दिन से ही एक अंग्रेजी चैनल ने पाकिस्तान में द हिंदू अखबार की संवाददाता के जरिए इस बात को बताया कि कैसे बेनजीर की हत्या के वक्त वे मौका ए वारदात पर थी। फिर हिंदी के समाचार चैनलों ने पाकिस्तान के आंतरिक मंत्री जावेद चीमा के बयान को आधार मानकर थ्योरी को स्कल डैमेज से जोड़कर दिखाया गया। कहीं न कहीं सरकार के नजरिए को चैनल दिखा रहे थे। जबकि आज उनका रूख बीच वाला था। शाम से ही भारत में चैनल गोली की थ्योरी और स्कल डैमेज के बीच अंतर को दिखा रहे थे। पत्रकारीय सोच की एक झलक दिख रही थी। लेकिन पल पल बदलने वाले इस हादसे में जांच का रूख तय करता पाकिस्तान की सरकार ही दिख रहा था।
वैसे शाम तक ब्लाग पर दिखी तस्वीरों से एक बार फिर दिखा एक आम नजरिया। जो कहीं न कहीं सरकार के दावों की धज्जियां उड़ा रहा था। खैर सूचना के इस दौर में नए खुलासों के लिए इंटरनेट की इस नई दखल का स्वागत किया जाना चाहिए।
"सूचक"
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Saturday, December 29, 2007
Appeal to save a pro-people journalist...pls sign and circulate
Dear friends and comrades,
This is to inform you of the recent arrest of Prashant Rahi, a senior journalist of Uttarakhand, by the state police. Prashant was arrested on 15th of this month in Dehradun and was allegedly charged of being a Maoist commander. The police secretly confined him for five days after which he was shown arrested from the forests of Hanspur Khatta on 21st December. The police have charged him with various sections of IPC including 121, 121A, 124A, 153B, 120B. All the media carried the same version as stated by the police.
Just to give you a background, Prashant Rahi had been working in close association with the local people's struggles in Uttarakhand since last 17 years. He has been a journalist by profession. Started his career from Himachal Times, moved on to The Statesman and worked many years covering people's issues. He is a native of Maharashtra and pursued his education from Banaras Hindu University.
This incident is in continuance of the trend set by many innocent arrests in the last few months including that of Binayak Sen and some journalists in Kerala and Andhra Pradesh of targeting pro-people intellegentsia. The trend has become increasingly apparent in those parts of the country where people's movement is strong.
We firmly believe that this state action is a part of the efforts being carried out by the various state governments to secure hefty amount of funds from the central government in the name of combating naxalism. For this, it becomes imperative for them to prove that the state is inflicted with this insurgency.
We, the undersigned, strongly condemn the arrest of Prashant Rahi and call upon all the concerned individuals, civil society organisations, journalist unions, writers unions, people's movements and struggling groups to join hands in solidarity and support. Please send your consent at saveprashantrahi@gmail.com
Rajendra Dhasmana (President, PUCL, Uttarakhand)
Manglesh Dabral (Poet and Journalist)
Pankaj Bisht (Editor, Samayantar)
Anand Swaroop Verma (Journalist and Human Rights Activist)
P.C. Tiwari (National Secretary, Indian Federation of Working Journalists)
Suresh Nautiyal (General Secretary, Uttarakhand Patrakar Parishad)
Anil Chaudhary (President, INSAF)
Jagdish Yadav (Photo Editor, Pioneer)
Harsh Dobhal (Managing Editor, Combat Law)
Shekhar Pathak, Senior Fellow, Nehru Memorial Museum and Library
Gautam Navlakha (Consulting Editor, Economic and Political Weekly)
Ashish Gupta (Asamiya Pratidin)
Anil Chamadia (Journalist)
Jaspal Singh Siddhu (UNI)
A.K. Arun (Editor, Yuva Samwad)
Madan Kashyap (Poet)
Pankaj Singh (Poet and Journalist)
Karuna Madan (Journalist)
Piyush Pant (Editor, Lok Samwad)
Sarvesh (Photo Journalist)
Panini Anand (Journalist, BBC Hindi)
Avinash (Journalist, NDTV India)
Bhupen Singh (Journalist, STAR News)
Sukla Sen (CNDP India)
Aanchal Kapur (Kriti Team)
Vijayan MJ ( Delhi Forum)
Sanjay Mishra (Special Correspondent, Dainik Bhaskar)
Prem Piram (Director, Jagar Uttarakhand)
Ashok Pandey (Poet)
Arvind Gaur (Director, Asmita Theatre Group)
Pankaj Chaturvedi (Poet)
Satyam Verma (Rahul Foundation)
Ranjit Verma (Advocate)
Bishambhar (Secretary, Roji Roti Bachao Morcha)
Ajay Prakash (Journalist, The Public Agenda)
Swatantra Mishra (Journalist, IANS)
Vandana (Special Correspondent, Nai Dunia)
Shree Prakash (INSAF)
Abhishek Srivastava (Freelance Journalist)
Rajeshwar Ojha (Asha Pariwar)
Raju (Human Rights Law Network)
Rajesh Arya (Journalist)
Kamta Prasad (Linguist and Translator)
Abhishek Kashyap (Writer)
Thakur Prasad (Managing Editor, Samprati Path)
Rajiv Ranjan Jha (Writer)
Srikant Dube (Journalist)
Rishikant (Journalist)
Pankaj Narayan(Journalist)
This is to inform you of the recent arrest of Prashant Rahi, a senior journalist of Uttarakhand, by the state police. Prashant was arrested on 15th of this month in Dehradun and was allegedly charged of being a Maoist commander. The police secretly confined him for five days after which he was shown arrested from the forests of Hanspur Khatta on 21st December. The police have charged him with various sections of IPC including 121, 121A, 124A, 153B, 120B. All the media carried the same version as stated by the police.
Just to give you a background, Prashant Rahi had been working in close association with the local people's struggles in Uttarakhand since last 17 years. He has been a journalist by profession. Started his career from Himachal Times, moved on to The Statesman and worked many years covering people's issues. He is a native of Maharashtra and pursued his education from Banaras Hindu University.
This incident is in continuance of the trend set by many innocent arrests in the last few months including that of Binayak Sen and some journalists in Kerala and Andhra Pradesh of targeting pro-people intellegentsia. The trend has become increasingly apparent in those parts of the country where people's movement is strong.
We firmly believe that this state action is a part of the efforts being carried out by the various state governments to secure hefty amount of funds from the central government in the name of combating naxalism. For this, it becomes imperative for them to prove that the state is inflicted with this insurgency.
We, the undersigned, strongly condemn the arrest of Prashant Rahi and call upon all the concerned individuals, civil society organisations, journalist unions, writers unions, people's movements and struggling groups to join hands in solidarity and support. Please send your consent at saveprashantrahi@gmail.com
Rajendra Dhasmana (President, PUCL, Uttarakhand)
Manglesh Dabral (Poet and Journalist)
Pankaj Bisht (Editor, Samayantar)
Anand Swaroop Verma (Journalist and Human Rights Activist)
P.C. Tiwari (National Secretary, Indian Federation of Working Journalists)
Suresh Nautiyal (General Secretary, Uttarakhand Patrakar Parishad)
Anil Chaudhary (President, INSAF)
Jagdish Yadav (Photo Editor, Pioneer)
Harsh Dobhal (Managing Editor, Combat Law)
Shekhar Pathak, Senior Fellow, Nehru Memorial Museum and Library
Gautam Navlakha (Consulting Editor, Economic and Political Weekly)
Ashish Gupta (Asamiya Pratidin)
Anil Chamadia (Journalist)
Jaspal Singh Siddhu (UNI)
A.K. Arun (Editor, Yuva Samwad)
Madan Kashyap (Poet)
Pankaj Singh (Poet and Journalist)
Karuna Madan (Journalist)
Piyush Pant (Editor, Lok Samwad)
Sarvesh (Photo Journalist)
Panini Anand (Journalist, BBC Hindi)
Avinash (Journalist, NDTV India)
Bhupen Singh (Journalist, STAR News)
Sukla Sen (CNDP India)
Aanchal Kapur (Kriti Team)
Vijayan MJ ( Delhi Forum)
Sanjay Mishra (Special Correspondent, Dainik Bhaskar)
Prem Piram (Director, Jagar Uttarakhand)
Ashok Pandey (Poet)
Arvind Gaur (Director, Asmita Theatre Group)
Pankaj Chaturvedi (Poet)
Satyam Verma (Rahul Foundation)
Ranjit Verma (Advocate)
Bishambhar (Secretary, Roji Roti Bachao Morcha)
Ajay Prakash (Journalist, The Public Agenda)
Swatantra Mishra (Journalist, IANS)
Vandana (Special Correspondent, Nai Dunia)
Shree Prakash (INSAF)
Abhishek Srivastava (Freelance Journalist)
Rajeshwar Ojha (Asha Pariwar)
Raju (Human Rights Law Network)
Rajesh Arya (Journalist)
Kamta Prasad (Linguist and Translator)
Abhishek Kashyap (Writer)
Thakur Prasad (Managing Editor, Samprati Path)
Rajiv Ranjan Jha (Writer)
Srikant Dube (Journalist)
Rishikant (Journalist)
Pankaj Narayan(Journalist)
Friday, December 21, 2007
नम्बर वन चैनल्स और दर्शक
तो क्या हम आप दिनभर टीवी देख देख कर इन चैनलों को ये चिल्लाने का मौका दे रहे हैं कि हम है नम्बर वन चैनल, जिसे देख रहा है पूरा हिंदुस्तान। हमारी टीआरपी रेटिंग है इतनी और हमारा बाजार शेयर है इतना। क्या किसी भी तरह के चैनल के लिए इतना कह देना काफी हो जाता है कि वो इस हफ्ते रहा नम्बर वन। बिना इसकी परवाह किए कि जो दिखाया जा रहा है, वो कितना मुफीद है। बात को कंटेंट मोरेलाइजेशन से आगे लाते है। हमने टीवी को कई दौर में देख लिया। एक, जब को मध्यमवर्गीय बुनियादों और समाज की दरारों को टटोल रहा था, घर घर में होने वाली चुहलबाजियों को परोस रहा था। ये दौर धार्मिक सीरियलों के उत्थान और उससे जुड़ रह नए दर्शकों की भावनाओं का था। इसमें फिल्मी गाने और पिक्चरों को परोस कर समाज को एक धारा में लाने की कोशिश थी। पिक्चरें भी समाज का सच दिखाती थी।
वक्त थोड़ा और बदला। निजी टेलिविजन में पेश किया गया ऐसा कंटेंट जो, धारा में विचलन के साथ मध्यमवर्गीय कुंठा और स्वपन लोक की उसकी दुनिया के नजदीक था। टीवी पर नकारात्मकता के ये शुरूआती दिन थे। दूरदर्शन के साथ इक्का दुक्का मनोरंजन चैनलों पर आ रहा था परिवार। एक गढ़ा परिवार, जहां दर्द से लेकर जुड़ाव अभिनय की पेशकश थे। फिर भी इससे दर्शक को सुख मिलता रहा। फिल्मों और गानों को तमाशे के साथ पेश करना शुरू हो गया था। पहले तबस्सुम और गंभीर आवाजें समाज के इस सश्क्त दर्पण को दिखा रही थी। गानों के बीच कामेडी ने वो जगह बनाई जो, पहले अपनी अलग मुकाम रखती थी। हंसी और हंसाने का अंतर घट रहा था।
एक दौर ऐसा भी था, जब समाचार का समय हुआ करता था, अनुशासन और गंभीरता के साथ। फिर चौबीस घण्टा के समाचार की आदत लगाने के लिए खोजी और बनाई गई खबरें। एक खबर की उम्र भी तय होने लगी। फालो अप की परंपरा दम तोड़ती रही। चौबीस घण्टे के चैनल की भाषा और पेशकश में एक रवानी बनाए रखना जरूरी था। रखी गई रवानी। शुरू के दो हिंदी के समाचार चैनलों ने अपने दर्शक वर्ग को गढ़ा और पोषित भी किया। लेकिन शाम को गंभीर खबरों की जगह बनी रही।
मनोरंजन में कामेडी, बनते बिगड़ते रिश्तों और डर की जगह, अब एक माहौल लेता जा रहा था। शाम को हर मनोरंजन चैनल का चेहरा एक सा लगने लगा। पुता लिपा और बेहद रंगीन। इसमें षड़यंत्र, खेल और रिश्तों की घालमेल पेश की जाने लगी। एक घर में एक ही नारी, एक सावित्री, एक कैकेयी। बढ़िया रहा। महिलाओं को अपनी सास, ननदों को देखने का नजरिया बदलने लगा। घरों में बच्चों के लिए कम, सीरियल के लिए ज्यादा वक्त मिलने लगा। दौर अभी तक जारी है। शाम को एक घर में अगर दो टेलिविजन है तो, एक पर महिला जारी है।
बच्चों के लिए टीवी खराब है। ये बात मां बाप, सर्वे, बौद्धिक सभी मान रहे थे। शाम को कार्टून देखने की एक घण्टे की आजादी उन्हे काफी नहीं लगती थी। पार्क और मैदान तो शहर में सिमट गए है। सो खेले कहां। सब खेल बच्चों के दिमाग में ही सिमटने लगा। दो साल से लेकर बारह साल का बच्चा एक ही कार्टून किरदार को देखकर खुश होने लगा। दिमाग एक सा होने लगा। बौद्धिक विकास से लेकर बर्थडे पार्टी में बच्चे गांधी या नेहरू को न जानकर कार्टून किरदारों की बांचने लगे। मां बाप टीवी देखने में व्यस्त रहे। बच्चों के चौबीस घण्टे के कार्टून चैनल पनपने लगे। बच्चे घर में गायब हो गए। मां बाप के बीच रहकर एक एनिमेटेड दुनिया में।
आज। घरों में संबंध है। पैसे है। गाड़ी है। लेकिन खाली दिन को क्या किया जाए। पता नहीं। टीवी पर एक सा देखने के आदी लोग मजबूर है। देखते है। रात होती है। सोते है। सुबह एक अखबार की सुर्खियां देखने से थोड़ा सुकून लगता है। लेकिन टीवी देखना आदत है। देखते है। समाचार चैनलों पर सब कुछ है, लेकिन रस नहीं मिलता। वहां नाच गाना भी है, अमेजिंग विजुअल्स भी है। लेकिन ये देखना किसी को बांधता है, तो किसी को तोड़ता। चैनल हर हफ्ते दावा करते है, कि उन्हे ही देखा जा रहा है। वे खुश है। लेकिन देखने वाले से किसी ने नहीं पूछा है कि वो क्या देखना चाहता है।
दरअसल दर्शक भी सेवा की कीमत चुकाने के बाद ज्यादा नहीं सोचता। जो दिखता है, देखता है। उसे अब कर्तव्य और अधिकार की लड़ाई लड़ने का मन नहीं करता। दुनिया के उससे जुड़े तनाव, उसे भारी लगते है। जो दिख रहा है, वहीं सत्य लगता है।
टीवी के अंदर और बाहर एक सा नजर आता है। बनाने वाले एक सा बनाते जा रहा है। देखने वाला एक सा देख रहा है। ट्रेंड सेटर कहते है वे नया पेश कर रहे है। लेकिन हर नए को पुराना बनने में केवल कुछ महीने लगते है। फिल्मों में जो दिखाया जा रहा है, उसे पहले ही टीवी इतना दिखा देता है कि उसे देखना बासी रोटी खाना होता है, घी के साथ।
तो क्या ऐसा ही चलेगा। जाहिर है अगर आप अधिकार नहीं चाहते तो जी हां। और अगर घर में परिवार है, दिमाग में विचार है और है आपको एक बदलते समाज का इल्म तो दो लाइन किसी को लिखकर ये जताना कि आप गलत कर रहे है, काफी होता है। वैसे गलत और सही का फासला मिट रहा है। जो दिख रहा है वहीं सही मानकर बिक रहा है।
सूचक
soochak@gmail.com
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वक्त थोड़ा और बदला। निजी टेलिविजन में पेश किया गया ऐसा कंटेंट जो, धारा में विचलन के साथ मध्यमवर्गीय कुंठा और स्वपन लोक की उसकी दुनिया के नजदीक था। टीवी पर नकारात्मकता के ये शुरूआती दिन थे। दूरदर्शन के साथ इक्का दुक्का मनोरंजन चैनलों पर आ रहा था परिवार। एक गढ़ा परिवार, जहां दर्द से लेकर जुड़ाव अभिनय की पेशकश थे। फिर भी इससे दर्शक को सुख मिलता रहा। फिल्मों और गानों को तमाशे के साथ पेश करना शुरू हो गया था। पहले तबस्सुम और गंभीर आवाजें समाज के इस सश्क्त दर्पण को दिखा रही थी। गानों के बीच कामेडी ने वो जगह बनाई जो, पहले अपनी अलग मुकाम रखती थी। हंसी और हंसाने का अंतर घट रहा था।
एक दौर ऐसा भी था, जब समाचार का समय हुआ करता था, अनुशासन और गंभीरता के साथ। फिर चौबीस घण्टा के समाचार की आदत लगाने के लिए खोजी और बनाई गई खबरें। एक खबर की उम्र भी तय होने लगी। फालो अप की परंपरा दम तोड़ती रही। चौबीस घण्टे के चैनल की भाषा और पेशकश में एक रवानी बनाए रखना जरूरी था। रखी गई रवानी। शुरू के दो हिंदी के समाचार चैनलों ने अपने दर्शक वर्ग को गढ़ा और पोषित भी किया। लेकिन शाम को गंभीर खबरों की जगह बनी रही।
मनोरंजन में कामेडी, बनते बिगड़ते रिश्तों और डर की जगह, अब एक माहौल लेता जा रहा था। शाम को हर मनोरंजन चैनल का चेहरा एक सा लगने लगा। पुता लिपा और बेहद रंगीन। इसमें षड़यंत्र, खेल और रिश्तों की घालमेल पेश की जाने लगी। एक घर में एक ही नारी, एक सावित्री, एक कैकेयी। बढ़िया रहा। महिलाओं को अपनी सास, ननदों को देखने का नजरिया बदलने लगा। घरों में बच्चों के लिए कम, सीरियल के लिए ज्यादा वक्त मिलने लगा। दौर अभी तक जारी है। शाम को एक घर में अगर दो टेलिविजन है तो, एक पर महिला जारी है।
बच्चों के लिए टीवी खराब है। ये बात मां बाप, सर्वे, बौद्धिक सभी मान रहे थे। शाम को कार्टून देखने की एक घण्टे की आजादी उन्हे काफी नहीं लगती थी। पार्क और मैदान तो शहर में सिमट गए है। सो खेले कहां। सब खेल बच्चों के दिमाग में ही सिमटने लगा। दो साल से लेकर बारह साल का बच्चा एक ही कार्टून किरदार को देखकर खुश होने लगा। दिमाग एक सा होने लगा। बौद्धिक विकास से लेकर बर्थडे पार्टी में बच्चे गांधी या नेहरू को न जानकर कार्टून किरदारों की बांचने लगे। मां बाप टीवी देखने में व्यस्त रहे। बच्चों के चौबीस घण्टे के कार्टून चैनल पनपने लगे। बच्चे घर में गायब हो गए। मां बाप के बीच रहकर एक एनिमेटेड दुनिया में।
आज। घरों में संबंध है। पैसे है। गाड़ी है। लेकिन खाली दिन को क्या किया जाए। पता नहीं। टीवी पर एक सा देखने के आदी लोग मजबूर है। देखते है। रात होती है। सोते है। सुबह एक अखबार की सुर्खियां देखने से थोड़ा सुकून लगता है। लेकिन टीवी देखना आदत है। देखते है। समाचार चैनलों पर सब कुछ है, लेकिन रस नहीं मिलता। वहां नाच गाना भी है, अमेजिंग विजुअल्स भी है। लेकिन ये देखना किसी को बांधता है, तो किसी को तोड़ता। चैनल हर हफ्ते दावा करते है, कि उन्हे ही देखा जा रहा है। वे खुश है। लेकिन देखने वाले से किसी ने नहीं पूछा है कि वो क्या देखना चाहता है।
दरअसल दर्शक भी सेवा की कीमत चुकाने के बाद ज्यादा नहीं सोचता। जो दिखता है, देखता है। उसे अब कर्तव्य और अधिकार की लड़ाई लड़ने का मन नहीं करता। दुनिया के उससे जुड़े तनाव, उसे भारी लगते है। जो दिख रहा है, वहीं सत्य लगता है।
टीवी के अंदर और बाहर एक सा नजर आता है। बनाने वाले एक सा बनाते जा रहा है। देखने वाला एक सा देख रहा है। ट्रेंड सेटर कहते है वे नया पेश कर रहे है। लेकिन हर नए को पुराना बनने में केवल कुछ महीने लगते है। फिल्मों में जो दिखाया जा रहा है, उसे पहले ही टीवी इतना दिखा देता है कि उसे देखना बासी रोटी खाना होता है, घी के साथ।
तो क्या ऐसा ही चलेगा। जाहिर है अगर आप अधिकार नहीं चाहते तो जी हां। और अगर घर में परिवार है, दिमाग में विचार है और है आपको एक बदलते समाज का इल्म तो दो लाइन किसी को लिखकर ये जताना कि आप गलत कर रहे है, काफी होता है। वैसे गलत और सही का फासला मिट रहा है। जो दिख रहा है वहीं सही मानकर बिक रहा है।
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Monday, December 03, 2007
मनोरंजन जगत में रूका तूफान
कहीं दीप जले कहीं दिल। ये बात आज आपके सामने मौजूद सात हिंदी मनोरंजन चैनलों से समझी जा सकती है। सात कौन-कौन। स्टार प्लस, ज़ीटीवी, सोनी, सब, स्टार वन, सहारा वन और डीडी वन। कुछ ज्यादा ही ‘वन’ हो चले है। ये बात दीगर है कि जिसके नाम के साथ ‘वन’ जुड़ा है, वो अभी तक नम्बर ‘वन’ के पायदान से कोसों दूर है। पिछले कई सालों से कुछ चैनलों की बादशाहत से अब जाकर दर्शकों को कुछ निजात मिली है। क्या इसे नयापन भी कहा जा सकता है। शायद। बीते दिनों एक नए चैनल के एयर होने और अगले महीने एक के आने की खबर से बाजार में हलचल बढ़ी है। दरअसल स्टार प्लस की कई सालों की बादशाहत को चुनौती देने वाले भी इसी समूह से निकले दो लोग है। यानि नब्ज और समझ दोनों के स्तर से वाकिफ। 9 एक्स चैनल ने पहले दस्तक दी। 12 नवम्बर को ये चैनल नौ बजे से आने लगा। तीन बड़े कार्यक्रमों की फेहरिस्त के साथ। तीनों की कहानियों में किरदार मध्यम और उच्च वर्ग की आकांक्षाओं के चेहरे थे। यानि फार्मूला पुराना था। वैसे भी दर्शकों को जिस फंतासीपन की आदत लग गई हो, उसे ही परोसना सधा सौदा होगा। जिया जले, कहें न कहें, मेरे अपने जैसे सोप ओपेरा देखने की आदत अब हमारे संपन्न घरों को लग चुकी है। हां, चैनल का दावा बेहतर प्रोडक्शन वैल्यू देने का है। यानि ज्यादा लाइटिंग, ज्यादा कास्ट्यूम और ज्यादा मेकअप। गांव में रहकर शहर के सपने, शहर में रहकर संबंधों का षड़यंत्र और प्रेम की कई नायाब डेफेनिशन गढ़ना। हो सकता है प्रतिभाओं की तलाशनो की उनकी मुहिम ‘मिशन उस्ताद’ से दो चार लोग कुछ दिनों के लिए हर जुबान पर चढ़ जाए, लेकिन अंत सबको पता है। जीवन की सचाईयों के आगे सब फसाने कुछ पल के लिए ठहरते है। लेकिन सीरियल दर सीरियल एक अलग दुनिया गढ़ने की कारीगरी में लगे है।
टीवी मनोरंजन में डीडी के स्वाभिमान, जूनुन से जो प्रयोग किए गए वो आज क्योंकि सास भी...कहानी घर घर की.. से आगे आते हुए मेरी पचासवीं शादी में आइएगा जरूर तक जैसे कार्यक्रम प्रोमो तक आ चुकी है। खैर इस दौरान जिस फार्मेट ने टीवी मनोरंजन को सबसे ज्यादा फायदा पहुंचाया है, वो रहा रिएल्टी शोज का। यानि मधुर आवाज की खोज वाले कार्यक्रम। इनकी कड़ी लंबी है। सारेगामापा से लेकर स्चार वायस आफ इंडिया तक। इससे ही जुड़ा है सेलिब्रिटी को गाने और नचाने के प्रोग्राम। इसे हिट फार्मूला मानते हुए आज भी आने वाले चैनल इसे आजमा रहे है। तो देखते रहिए 9x का धमाल एक्सप्रेस और इंतजार करिए मिशन उस्ताद का।
जिस आने वाले चैनल का बाजार को इंतजार है, वो एनडीटीवी समूह का शुद्ध मनोरंजन चैनल होगा। एनडीटीवी इमेजिन। यानि कल्पना। कल्पना करिए कि क्या क्या परोसा जाएगा इस चैनल पर। दोस्ती, दरार, कामेडी, इमोशन और ड्रामा। तो नया क्या होगा। हर चैनल पर तो यही दिखता है। चैनल का मानना है कि वो हर कुछ परोसेगा। लेकिन अलग अंदाज में। अलग अंदाज। चलिए मान लेते है। ये तो तभी तय होगा जब इसे पसंद या खारिज किया जाएगा।
लेकिन ये सारे संकेत क्या कहते है। क्या भारतीय टीवी का मनोरंजन अपने सीमित दायरों में फैल कर बढ़ने का इंतजार करेगा। या एक समय पर एक जैसे कंटेंट के जरिए लोगों में एक तरह की भावनाए तरंगे पैदा करेगा। या इसे अपनी रचनात्मकता के लिए हमेशा विदेशी कांसेप्ट्स को देसी रंग में बेचना भाता रहेगा। या ये शहर और गांव के बीच एक नई दुनिया बसाकर भुलावा पैदा करना जारी रखेगा। ये सवाल इस टीवी के मनोरंजन के कर्ता धर्ताओं से है। यानि से सवाल आम समझ रखने वाले दर्शकों के है। हमारे जैसे आम दर्शक।
टीवी चैनलों के प्रसार से दर्शक और उत्पाद दोनों को भारी फायदा हुआ। दोनों ने अपने अपने तरीके से इसे लिया। बाजार ने हर घर और दिमाग में सीधी पहंच बनाई, तो दर्शक को अपने खाली समय में मनोरंजर की एक ठीक ठाक खुराक मिली। ये अलग बात है कि उसके सपनों की बुनियाद को केन्द्र में रखकर ही ज्यादातक कार्यक्रमों ने टीआरपी, टीवीआर बटोरी। लेकिन इस दौरान उसे एक हकीकत से दूर ऱखा गया। टीवी मनोरंजन के फसाने में फंसने के बाद वो अपनी जिंदगी के ताने बाने से कट सा गया। बिल्कुल सिनेमाहाल में बैठे दर्शक की तरह। बाहर बरसात हो या धमाका। वो गुम है पर्दे की बनाई दुनिया में। पर्दे का सुख उसका, दुख उसका।
टीवी मनोरंजन से जो उम्मीदें है, वो अभी मरी नहीं है। वो वास्तविकता के करीब तो है, पर वास्तविक नहीं। सो आने वाले वक्त में बोरियत भरे सीक्वेंस से बेहतर वो देखना होगा, जो सच है। अमीरी और गरीबी के बीच का सच। ये किसी तरह की समाजवादी मांग नहीं है। ये वक्त के दायरे में दिखाए जाने वाले धुंधले आइने में सच दिखाने की गुजारिश है। आज भी इस देश में डिस्कवरी और एनजीसी जैसे चैनलों की व्यूवरशिप करोड़ों में है। तो क्या खुद के बनाए समाज को जानने में क्या दर्शक की रूचि नहीं होगी।
खैर। सपनों की दुनिया में आने वाले वक्त में कई दावेदार एक साथ एक ही केक में हिस्सा बांटने के लिए चिल्ल पौं मचाएंगे। और इसे देखना दर्शक की खुशी और गम दोनों होगा। जाहिर है हर चैनल अपने लिए एक नया दर्शक वर्ग खड़ा करने में कोई न कोई नया कदम उठाएगा। और तय जानिए इसके ठीक बाद दूसरा चैनल उसी वर्ग को वैसे ही कंटेंट के साथ काटेगा।
बहरहाल देखते रहिए इस मनोरंजन को। और मनोरंजन जगत में रूके इस तूफान को भी। दरअसल टीवी दुनिया को भी एक ऐसे तूफान का इंतजार है जो उसके दर्शकों की संख्या को यकायक बढ़ा दे। और सीधी बात है इस तूफान से जुड़ा है बाजार और प्रचार।
Soochak
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