Tuesday, March 13, 2007

बेचो बेचो, खेल है भईया

मजेदार है ये आंकड़ा। एक हफ्ता। सात दिन। चौंतीस सौ पैतीस(3435) मिनट। और इनमें से चौहद सौ इक्यावन(1451) मिनट दिखे क्रिकेट के कार्यक्रम। यानि बयालीस(42%) फीसदी क्रिकेट। बाकी भी रहा। पर जरा जरा। जैसे पूणे की रेव पार्टी में रेड की खबर को मिले नब्बे मिनट और हसन अली के पैसे की दास्तान को पैंसठ मिनट। ये तस्वीर है आज के भारत की। क्रिकेट के आक्रमण की। औऱ बदलते चलन की। देश में कितनी लहर क्रिकेट की है, यो भांपना मुश्किल है। मैने अपने घर में जांचा तो किसी को ये न पता था कि कितनी टीमें भाग ले रही है। तो क्या माने। कि क्रिकेट से ज्यादा क्रिकेट का प्रचार बेचा जा रहा है। कहा जाता है कि बार बार झूठ बोलते रहने से वो सच हो जाता है। शायद सच है। पर देखिए फसाना सीधे बाजार से जुड़ा है। इस बार विग्यापनों में ज्यादा पैसा लगा है। ज्यादा अवधि तक मैच में प्रचार दिखाया जाना है। और देखने वाले को ये समझाना है कि ये खिलाड़ी जो बेच रहा है, वहीं खरीदना है। आंकडों में मत जाइए। खो जाइएगा। सीधा समझिए। आईसीसी करारों को कई सौ करोड़ों में बेचती है। कंपनियां उन्हे खरीदती है। खिलाड़ी लोकप्रियता को केवल प्रदर्शन से बरकरार रखने में असफल साबित हो रहे है। और तो और खेल से जी जान से जुड़ा देश क्रिकेट में बह जाता है। खिलाड़ी बने रहने के लिए, कमाने के लिए भी, प्रचारों को अपनाते है। कंपनियां अपनी साख सही रखने और उत्पाद को भावनात्मक बाजारीकरण के जरिए बेचती है। औऱ क्रिकेट से जुड़ी संस्थाएं बाजार को समझती है। लब्बोलुआब ये कि खेल कम और भावनात्मक शोषण ज्यादा। क्रिकेट केवल गिने चुने देशों में खेला जाता है। पर एशिया के हावी होने से बड़ी कंपनियों को बड़ा बाजार दिखता है। क्रिकेट में प्रदर्शन पर ही टिकना संभव है, पर प्रचार में बने रहकर क्रिकेटर देश की नजर में बना रहता है। क्या सौरभ गांगुली जब बाहर थे, तो टीवी पर नहीं दिखते थे। तो खेल खेलना खिलाड़ी का भले ही काम हो, पर उसे बेचना बाजार का काम है। टीवी को समझने वाले जानते है कि अनुत्पादकता क्या होती है। औऱ चौबीस घण्टे चैनल चलाना कितना मुश्किल है। खबर खबर करके आप जीवित नहीं रह ससते है। तो हर चीज को सूचना मानकर दिखाना आपकी मजबूरी है। और तो और अगला आगे न बढ़े। कोई भी खबर कैसी भी हो, उसे केवल एक चैनल न चलाए। प्रचार पेश करने की रणनीति औऱ ब्रेक के समय को मैनेज करना। सब चुनौती है। क्रिकेट के खेल की तरह। तो जब खेल विक रहा है, तो टीवी के साथ क्या दिक्कत है भई।

साभार- www.cmsmedialab.wordpress.com


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1 comment:

अनुनाद सिंह said...

आपके विचार बहुत ही सटीक लगे। क्रिकेट ने इस देश को इतना विक्षिप्त कर दिया है कि हम 'सेंस आफ प्रोपोर्शन' भी खो चुके हैं। इस खेल के कारण देश को कितना और कितने क्षेत्रों में हानि हो रही है, समझना कठिन नहीं है। बस हमें तर्कपूर्ण ढ़ंग
से सोचना पड़ेगा।