Sunday, September 09, 2007

एक खबर, एक पत्रकार, और टूटता विश्वास

एक स्टिंग। एक निशाना। एक शिकार। एक पत्रकार। और टीवी चैनलों को एक नसीहत। कि संभले। ये लोकतंत्र है। वे चौथे स्तंभ है। लेकिन उनकी चाहतों में किसी इंसान की जिंदगी पिस जाए तो सवाल बड़ा हो जाता है। जिस पत्रकार ने एक महिला की जिंदगी पर दाग लगाए वो कल थाने में फूट फूट कर रो रहा था। कह रहा था कि रिपोर्टर के रूप में स्थापित होना चाहता था। इसलिए हर बेइमानी को अपना लिया था। गलती उसकी जितनी है, उससे ज्यादा उस माहौल की है, जिसने उसे ये समझाया था कि पत्रकारिता इंसानी अधिकारों के ऊपर है।

स्टिंग पर लोकतंत्र के सारे स्तंभ सवाल खड़े करते रहे है। ये निजता पर हमला है। ये दवाब का हथियार है। ये टीआरपी की चाहत का नतीजा है। हर दिन चैनलों को स्टिंग के घटिया से बढ़िया फुटेज मिलती रहती है। वे कभी कभी बिना नापे तौले इन पर खेलते है। और कर देते है किसी एक जिंदगी को ताउम्र के लिए दागदार।

एक लालच ने उमा खुराना को अरोड़ा की बात मानने पर मजबूर किया। और एक लालच ने एक चैनल और एक नए पत्रकार से वो करवाया, जो केवल नाजायज ही नहीं, समाज के लिए खतरा भी है। एक बड़े चैनल पर चले एक स्टिंग के बाद एक छोटा अधिकारी संवाददाता को फोन करके कहता है। नौकरी से तो केवल सस्पेंड हुआ हूं। लेकिन धन्यवाद। अब सब जानते है कि मैं दलाल हूं। काम मेरे जरिए करवाए जा सकते है। मेरी कमाई बढ़ गई है। ये सच है।

बदनाम होने को भी नाम कमाना माना जा रहा है। समाज की सोच बदल चुकी है। विश्वास और खबर के नाते टूट चुके है। अब खबर के बाद क्या होगा ये खबर करने वाले को पता नहीं है। वो केवल या तो खानापूर्ति में खबरें करता है या उसे होना है नाम वाला। बदनामी की कीमत पर भी।

बीते दिनों सूचना एवं प्रसार मंत्रालय ने आंकड़ो के खेल को समझाने वाली कंपनी को चेताया है। चैनलों पर लगाम कसने की उसकी हसरत को चैनल अपने कर्म से बढ़ावा दे रहे है। वे भाग रहे है एक तमाशे के पीछे। और एक दिन इस तमाशे में मदारी के हाथ बंदरों की तरह नांचेंगे ये चैनल।

खबरों में मसाला दिखाकर वे जनता के साथ हंसने और टांट का रिश्ता बना चुके है। सूचना और मनोरंजन की देहरी पर वे नग्नना औरक अपराध दिखा रहे है। समाज को खुली आंखों से खून और देह बना रहे है।

स्टिंग की मर्यादा को भुला चुके चैनल अब असमंजस में है। एक ने दूसरे की गलती को भुनाना भी चालू कर दिया है। हर कोई नैतिकता के लिए काम कर रहा है। मानो सबने रामायण और महाभारत से कुछ सीख लिया है। चैनलों पर श्लोक तो नहीं कूटनीति साफ दिख रही है।

ये वो आगाज है, जो अंत के नजदीक जाती दिखती है। एक खबर को दूसरा काटे को समाज खबर पर विश्वास कैसे पैदा करेगा। और अगर विश्वास का संकट पैदा होगा तो समाज कहां देखेगा।

समाचार चैनलों को सोचना है। उन्हे देखना है। कि दिखाना क्या है। दबाव किस पर बनाना है। लाभ किसे पहुंचाना है। उसे पत्रकार बनाना है। खबर चलाना है। और ऐसा केवल विश्वास और समझ से हो सकता है। उम्मीद है कि कहीं तो कोई पत्रकारिता के लिए काम कर रहा होगा।

सूचक

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