एक दिन में क्या क्या बदल सकता है। ये सवाल आप तीन वजहों से पूछिए। पहला, एक निजी समाचार चैनल को एक महीने की बंदी का फरमान जारी हुआ। दूसरा, एक लड़की ने अपने आप को काम के बोझ, या किसी तनाव में खत्म कर डाला, लड़की टीवी पत्रकार थी। एक दिन में होने वाली इन दो घटनाओं के रिश्ते टीवी पत्रकारिता से इतने गहरे है कि इस दाग को अपने दामन से वो हटा नहीं पाएगा।
टीवी के लिए ये एक ठहराव है। जहां से अब जब वो आगे बढ़ेगा, तो उसे सोचना, समझना और फूंक फूंक कर कदम बढ़ाना होगा। ये झटके उसकी निजी और सामाजिक गलतियों से पनपे है। एक दिन एक खबर में अपनी सफलता के परचम को देखते हुए किन्ही मासूमों को फ्रेम करने वाले एक पत्रकार को एक दिन की सफलता ने ले डूबा, तो टीवी के मायाजाल में उलझी एक लड़की को जिंदगी में मनचाहा न मिलने पर जिंदगी के नाता तोड़ लेना ही रास्ता दिखा।
एक खबर से लोकतंत्र में मिले अधिकार को हाशिए पर लाया जा सकता है। इसकी मिसाल बनी टीवी की एक खबर ने टीवी पत्रकारिता के चरम को हिला कर रख दिया है। लेकिन इसके पीछे एक सच, जो अब एक मौत के बाद चुभने वाला बन चुका है। एक पत्रकार को क्या मार डालता है। उसका काम। उसका नाम या उसके प्रति जिम्मेदारों का असंवेदनशील चेहरा।
कई पहलू उभरे एक महिला पत्रकार की मौत से। छोटे बड़े शहरों, हर तरह के सामाजिक वर्गो, हर तरह की पारिवारिक ढांचों से आने वाले युवक-युवती। सबमें टीवी को लेकर चाहत है, दिखने की चाहत। टीवी की मांग के अनुरूप, इन सुंदर चेहरों को इस्तेमाल भी किया जाता है। उन्हे तव्वजो मिलती है। लेकिन इसी से बढ़ जाती है उनकी अपेक्षाएं। टीवी पत्रकारिता में बहुमुखी होने के अपने लाभ है। लेकिन इनके साथ आब्जेक्टिव होना चुनौती है।
एक पत्रकार की मौत और चैनल को लगे कोमा के बीच जो सबसे कमजोर कड़ी है वो है एक लड़की। स्टिंग में भी एक लड़की को गलत दिलासे के जरिए इस्तेमाल किया गया। और मौत के पीछे भी लड़की की लिखा वजह, उसको दी जा रही प्रताड़ना रही। ऐसे में सवाल है कि गलती किसकी ओर से हो रही है। कौन ज्यादा अपेक्षा कर रहा है। काम करवाने वाला या काम करने वाली।
टीवी को जो भी दिखना है, वो उसकी बुनियादी सोच से ही बनता है। अगर टीवी चैनल एक नारी को किसी भी तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं तो निश्चित ही मीडिया में भी काम कर रही महिलाओं की स्थिति उम्दा नहीं होगी। फिल्मी पर्दे पर नंगई और कास्टिंग काउच के रिश्ते को समाज समझता है। टीवी में उसके स्वरूप को वो अब धीरे धीरे करके देख रहा है।
क्या समाज को ऐसी घटनाओं, बंदी और मौत, से कोई फर्क पड़ता है। क्या इससे इस पेशे की गरिमा पर कोई आंच आने वाली है। क्या मर रही टीवी पत्रकारिता को आने वाले समय में नई सांस और फांस के लिए तैयार रहना चाहिए। सवाल कई है लेकिन जवाब देने के लिए कोई आगे नहीं आता दिखता।
खुद की गरिमा से खेलकर टीवी पत्रकारिता ने एक तरह से खुद के खोखलेपन को दर्शाया है। आदर्शी बुनियादी उसूलों से परे होकर वो एक ऐसा कल्पना लोक गढ़ चुका है जहां सोच की सीमितता ही सत्य है।
हमें इसे लेकर गंभीर चिंतन करना चाहिए। क्योंकि खबरों से आप ही नहीं आपका परिवार भी प्रभावित होता है। और ये परिवार एक समाज का हिस्सा है।
सूचक
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2 comments:
soochak ji, nishchil roop se aapka lekh aaj ke tv patrkarti kee tasveer ko dekhata hi, yadi tv patrakarti ko jinda rahna hi, tou tv patrkarti se jure logo ko gambheerta se bheetar kee burai ko dekhna hoga, our bahar niklana hoga
aapko lekh ke liye badahi
sanjay tuteja
यह तो सही है कि टीवी पत्रकारिता भटक गई है. लेकिन इसके लिए दर्शक भी कुछ कम जिम्मेदार नहीं है. इसके पहले कि हम टीवी और पत्रकारों को इसके लिए कोसें हमें खुद को सुधारना होगा. अगर हम तय कर लें कि ऊल-जलूल कार्यक्रम हमें नहीं देखने हैं तो कितने दिन चलेगी यह बेहूदगी?
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