नरकंकालों को देखना। उसे बिनना। अपनों को खोजना। मिली चीजों में तलाशना। बिलखते मां बाप। सुलगते लोग। निठारी गांव। नोएडा के एक मकान में रहता नौकर। नौकर का मालिक। और कई अनसुलझे राज़। हैरानी है। टीवी आज इस खबर को भुना रहा है। दर्द दिखा रहा है। सवाल उठा रहा है। पर एक दिन में न होने वाली इस दृशंस घटना को टीवी अब देख रहा है। हर दिन बच्चे गायब हो रहे थे। पुलिस कहती रही कि क्यों पैदा करते हो बच्चे। चलो अच्छा हुआ, कम हो एक दो। ये बात आज उठाई जा रही है। आज समझाई जा रही है कि कैसी हैवानियत। कैसा राक्षसपन। मानव दानव हो चला है। इंसान होने से क्या फायदा। पर कहां थी ये सारी बातें जब एक एक करके बच्चे गायब हो रहे थे। यकायक सरकार, नेता, अधिकारी, पुलिस, लोग सब जाग गए है। जैसै अब जान वापस ले आएंगे। दर्द कम कर देंगे। टीवी की भूमिका क्या हो। कैसी हो। तय नहीं है। दिन भर खबर धुनने से क्या न्याय मिलेगा। मिलेगी। तो केवल हड्डियां। इक्कीस महीनों में अड़तीस बच्चे गायब हुए। एक एक बच्चा एक एक परिवार का।हर परिवार कराहा होगा। पर आज गुनहगार पकड़ा गया। अब जांच करा लो। सीबीआई को दे दो। पर इस नृशंसता का जवाबदेह कौन। समाज गिर रहा है। अपनी भूख। अपनी नीचता। दूसरों की जिंदगी ले रही है। और इसका नतीजा टीवी पर दिख रहा है। कैमरें दौड़ रहे है। संवाददाता चीख रहे है। हाय हाय दिखा रहे है। लोगों का गुस्सा दिख रहा है। आरोपी के फुटेज रिपीट किए जा रहे है। पर सवाल फिर भी बना हुआ है कि पहले ही बच्चों की सुध ली जाती तो कम से कम कुछ जिंदगियां खेल रही होती। और बिलखते मां बाप टीवी पर नहीं होते। न्याय के लिए दर दर न भटकते। टीवी ने अपनी ताकत भांपी है। पर वक्त पर मौजूद रहने के बाद।
सूचक
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