गुरू देखी। एक ऐसा दौर जब टीवी ने निराश किया है। सिनेमा बहलाने से लेकर बन जाने तक तक दास्तान सुना रहा है। चार मानक थे। जो ये बताते है कि फिल्म अच्छी है या बुरी। प्रासंगिकता...मतलब आज के हाल को दिखाती। कहानी और किस्सागोई...मतलब कैसी बुनी फिल्म और क्या है आधार, साथ में कैसे एक कदम को मंजिल देने का किस्सागो। कलाकार और किरदार..कौन है वे जो जाने जाते है, नामी अदाकर, नामी किरदार औऱ इनके बीच पनपता फिल्म का रहस्यमयी बंधन। ये बंधन सिनेमाहाल में ही महसूस किया जा सकता है। बड़ा पर्दा ही बड़े सुख और हकीकत को बयान करने में समर्थ रह गया है। और अंत में संगीत औऱ निर्देशन...गीत एक ऐसा पहलू है जो फिल्म क्रिटिक्स भी सुनता बाचता है, बहाव को देखता है, जगह जगह कान लगाता है औऱ न चाहते हुए भी कहता है गाने तो हिट बन पड़े है। रही बात निर्देशन की तो वो या तो ब्रांड है या प्रयोग। कुछ बेहतर बनाते है तो बनाते है। कुछ बनाना चाहते है तो बनाते है। औऱ कुछ सीख रहे है, गिर रहे है। संभल रहे है। पर फिल्म का पसंद किया जाना रहस्य जैसा नहीं है। थीम, किरदार, प्रांसगिकता और कसी बनावट हो तो फिल्म चर्चा पा जाती है। बाकी तो प्रमोशन का जमाना है। टी-शर्ट बाटों या कोक पिलवाओ। चलिए गुरू की बात। गुरू एक ऐसी फिल्म जो चर्चा में कई कारणों से है। पहला मणिरत्नम की फिल्म। दूसरा धीरूभाई अँबानी की कहानी। तीसरा ऐश-अभिषेक की जोड़ी। चौथा मधुर संगीत औऱ गीत। पांचवा आम आदमी की चाहत और सपने को सच में बदलने की सीख। और छठा रहस्य ये है कि वो फिल्म ही क्या जो आपमें देखने की बेचैनी न पैदा कर दें। दो शब्दों में कहूं तो गुरू, गुरूघंटाल, है। ये फिल्म हर पहलू पर सवाल खड़े करती है। लाइसेंस राज से पीड़ित नायक, गुरूकांत देसाई, महात्मा गांधी की दुहाई देता है। एक दिन में कानून बनता है तो एक दिन में तोड़ने की बात कहता है। हर इंसानी तरकीब के इस्तेमाल की वकालत करता है। दूसरी और फिल्म में फिल्मकार आदर्श की बुनियाद रखता है। मूल्यों को खड़ा करता है। प्रगति और अनियंत्रित विकास पर सवाल करता है। बढ़ने वाले के साथ भावनाएं तो रखता है, पर संदेह के साथ। सही है। पर जीतता कौन है। दो आरोपों और तिरसठ लाख के जुर्माने के साथ नायक गुरू जीतता है। वो अतिरेकी व्यावयासिक भावना के साथ आगे बढ़ने का जूनुनी नायक है। जो बाधाओं को हां कहता है। काटता है। तोड़ता है। मरोड़ता है। और जीतता है। आज भी वो बढ़ता है। उधर सच से घबराता है। सिमटता है। अफसोस जताता है। डरता है। धक्का खाता है। लकवाग्रस्त होता है। पर जवाब देता है। और ये ही जवाब खटकता है। गाँधी के आदर्शों की बात करता है। औऱ देश को इसी तरह आगे ले जाने की ख्वाहिश पेश करता है। हम सीखते है। कि जीतना ही जरूरी है। पास होना ही पढ़ाई है। लड़ना जरूरी है, पर व्यवस्था से नहीं। उससे जो उसे रोक रहा है। ये लड़ाई है प्रगति की। आदर्श, मूल्य, विवेक अपनी जगह। पर देश को आगे बढ़ना है। औऱ गुरू देश को बढ़ा रहा है
सूचक
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5 comments:
आज मैं बहुत व्यथित हूं, जहां देखो लोग "गुरू" की तारीफ पे तारीफ किये जा रहे हैं.
और हमारे भगवान प्रभुजी श्री मिथुन चक्रवर्ती जी का कोई नाम तक नही ले रहा है. कोई बता ही नही रहा की हमारे भगवान नें अदाकारी में कैसे डंके बजाये हैं. भाई कोई तो रिपोर्ट लिखो,
नीरज भाई, तारीफ तो हमने भी की है गुरू की और दादा की भी. ये देखो... वैसे भाई ने गुरू की सही व्याख्या की है.
बी और सी ग्रेड की फिल्मों में व्यस्त रहने के बावजुद भी क्यों लोग मिठुन चक्रवर्ती को हमेशा ए ग्रेड का मानते हैं यह गुरू में उनका प्रदर्शन देखकर सहज ही समझा जा सकता है. मुख्यधारा में इसे दादा की जोरदार वापसी का आगाज़ माना जाना चाहिये...
पूरी पढ़नी है तो आ जाओ हमारे घर भी.
आग है.आग है बढने की.सपनों को तोडने की.चलने नहीं,दौडने की.दौडकर उडने की.आसमान को चीरने की.आग है गुरु.सबकुछ जलता है इस आग में. अपने जलते हैं. सपने जलते है.पर आग है बुझती नहीं.बस इसीलिए तो सबकुछ तोडकर बढता है गुरु.लडकर भी बढता है.टूट कर भी बढता है गुरु.बढता है टूटे सपने जोडने के लिए. ग़ुरु आग है
wats goin on yaar? yahan par guru ke baare mein saari charcha ho rahi hai.Koi ye kyon nahi kahta ki abhishek bachchan ke alaava agar koi aur actor hota to film lamaal ki hoti....poora media abhishek ko promote karne mein laga hua hai...
आपका लिखा देखा। बहुत उलझी हुई भाषा है आपकी। गुरु एक अतार्किक फिल्म है। जांच कमीशन ने जो भी सवाल उठाये, एक भावुक सा भाषण देकर क्या दर्शकों का दिल जीता जा सकता है। क्या संजय दत्त की भावुक सी चिट्ठी ने जज और दर्शकों का दिल जीता। कुल मिला कर मणिरत्नम से यही पूछना चाहिए कि कॉमरेड तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है।
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