साथियों,
काफी दिनों बाद मैं इस ब्लॉग पर कुछ लिख रहा हूं। जो लोग इस ब्लॉग के आरंभ से लेकर अब तक मुझे अंग्रेजी में लिखने की वजह से गालियां देते थे, उनके लिए मैंने काफी कोशिश की कि मेरे पास कोई ऐसी तकनीक आ सके जिससे मैं रेमिंगटन टाइपराइटर से ऑनलाइन हिंदी में लिख सकूं। मेरे अजीज़ दोस्त अविनाश ने आखिरकार मेरी मदद की और मुझे अपनी सुविधा का सॉफ्टवेयर मिल ही गया। आप भी यदि रेमिंगटन टाइपराइटर के मेरी तरह ग़ुलाम हों तो मैं आपकी सेवा में हाज़िर हूं।
ख़ैर, हमारे इस ब्लॉग को आठ महीने इस साल की छह तारीख़ को ग़ुज़र गए और हम नौवें महीने में चल रहे हैं। जैसा कि हमने अपने पहले पोस्ट में साफ़ किया था, हम टीआरपी के व्यापार का सामना और ख़ुलासा करते हुए एसआरपी यानी सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी प्वाइंट (सामाजिक दायित्व सूचकांक) की बात करेंगे और ख़बरों के सामाजिक दायित्व की अवधारणा को प्राथमिकता देंगे। इसके अलावा हमने यह भी तय किया था जो ख़बरें मुख्यधारा के मीडिया से छूट गई हों, हम उन्हें पेश करते हुए मुख्यधारा के मीडिया की सकारात्मक आलोचना प्रस्तुत करेंगे। जितनी हमारी सामान्य समझदारी रही और जितने संसाधन रहे, उनके मुताबिक अपनी समयबद्धता के साथ हमने यह काम करने की कोशिश की है, लेकिन अब भी कई अफ़सोस ऐसे हैं जो समय के साथ तीखे होते जा रहे हैं, बल्कि सीने का दर्द नौवें महीने का प्रसव कष्ट बन चला है।
ऐसा क्यों है- इस पर बात करने से पहले हमें एक बार बीते वक्त पर नज़र डालने की ज़रूरत है। न सिर्फ मीडिया की कारगुज़ारियों के संदर्भ में, बल्कि अपनी भूमिका और कार्रवाइयों के संदर्भ में भी। पिछले दिनों, जैसा कि आप भी जानते हैं, मीडिया ने कई ऐसी घटनाओं के संदर्भ में विवादास्पद भूमिका निभाई जो हमारे समाज की दशा-दिशा तय करने वाली रहीं। कई घटनाओं को खारिज कर दिया गया, लेना ही मुनासिब नहीं समझा तो कई का उत्सव मनाया। मसलन, आप पाएंगे कि पिछले दिनों हमारे यहां विकास के मौजूदा मुहावरे पर सत्ता विमर्श जिस तरीके से चला, और राजनीति से लेकर मीडिया में जैसे इसे बरता गया, वह अभूतपूर्व है। चाहे वह दिल्ली की झुग्गियों का सफ़ाया हो या मध्यवर्गीय आशियानों की सीलिंग, आदिवासियों की ज़मीनों का खनन के लिए कब्जाया जाना हो या सिंगुर, बझेडा खुर्द और नंदीग्राम में किसानों पर ज़ुल्म और विशेष आर्थिक क्षेत्र का सवाल, किसानों की आत्महत्या हो या खैरलांजी में दलितों की हत्या- ये सभी कुछ विकास के नाम पर किया गया। ऐसा विकास जिसकी कीमत इस देश की उत्पादक जनता को विस्थापन से चुकानी होती है। यह दरअसल पूरे देश का ही विस्थापन है, लेकिन मीडिया में देखिए, इन मुद्दों के प्रति संवेदनहीनता का आलम यह है कि एक आम दर्शक टीवी का यही सोचेगा कि ये कुछ ऐसी छिटपुट घटनाएं हैं जिनका मौजूदा सत्ता-समाज से कोई अंतरंग लेना-देना नहीं। हमारा नौवें महीने का दर्द यहीं से शुरू होता है।
यूं तो हम साथियों ने यह मान कर चीज़ें शुरू की थीं कि समूचे जनसंचार परिदृश्य पर ही बातें रखी जाएंगी, लेकिन हुआ यह है कि अख़बार और रेडियो जैसे जिन माध्यमों में विस्थापन का यह दर्द अभिव्यक्त हुआ भी है, उन्हें हमने जाने-अनजाने या तो कम लिया है या भूल गए हैं। सिर्फ टीवी चैनलों से बात बनती नहीं, क्योंकि आज की तारीख़ में टीवी माध्यम अब भी हमारे जैसे तकनीक भीरू देश में अपरिपक्व ही है। एक विशाल तादाद उन पत्रिकाओं और सम-सामयिक पत्रों की है जो विकास के सरकारी मुहावरे को चुनौती दे रहे हैं, अपने ही दायरे में सही। इसके अलावा जनांदोलन अपने आप में महत्वपूर्ण हो गए हैं, जो किसी भी मीडिया से ज्यादा विश्वसनीय ख़बरें मुहैया कराते हैं, भले ही एक पत्रकार उन्हें एकपक्षीय कहे। मुझे ऐसा लगता है कि अब हमें खुले तौर पर इस मिथक को नष्ट कर देना होगा कि वस्तुपरकता एक वास्तविकता है। एक पत्रकार होने के नाते मैं यह बात इसलिए कर रहा हूं क्योंकि हम, आप और सभी किसी न किसी वास्तविकता के पक्ष में अथवा वास्तविकता के किसी एक पहलू की ओर ज़रूर होते हैं। फिर अपने पेशे में ऐसा स्वीकार करने का साहस क्यों नहीं। माना कि व्यावसायिक दबाव हैं, तो ब्लॉग जैसे माध्यम इसीलिए बने हैं।
एक बार सोच कर देखें, कि ज्वलंत समस्याओं पर क्या हमारे पेट में दर्द उठता है। यदि हां, तो क्या हम अपने-अपने खोलों में कुछ हलचल पैदा कर पा रहे हैं। यदि हम नंदीग्राम के मसले पर स्टोरी लिखते हैं या पैकेज काटते हैं, तो क्या इतना जनझुकाव रखते हैं कि सीपीएम के दफ्तर के सामने जाकर जनता के बीच एक नया नारा उछाल सकें। यदि नहीं, तो क्या वह वक्त अभी नहीं आया है। ब्रेख्त ने कहा था, 'आज और अभी/दुनिया को तुम्हारी ज़रूरत है।' क्या सिर्फ एक लेखक-पत्रकार के रूप में ही, क्या कोई और समानांतर भूमिका नहीं बन सकती। क्या हस्तक्षेप नौकरी से बाहर संभव नहीं।
ये कुछ सवाल हैं जो हम आपकी जनपक्षधरता के नाते उठा रहे हैं। हम चाहते हैं कि एक ऐसा माध्यम हो जहां खुल कर बातें हों, सवाल-जवाब हों और हम पक्ष लें। इसीलिए नौवें महीने का यह दर्द आगामी दिनों में एक वेबसाइट की शक्ल लेने जा रहा है। हम सिर्फ ब्लॉग तक सीमित नहीं रहना चाहते, वेबसाइट इस दिशा में हमारा पहला ठोस कदम होगा जो आप सभी के सहयोग से संभव हो सकता है। एक ऐसी वेबसाइट जिस पर हम लिख सकें, आप लिख सकें और दुनिया का कोई भी व्यक्ति लिख सके- ऐसा शब्द जो आखिरी आदमी के साथ हो, जनविरोधी सत्ता और उसके मीडिया समेत तमाम अंगों के खिलाफ़ हो और एक बेहतर दुनिया की कल्पना और प्रयास में सजग हो।
इस लिहाज से हम आप सभी से उम्मीद करते हैं कि इस ब्लॉग को एक बहुत अच्छी संवादात्मक वेबसाइट में बदलने के लिए जो भी कुछ ज़रूरी और आपके अनुभवों और समझ के हिसाब से यथासंभव हो, उस पर अपनी प्रतिक्रियाएं देंगे। आपके सुझाव हमारे लिए बहुमूल्य हैं- आप अपनी दक्षता और अनुभव के आधार पर रूप से लेकर कथ्य तक कुछ भी सुझा सकते हैं। आखिर वह वेबसाइट हम सबकी होगी, उन तमाम लोगों की जिन्होंने एक बेहतर मीडिया का सपना देखा है। क्योंकि बेहतर मीडिया ही बेहतर दुनिया के लिए बेहतर समझ बना सकता है।
आपके सुझावों का तहेदिल से इंतज़ार...
आपका ही,
अभिषेक श्रीवास्तव
2 comments:
जिन मुद्दों को आप उठाते रहे उनको और सजग, सक्रिय रूप से उठाने के लिये साइट बनाने के लिये बधाई और सफलता के लिये मंगलकामनायें!
बहुत अच्छा बिचार है आपका,चुंकि मैं इस क्षेत्र में अभी नया हूँ लेकिन मेरा योगदान हमेशा रहेगा।
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