दंगा भड़का हुआ है टीवी पर। एक मरा। गोरखपुर सुलगा। मोहर्रम के ताजिए रूके। शांति है पर सुकून नहीं। क्या तमाशा है। दिनभर ये बताता रहा टीवी समाचार कि गोरखपुर खतरे की भट्टी में झुलस गया है। पर इस ओर लगे कैमरों की नजर लगातार मर रहे विदर्भ के किसानों की ओर नहीं गई। क्यों। सस्पेंस नहीं है। तनाव नहीं है। दर्शक नहीं है। या टीवी के लिए सांप्रदायिक दंगा ज्यादा आंखे खींचता है। शायद हां। पूर्वी महाराष्ट्र के जिलों में जनवरी में बासठ किसानों ने जान दे दी। आत्महत्या कर ली। जीवन की इहलीला समाप्त कर ली। वे बेबस है। लाचार है। टीवी पर लाचारी नहीं दिखाई जा सकती। वो बेबसी को भी नहीं भुना सकता। वो आंखों को लुभाने वाला मीडिया हो चला है। दंगा उसे प्रशासन, सत्ता और आम आदमी को ताकत दिखाने का मौका देता है। और वो इसे प्रचारों से भुनाता है, पर किसान मरता है। खेती मर रही है। गांव सिमट रहा है। गांव में भी कोक पेप्सी बिकती है। पर वो प्रचार से नहीं मौजूदगी से बिकती है। सो गांवों से टीवी दूर है। और उसकी समस्या को टीवी क्यो दिखाएगा। ये सवाल राज्य सरकार से भी है कि क्यों वो मौतों को मुंह पर हाथ रखकर देख रही है। प्रधानमंत्री दौरा कर चुके है। टीवी उसे दिखा चुका है। पर अब टीवी क्या करे। हर दिन तो लोग मर रहे है। कितना दिखाएं। कर तो दिया हाफ एन आवर का स्पेशल। यही ठहराव है, जहां के आगे टीवी देखना बंद कर देता है। वो अपनी ताकत भूल जाता है। संकुचित, कूपमंडूक और स्वनिर्मित दायरों में खुश। दरअसल खुश कौन नहीं है वो ये जानना नहीं चाहता। उसे लगता है लोग खुशी को देखना चाहते है। पार्टियों, शादियों और क्रिकेट की खुशी। पर क्या ये लोग देखना नहीं चाहते। क्या पता। देश की गरिमा का विषय ऐश- अभिषेक की शादी है या आर्थिक विकास की दौड़ में भाग रहे देश में किसान का मरना। देखना होगा। विदर्भ एक कड़वा सच है। पर विदर्भ ही नहीं, बुंदेलखण्ड, कालाहांडी, अनंतपुर, शोलापुर, मंडला, बेलगाम, बिलासपुर, बस्तर सभी को देखना होगा। आप नहीं देख सकते। टीवी ही एक माध्यम था, जो सच को जैसे का तैसा दिखा सकता था। पर वो कहां खो चुका है, ये तलाशना बाकी है। एक वित्तचित्र सारी हकीकत बयां कर सकता है। पर हाय रे बाजार, टीवी पर डाक्यमेंट्री देखी नहीं जाती। तो क्या सच देखना अब संभव न होगा। किसान मरता रहेगा। गरीबी बढ़ती रहेगी। औऱ असंतुलन भी। शायद हां। क्योंकि टीवी एक जनसंचार माध्यम से एक लाचार सीमित संचार माध्यम नजर आने लगा है। क्या वो सवाल खड़े करने में कमजोर हो चला है। हां, क्योंकि वो सरोकार खो रहा है। वो आधार खो रहा है। क्या इसे वापस पाया जा सकता है। हां, अगर वो खुद को सचाई के बरक्स ऱखकर सच के साथ खड़ा हो पाए,तो यकीन जानिए भारत को बदलना कुछ साल का सपना भर रहेगा। और अभी तो सपना भर है....
"सूचक"
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2 comments:
अगर टीवी पर किसानों की आत्महत्या कि खबरे दिखाई जाने लगे तो यह तो बिल्कुल ही बंद हो जाएगा…चुंकि इंसान अंदर से जानवर ही है इसकारण जलता हुआ तमाशा देखने में ज्यादा आनंद आता है…आज कल तो Reality Show का जमाना है और इससे अच्छा और क्या दृश्य मिलेगा…विडम्बना है यह्…।
बहुत सही बात की है आपने, मुझे लगता था कि मैं ही ऐसा सोचता हूँ।
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