Tuesday, January 23, 2007

क्यों है टीवी विश्लेषण की जरूरत...

हर विश्लेषण की एक जरूरत होती है। सीमा होती है। उद्देश्य होता है। टीवी का विश्लेषण क्यों। अखबार, पत्रिका या लेखों का तो नहीं होता। फिर पत्रकारिता की इस विधा की चीरफाड़ क्यों। जिस देश में टीवी ने पचपन साल से ज्यादा का समय बिताया हो, तमाम तरह के रंगों को बिखेरा हो, वो आज कहाँ खडा है। ये कौन देख रहा है। दर्शक तो नहीं। जो बहाव जानता समझता है, पर उसे स्वीकार कर लेना, उसकी मजबूरी है। पर समाजशास्त्र से राजनीति, मनोविज्ञान से भाषा और नृविज्ञान से विज्ञान का ज्ञान रखने वाले विश्लेषण को सदैव धारा में स्पीड ब्रेकर की तरह देखते आए है। थोड़ा रूकिए, सोचिए औऱ दुबारा एक्सीलिरेटर दबा दीजिए। ये वक्त देना जरूरी भी है और उपयोगी भी। तभी चलन के विश्लेषण को प्रथम धर्म माना जाता रहा है। फिल्में विश्लेषित की जाती रही है। उनमें समाज दिखने की बात स्वीकारी जाती रही है। आने वाली किताबों का विश्लेषण उनकी ताकत को बताने वाला होता है। खरीदार इससे प्रभावित होता रहा है। पर टीवी का खरीदार सिर्फ गिना चुना,पढ़ा लिखा,सोचा समझा ही नहीं है। वो गरीब भी है, अमीर भी,लिट्रेट भी है इललिट्रेट भी। और तो और एक इकाई भी है समाज का। परिवार में टीवी मांसाहारी भोज नहीं है। जिसे मन आए खाए, जिसे न आए, न खाए। बल्कि टीवी वो घड़ी है जिसमें सबको समय देखना जरूरी हो चला है। तो क्या समय बता रहा है टीवी। बदलते दौर का सच। घर का सच और सच के साथ दिखता झूठ। टीवी की मर्यादाएँ क्या है। दायरा क्या है। लेकिन टीवी वाला ये सवाल भी उठा सकता है कि कौन पूछ रहा है ये सवाल। दर्शक तो नहीं। सही है। दर्शक देख रहा है। पर हर नई खबर से हर नए चलन से, हर नई सूचना से वो सिर्फ तभी अपने आपको नहीं जोड़ता है जब वो जरूरी या लाभकारी ही हो। तभी शायद देश में मनोरंजन चैनल और तरह के चैनलों से ज्यादा देखे जाते है। परिपाटी जो भी। पेश जो भी हो। पर सामाजिक, सांस्कृतिक और धरातलीय आधारों पर ही कोई भी प्रस्तुति ग्रहण की जाती रही है। याद करिए नब्बे के दशक के पहले आपको अंग्रेजी फिल्में हिंदी में डब नहीं मिलती थी। समय बदला,सोच बदली और बदल गया ग्रहण करने का मानक। वैसै आज टीवी पर जो भी दिखाया जा रहा है वो क्या है। ये केवल इस पर निर्भर नहीं कर करता है कि समाज कैसा है। अपितु सवाल यहीं से शुरू होता है। चैनल चलाने वाला भी मानता है कि बाजार हावी है। कंटेंट पर। तभी सीरियल्स में ब्रांडेड चीजें है। फिल्मों में उत्पाद प्रदर्शन है। और समाचारों में एसएमएस का जोर है। टीवी को सच के नजदीक खड़े होने का डर है। सच को बाजार भी नहीं मानता। वो ग्राहक को मानता है, जानता है। सो बेचता है। अब बेचने के लिए प्रचार करना होता है। प्रचार में बहसना होता है। और बहसने में झूठ बोलना होता है। सो टीवी एक झूठ गढ़ रहा है। एक कल्पित झूठ। आपका मध्यमवर्गीय परिवार वैसा नहीं है जैसा टीवी पर दिखता है। आपका रंग रूप वैसा नहीं है जैसा टीवी पर दिखने वालों का है। और न ही आपके साथ घटी खबर वैसी है जैसी दिखाई जा रही है। तमाम बदलावों के साथ रोजाना आप टीवी से जुड़े है। सो चिंता है। सवाल है। और इन्ही सवालो के जवाब में किए जा रहे है विश्लेषण। ये विश्लेषण उस दूरी को दिखाने वाले हैं जो पैदा हो चली है। जाने अनजाने या सोचे समझे। ये विश्लेषण किसी को ये बताना नहीं है कि तुम गलत हो, बल्कि प्रभाव और कुप्रभाव के बीच जा रहे टीवी को जगाने की है। एक जनसंचार माध्यम के तौर पर अपनी पहचान को जानने की जिज्ञासा टीवी खोता जा रहा है। तो क्या बुरा है कि उसे समझाया जाए कि टीवी वो माध्यम है जो बदलाव ला सकता है। उसकी अपनी शक्ति है, अपना मुकाम है। वो घटनाओं का लाइव गवाह है। इतिहास का लाइव विटनेस है। वो जनमत बनाता है,वो फैसले बदलता है। वो अकेले के साथ समाज को जोड़ता है। वो आपको ताकत का अहसास कराता है और वो वर्तमान को भविष्य के करीब खड़ा करता है। और अगर उससे कोई भी ये आशा रखता है कि वो देश-काल और सही के साथ जु़ड़कर चले तो, तर्क क्यों।

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