गाँवों के देश भारत में, जहाँ लगभग 80% आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है, बहुसंख्यक आम जनता को खुशहाल और शक्तिसंपन्न बनाने में पत्रकारिता की निर्णायक भूमिका हो सकती है। लेकिन विडंबना की बात यह है कि अभी तक पत्रकारिता का मुख्य फोकस सत्ता की उठापठक वाली राजनीति और कारोबार जगत की ऐसी हलचलों की ओर रहा है, जिसका आम जनता के जीवन-स्तर में बेहतरी लाने से कोई वास्तविक सरोकार नहीं होता। पत्रकारिता अभी तक मुख्य रूप से महानगरों और सत्ता के गलियारों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। ग्रामीण क्षेत्रों की ख़बरें समाचार माध्यमों में तभी स्थान पाती हैं जब किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा या व्यापक हिंसा के कारण बहुत से लोगों की जानें चली जाती हैं। ऐसे में कुछ दिनों के लिए राष्ट्रीय कहे जाने वाले समाचार पत्रों और मीडिया जगत की मानो नींद खुलती है और उन्हें ग्रामीण जनता की सुध आती जान पड़ती है। खासकर बड़े राजनेताओं के दौरों की कवरेज के दौरान ही ग्रामीण क्षेत्रों की ख़बरों को प्रमुखता से स्थान मिल पाता है। फिर मामला पहले की तरह ठंडा पड़ जाता है और किसी को यह सुनिश्चित करने की जरूरत नहीं होती कि ग्रामीण जनता की समस्याओं को स्थायी रूप से दूर करने और उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए किए गए वायदों को कब, कैसे और कौन पूरा करेगा।
सूचना में शक्ति होती है। लंबे संघर्ष के बाद दो वर्ष पहले लागू हुए सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के जरिए नागरिकों को सूचना का अधिकार हासिल हुआ है। लेकिन बहुसंख्यक जनता इस अधिकार का व्यापक और वास्तविक लाभ अब भी नहीं उठा पा रही है, क्योंकि आम जनता अपने दैनिक जीवन के संघर्षों और रोजी-रोटी का जुगाड़ करने में ही इस क़दर उलझी रहती है कि उसे संविधान और कानून द्वारा प्रदत्त अधिकारों का लाभ उठा सकने के उपायों को अमल में लाने की चेष्टा करने का अवसर ही नहीं मिल पाता। उन्हें अब भी सूचना के लिए प्रेस और मीडिया का ही मुख्य सहारा है।
ग्रामीण क्षेत्रों में अशिक्षा, गरीबी और परिवहन व्यवस्था की बदहाली की वजह से समाचार पत्र-पत्रिकाओं का लाभ सुदूर गाँव-देहात की जनता नहीं उठा पाती। बिजली और केबल कनेक्शन के अभाव में टेलीविज़न भी ग्रामीण क्षेत्रों तक नहीं पहुँच पाता। ऐसे में रेडियो ही एक ऐसा सशक्त माध्यम बचता है जो सुगमता से सुदूर गाँवों-देहातों में रहने वाले जन-जन तक बिना किसी बाधा के पहुँचता है। रेडियो आम जनता का माध्यम है और इसकी पहुँच हर जगह है, इसलिए ग्रामीण पत्रकारिता के ध्वजवाहक की भूमिका रेडियो को ही निभानी पड़ेगी। रेडियो के माध्यम से ग्रामीण पत्रकारिता को नई बुलंदियों तक पहुँचाया जा सकता है और पत्रकारिता के क्षेत्र में नए-नए आयाम खोले जा सकते हैं। इसके लिए रेडियो को अपना मिशन महात्मा गाँधी के ग्राम स्वराज्य के स्वप्न को साकार करने को बनाना पड़ेगा और उसको ध्यान में रखते हुए अपने कार्यक्रमों के स्वरूप और सामग्री में अनुकूल परिवर्तन करने होंगे। निश्चित रूप से इस अभियान में रेडियो की भूमिका केवल एक उत्प्रेरक की ही होगी। रेडियो एवं अन्य जनसंचार माध्यम सूचना, ज्ञान और मनोरंजन के माध्यम से जनचेतना को जगाने और सक्रिय करने का ही काम कर सकते हैं। लेकिन वास्तविक सक्रियता तो ग्राम पंचायतों और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले पढ़े-लिखे नौजवानों और विद्यार्थियों को दिखानी होगी। इसके लिए रेडियो को अपने कार्यक्रमों में दोतरफा संवाद को अधिक से अधिक बढ़ाना होगा ताकि ग्रामीण इलाक़ों की जनता पत्रों और टेलीफोन के माध्यम से अपनी बात, अपनी समस्या, अपने सुझाव और अपनी शिकायतें विशेषज्ञों तथा सरकार एवं जन-प्रतिनिधियों तक पहुँचा सके। खासकर खेती-बाड़ी, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार से जुड़े बहुत-से सवाल, बहुत सारी परेशानियाँ ग्रामीण लोगों के पास होती हैं, जिनका संबंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञ रेडियो के माध्यम से आसानी से समाधान कर सकते हैं। रेडियो को “इंटरेक्टिव” बनाकर ग्रामीण पत्रकारिता के क्षेत्र में वे मुकाम हासिल किए जा सकते हैं जिसे दिल्ली और मुम्बई से संचालित होने वाले टी.वी. चैनल और राजधानियों तथा महानगरों से निकलने वाले मुख्यधारा के अख़बार और नामी समाचार पत्रिकाएँ अभी तक हासिल नहीं कर पायी हैं।
टी.वी. चैनलों और बड़े अख़बारों की सीमा यह है कि वे ग्रामीण क्षेत्रों में अपने संवाददाताओं और छायाकारों को स्थायी रूप से तैनात नहीं कर पाते। कैरियर की दृष्टि से कोई सुप्रशिक्षित पत्रकार ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र बनाने के लिए ग्रामीण इलाक़ों में लंबे समय तक कार्य करने के लिए तैयार नहीं होता। कुल मिलाकर, ग्रामीण पत्रकारिता की जो भी झलक विभिन्न समाचार माध्यमों में आज मिल पाती है, उसका श्रेय अधिकांशत: जिला मुख्यालयों में रहकर अंशकालिक रूप से काम करने वाले अप्रशिक्षित पत्रकारों को जाता है, जिन्हें स्ट्रिंगर कहा जाता है, जिन्हें अपनी मेहनत के बदले में समुचित पारिश्रमिक तक नहीं मिल पाता। इसलिए कई बार वे ऐसे अनैतिक उपायों द्वारा भी पैसा कमाने की कोशिश करते हैं जो पत्रकारों के लिए कतई शोभनीय नहीं। इसलिए आवश्यक यह है कि नई ऊर्जा से लैस प्रतिभावान युवा पत्रकार अच्छे संस्थानों से प्रशिक्षण हासिल करने के बाद ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी विशेषज्ञता का क्षेत्र बनाने के लिए उत्साह से आगे आएँ। इस क्षेत्र में काम करने और कैरियर बनाने की दृष्टि से भी अपार संभावनाएँ हैं। यह उनका नैतिक दायित्व भी बनता है।
आखिर देश की 80 प्रतिशत जनता, जिनके बलबूते पर हमारे यहाँ सरकारें बनती हैं, जिनके नाम पर सारी राजनीति की जाती हैं, जो देश की अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक योगदान करते हैं, उन्हें पत्रकारिता के मुख्य फोकस में लाया ही जाना चाहिए। मीडिया को नेताओं, अभिनेताओं और बड़े खिलाड़ियों के पीछे भागने की बजाय उस आम जनता की तरफ रुख़ करना चाहिए, जो गाँवों में रहती है, जिनके दम पर यह देश और उसकी सारी व्यवस्था चलती है।
पत्रकारिता जनता और सरकार के बीच, समस्या और समाधान के बीच, व्यक्ति और समाज के बीच, गाँव और शहर के बीच, देश और दुनिया के बीच, उपभोक्ता और बाजार के बीच सेतु का काम करती है। यदि यह अपनी भूमिका सही मायने में निभाए तो हमारे देश की तस्वीर वास्तव में बदल सकती है। सरकार जनता के हितों के लिए तमाम कार्यक्रम बनाती है; नीतियाँ तैयार करती है; कानून बनाती है; योजनाएँ शुरू करती है; सड़क, बिजली, स्कूल, अस्पताल, सामुदायिक भवन आदि जैसी मूलभूत अवसंरचनाओं के विकास के लिए फंड उपलब्ध कराती है, लेकिन उनका लाभ कैसे उठाना है, उसकी जानकारी ग्रामीण जनता को नहीं होती। इसलिए प्रशासन को लापरवाही और भ्रष्टाचार में लिप्त होने का मौका मिल जाता है। जन-प्रतिनिधि चुनाव जीतने के बाद जनता के प्रति बेखबर हो जाते हैं और अपने किए हुए वायदे जान-बूझकर भूल जाते हैं।
ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई-नई ख़ोजें होती रहती हैं; शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में नए-नए द्वार खुलते रहते हैं; स्वास्थ्य, कृषि और ग्रामीण उद्योग के क्षेत्र की समस्याओं का समाधान निकलता है, जीवन में प्रगति करने की नई संभावनाओं का पता चलता है। इन नई जानकारियों को ग्रामीण जनता तक पहुँचाने के लिए तथा सरकार पर जनता के लिए लगातार काम करने हेतु दबाव बढ़ाने, प्रशासन के निकम्मेपन और भ्रष्टाचार को उजागर करने, जनता की सामूहिक चेतना को जगाने, उन्हें उनके अधिकारों और कर्त्तव्यों का बोध कराने के लिए पत्रकारिता को ही मुस्तैदी और निर्भीकता से आगे आना होगा। किसी प्राकृतिक आपदा की आशंका के प्रति समय रहते जनता को सावधान करने, उन्हें बचाव के उपायों की जानकारी देने और आपदा एवं महामारी से निपटने के लिए आवश्यक सूचना और जानकारी पहुँचाने में जनसंचार माध्यमों, खासकर रेडियो की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।
पत्रकारिता आम तौर पर नकारात्मक विधा मानी जाती है, जिसकी नज़र हमेशा नकारात्मक पहलुओं पर रहती है, लेकिन ग्रामीण पत्रकारिता सकारात्मक और स्वस्थ पत्रकारिता का क्षेत्र है। भूमण्डलीकरण और सूचना-क्रांति ने जहाँ पूरे विश्व को एक गाँव के रूप में तबदील कर दिया है, वहीं ग्रामीण पत्रकारिता गाँवों को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित कर सकती है। गाँवों में हमारी प्राचीन संस्कृति, पारंपरिक ज्ञान की विरासत, कला और शिल्प की निपुण कारीगरी आज भी जीवित है, उसे ग्रामीण पत्रकारिता राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर ला सकती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ यदि मीडिया के माध्यम से धीरे-धीरे ग्रामीण उपभोक्ताओं में अपनी पैठ जमाने का प्रयास कर रही हैं तो ग्रामीण पत्रकारिता के माध्यम से गाँवों की हस्तकला के लिए बाजार और रोजगार भी जुटाया जा सकता है। ग्रामीण किसानों, घरेलू महिलाओं और छात्रों के लिए बहुत-से उपयोगी कार्यक्रम भी शुरू किए जा सकते हैं जो उनकी शिक्षा और रोजगार को आगे बढ़ाने का माध्यम बन सकते हैं।
इसके लिए ग्रामीण पत्रकारिता को अपनी सृजनकारी भूमिका को पहचानने की जरूरत है। अपनी अनन्त संभावनाओं का विकास करने एवं नए-नए आयामों को खोलने के लिए ग्रामीण पत्रकारिता को इस समय प्रयोगों और चुनौतियों के दौर से गुजरना होगा।
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8 comments:
सच कहा, पत्रकारिता को वापस अपने आधारों में लोटना होगा। उसे जड़ तलाशने होंगे। और एक नई शुरूआत करनी होगी। उम्मीद है। पत्रकार सुन रहा होगा।
ग्रामीण पत्रकारिता को भारत में अब तक नजरअंदाज किया गया है लेकिन अब तो बड़ी बड़ी कंपनियों को भी समझ में आ गया है कि ग्रामीण बाजार की अनदेखी उन्हें भारी पड़ सकती है। हालांकि आपने यह सही कहा कि मीडिया वाले ग्रामीण क्षेत्रों में पत्रकारों की स्थाई नियुक्ति नहीं करते, जो इसे बढ़ावा देने में एक बड़ी परेशानी है। ग्रामीण क्षेत्रों में पारिश्रमिक भी कम दिया जाता है। यदि मीडिया समूह गांवों में स्थाई नियुक्ति, बेहतर वेतन और लेपटॉप जैसी दूसरी सुविधाएं देने लगे तो शहरों में कई पत्रकार आना ही पसंद नहीं करेंगे। मैं आपको मेरे बारे में ही बताता हूं कि यदि मुझे गांवों में ठीक पैसा मिलता तो मुंबई में पत्रकारिता करने नहीं आता। लेकिन क्या किया जा सकता। प्रिंट वाले अभी भी सेंटीमीटर के हिसाब से भुगतान करते हैं और फोन के खर्चे तक नहीं देते। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम वाले प्रति स्टोरी पैसा देते हैं और वहां रोज रोज बड़ी वैसी स्टोरी होती नहीं जैसी मल्लिका शेरावत के मुंबई में नाचने पर बनती है। ठुमके गांवों में लगते नहीं, वहां कोई सेलिब्रिटी आकर खाना खाते नहीं और गांव वाले खा रहे हैं या भूखे हैं, इसकी स्टोरी कोई कवर करता नहीं। वेब पत्रकारिता का तो गांवों में कोई भविष्य नहीं है।
सृजनशिल्पी जी
बहुत अच्छा, सुंदर लेख. पत्रकारों को इस पर अपनी प्रतिक्रिया लिखनी चाहिए.लेकिन यह मामला सिर्फ पत्रकारिता का नहीं, डॉक्टर,टीचर इंजीनियर कहाँ जाते हैं गाँवों की ओर...बहरहाल, मुद्दा चिंतनीय है.
अनामदास
सृजन जी,
वैसे मैं काम तो एक मुंबई के एक बड़े टेलीविजन चैनल में करता हूं लेकिन कई बार लगता है कि विकास की इस दौड़ में गांव बहुत पीछे छूट गए हैं और कुछ करना चाहिए। लेकिन गांवों में वाकई रेडियो ही एक और क्रांति ला सकता है। लेकिन महात्मा गांधी के सपने और ये बड़ी-बड़ी बाते मेरी समझ में नहीं आती क्योंकि मेरा मानना है किसी भी संस्था को चलाने के लिए पैसा बहुत जरूरी है। ऐसे में कम्यूनिटी रेडियो वाकई में भारत की तस्वीर बदल सकता है। कमल जी, का कहना भी सही है कि गांवों में ठीक-ठाक पैसा मिले तो बड़े शहरों में शायद ही कोई आए। चले लेकिन इस बेहतरीन लेख के लिए साधुवाद।
आपका-
आलोक वाणी
सृजनशिल्पी जी आपके लेख पर एक प्रतिक्रिया यहाँ लिख है
http://ms.pnarula.com/200704/गांव-और-कैरियर/
एकदम सही कहा आपने। ग्रामीण पत्रकारिता तो सिर्फ़ नाममात्र की ही रह गयी है। टीवी पत्रकारिता का मोह तो सिर्फ़ अपराध और अराजकता पर सिमट कर रह गयी है, बची खुची कसर सो काल्ड 'स्टिंग आपरेशन' ने पूरी कर दी है।
पत्रकारों को एक नयी शुरुवात करनी ही होगी, नया आधार तलाशना ही होगा। नही तो पत्रकारिता अपनी उपयोगिता,प्रासंगिकता और लोकप्रयिता खो देगी।
कम्युनिटी रेडियो वाकई ग्रामीण पत्रकारिता के लिए मुख्य ध्वजवाहक बन सकता है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि कर्णाटक के एक छोटे से गांव बूड़ीकोट में भारत के पहले स्वतंत्र कम्युनिटी रेडियो के द्वारा आ रहे बदलाव की ख़बर को सितम्बर, 2003 में वाशिंगटन पोस्ट में कवर किया गया था, लेकिन भारतीय मीडिया में इसकी खास चर्चा नहीं हुई। कम्युनिटी रेडियो के मामले में हमारा देश अपने पड़ोसी नेपाल और श्रीलंका से भी काफी पीछे है। यहां एफ.एम. रेडियो के लाइसेंस निजी क्षेत्र के बड़े व्यावसायिक मीडिया घरानों को दिए गए हैं। कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस कुछेक बड़े शैक्षिक संस्थानों को दिए गए हैं। लेकिन बिहार के एक छोटे से कस्बे वैशाली से एक ग्रामीण युवा द्वारा चलाए जा रहे एक लोकप्रिय स्थानीय निजी रेडियो स्टेशन को सरकार ने बंद करा दिया।
जहां तक डॉक्टरों, शिक्षकों आदि के गांवों में जाकर काम करने के प्रति अरुचि का प्रश्न है, यह स्थिति भी तभी बदल सकती है, जब गांवों में पत्रकार सक्रिय होंगे और वहां के ऐसे हालात की ख़बरें मीडिया में आएंगी। अब एमबीबीएस की पढ़ाई करने वालों के लिए कुछ समय गांवों में काम करना अनिवार्य कर दिया गया है। लेकिन पत्रकार ही इसे सुनिश्चित करा सकते हैं। जिन डॉक्टरों की पोस्टिंग गांवों में होती है, उनमें से अधिकतर केवल वेतन लेने कुछ दिन के लिए गांवों में जाते हैं और बाकी समय नजदीकी शहरों में निजी क्लिनिक चलाते हैं।
पत्रकारों, जहां जाना हो जाओ. पर visual rag-picker मत बनो. समग्र दृष्टि रखो. अभी तो जो देखना चाहते हो वही देखते हो.
खैर यही बात पत्रकारों पर ही नहीं, सब पर लागू होती है.
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