Wednesday, April 11, 2007

जनसंचार माध्यमों की दंतकथा(टेलीविजन)

रूकावट के लिए खेद है। रूकना तो दूर अब टीवी ने इतनी तेज गति पकड़ ली है कि सफर कठिन होता जा रहा है। स्वागत है आपका एक ऐसे समाज में जहां ये कहना कि टीवी आईना है, धुंधलका फैलाना जैसा होगा। टीवी ने देश में पचास साल से ज्यादा समय बिता लिया है। और निजी चैनलों ने तकरीबन बीस साल। बीस साल बाद क्या होगा। कल्पना करिए। आपकी टीवी आपके हाथ में होगी। आप केवल वो देखना पसंद करेंगे, जो समयखपाऊ न हो और कंटेंट पर आपकी मर्जी चलेगी। कंटेंट। देश में जब टीवी ने शुरूआत की, तब माहौल देश में जागरूकता लाने का था। उसने ये भूमिका निभाई भी। निजी चैनलों ने अपनी शुरूआत ही मनोरंजन से की। हालांकि सोप ओपेरा का पूरा तमाशा फैलाने में सरकारी चैनल ने ही प्रथम की भूमिका निभाई। शांति और स्वाभिमान के जरिए। लेकिन ये खाली वक्त में घरेलू महिलाओं को किसी तरह के मोहपाश में बांधने की कोशिश नहीं बन पाया। पर निजी चैनलों ने वो कर दिखाया जो आज नशा है, जरूरत है और है भरपूर तमाशा।

समाचार क्या है, खबर क्या है। ये कोई भी हाईस्कूल का लड़का नहीं जानना चाहता है। पर आज वो समाचार चैनल देखना चाहता है। क्यों। मल्लिका है, शाहरूख है, फिल्म है, गाना बजाना है, रेप है, गैंगवार है और है भरपूर क्राइम। जो दिखता है, वो बिकता है। यानि असली भारत दिखना बंद हो गया है। सो बिकना भी। टीवी ने इस जुमले को जिस करीनेपन से भुनाया है, उतना फिल्म वाले भी न भजा पाए। आज का टीवी विविध है, मनोरंजक है, उथला है, पर मौजूद है। वो आम आदमी को खबर बनाने की ताकत रखता है, पर समुदाय के सामने झुक जता है। वो कड़ी जबान में सत्ता का सामना करता है, पर सत्तासीन व्यक्ति को लुभाता रहता है। वो बाजार के उत्पाद पर खबर करता है, नकारात्मक भी, पर प्रचार पाने को कम खबरें दिखाता है। वो आम आदमी को अपनी एक्सक्लूजिविटी का अहसास कराता है। और उसके दरवाजे पर घुसने की हिम्मत नहीं पैदा होने देता है। एक खबर की मौत क्या होता है, ये आप किसी भी पेश होने वाली खबर के तौर तरीके से समझ सकते है। टीवी की मौत क्या होती है, इसे जानने के लिए आप दिन भर टीवी देखकर समझ सकते है।

आज देश में तीन सौ के करीब चैनल है। हिंदी के पचास के करीब। औऱ रीजनल भाषाओं के सौ के करीब। यानि पलड़ा भारी है भाषाओं का। और पलड़ा भारी है उन खबरों का, जो मौका और दस्तूर तो निभाते है, पर सूचना नहीं, ग्यान नहीं। तो बदलते वक्त की नब्ज भांप कर भी टीवी ने भले ही चोला बदला हो, लेकिन ये रंगबिरंगा ताना बाना क्या बना रहा है, ये समझना भी मुश्किल नहीं है। नई पीढ़ी को देखिए। वो टीवी कब देखता है। रात को। आधी रात को। तेज स्वर में। हर सेंकेंड में उसके लिए छह बार फ्रेम बदल जाते है। वो चार सेंकेड़ों की जिंदगी जीता है। वो चैनलों को गियर जैसा बदलता है। वो कैमरे के फ्लैश सा चमकता है। वो टीवी इतना ही देखता है।

टीवी ने जो बदलाव लाए है, वो इतिहास का हिस्सा नहीं हो सकते है। टीवी ने जो दिया है, वो याद करने लायक नहीं है। टीवी ने जो रचा है, वो कपोलकल्पित संसार सच से बहुत दूर है। करीब है तो आपके दर्द में उनके बेतुके, असंवेदनशील सवाल। मौके पर खड़े होकर अ अ करके देते जवाब। और आपको बता दे कि....का राग। आप जान चुके है। और जागरूक हुए आपको तकरीबन बीस साल हो चुके है। तो अगले बीस साल बाद आप क्या देखना चाहते है, ये तय कर लीजिए। क्योंकि टीवी एक मशीन है, और सोचना आपका काम है।

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1 comment:

Srijan Shilpi said...

बहुत सुन्दर विश्लेषण।