Wednesday, April 18, 2007

टीवी की कमजोरी पर हमला

बड़ी चिक चिक मची हुई है। लोकतंत्र पर हमला करार दिया गया एक समाचार चैनल पर हालिया हमला। कुछ ने कहा ये फलां है, कुछ ने कहा कि चैनल की किस्मत थी। खैर तोड़ फोड़ हुई और इसे आप विरोध के तौर पर कतई उचित नहीं कह सकते। पर बड़े सवालों पर किसी का कोई ध्यान नहीं गया। क्या टीवी देखने वाला टीवी की ही तरह सीमित सोचने लगा है। शायद हां। कहा गया है कि डिफाइन इज़ द लिमिट। और टीवी ने खबरों को मनोरंजन के तौर पर डिफाइन करके आपको भी नकली हंसी औऱ नकली आंसू बहाने की स्थिति में ला दिया है। किसी भी जनसंचार माध्यम पर हमला या उससे जोर जबरदस्ती पहली नजर में दबिश ही मानी जाती है। खबर को दबाने या चलाने के बाद गुस्से की प्रतिक्रिया। प्रेस को स्वतंत्रता चाहिए, औऱ उस पर वार लोकतंत्र पर वार सरीखा होता है। यानि कि गलत कदम। लेकिन अगर ये प्रतिक्रिया किसी ऐसी घटना के बदले की जाए जिसका देश के आम आदमी के मौलिक अधिकार से ताल्लुकात हो तो। तो बात को विचारधारा की कट्टरता या एक झुंड की मूर्खता माना जा सकता है। और मानने की जरूरत ये है कि इस घटना से मीडिया की ताकत नहीं कमजोरी जाहिर की है। कमजोरी। एक ऐसी कमजोरी जिससे मीडिया का नाता खत्म होता जा रहा है। सामाजिक सुरक्छा की कमजोरी। बताइए। आप किसी जनसंचार माध्यम में कार्य करते है। और हमले में आप घायल होते है नुकसान झेलते है और एक खबर बन जाते है। तो क्या इससे आपकी भावना और मजबूत होती है। आगे ऐसा करते रहने के प्रति। खबर को उसी दृढ़ता से दिखाने के प्रति। या इसे आप केवल इस तौर पर देखने लगेंगे कि जब संस्थान ही सुरक्छित नहीं तो हम क्या होंगे। और इससे भी बड़ा सवाल, जो जोड़ा भागकर समाचार माध्यम के पास आया। इस आशा में कि उसे अधिकार मिलेगा, आजादी मिलेगी और एक मिसाल कायम होगी। उसका क्या। देश में कुंवारी उम्र में प्यार की पींगे बढ़ाने वाले लाखों जोड़ों को क्या अब रास्ता दिखा है। या डर बैठ गया है कि जब किसी पत्रकारिता संस्थान पर हमला हो सकता है, तो हमारा क्या होगा। हम कहां जाएंगे। पूरे देश में प्रचार पाने के बाद। कमजोरी। ये है टीवी की। उसने समाज को मजबूत नहीं किया। बदला नहीं। प्रवृत्तियां नहीं बदली। मानसिकता नहीं बदली। औऱ इसके बीच मीडिया हक को दिलाने की पैरवी करने लगा। पैरवी और जिरह। जिरह उस समाज से जो कई खांचों में बंटा। जाति, पाति, धर्म, कुनबा औऱ सोच में। तो कैसे माना जाए कि पत्रकारिता की जिस ताकत से आप समाज बदल सकते थे। उसी का बेफिजूल उपयोग आपने मजबूती पा ली है। कमजोर हो गया है हर वो आदर्श जिसके बदौलत आप मिसाल बनाते थे। रसूखों के गुमान तोड़ते थे। औऱ सामाजिक विकृतियों को बदलते थे। तो यानि हमला इसी कमजोरी पर हुआ है। और इस कमजोरी को टीवी ने खुद पैदा किया है। और कमजोरी को ताकत में बदलने के लिए जिस बदलाव का हिमायती होना चाहिए, उससे बहुत दूर हो चला है टीवी। तो प्रेम को अधिकार दिलाने की इस लड़ाई में न तो जोड़ा जीता, न ही टीवी।

सूचक
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2 comments:

चलते चलते said...

टीवी की कमजोरी पर हमला आपने एक बेहतर और सार्थक रिपोर्ट लिखी, बशर्तें इसे हर पत्रकार और संस्‍थान पढ़ें। मुझे एक पुराना विज्ञापन याद है जिसमें कहा गया था कि चाहिए एक संपादक, वेतन दो सूखी रोटियां और ठंडा पानी। या फिर जो कहा गया था कि सफल संपादक वह है जो हर पखवाड़े शहर के चौराहे पर पिटे। लेकिन अब तो सब कुछ प्रोफेशनल हो गया है। भारतीय इलेक्‍ट्रॉनिक माध्‍यम में सब दौड़ रहे हैं कि हे भगवान मेरी टीआरपी कैसे भी बढ़ जाए। भले ही इसके लिए कभी स्‍टूडियो में लाकर किसी की हत्‍या कर उसके विजुअल भी दिखाना पड़े तो हम दिखाएंगे। चौबीस घंटे....हॉय चौबीस घंटे....ले लो न्‍यूज...जबरदस्‍ती देख लो...लेकिन टीआरपी बढ़ा दो। सृजनशिल्‍पी से मु्झे लगता है कि टीआरपी की दौड़ रही तो ये चैनल वाले स्‍टूडियो से सीधे बलात्‍कार, मारपीट, मारधाड़, चोरी व डकैती के कारनामें लाइव करने लगेंगे। इन्‍हें चाहिए कि टीवी पर एक विज्ञापन चलाते रहे कि यदि आप बलात्‍कार करने वाले हैं, या हत्‍या अथवा नंगा नाच तो प्‍लीज हमारे स्‍टूडियो में आकर करें आपको पुलिस नहीं पकड़ेगी और हम इसे समूचे राष्‍ट्र के सामने पेश करेंगे ताकि दूसरे लोग सब लाइव देख सके एंव जो हमारी टीआरपी बढ़ेगी उससे हमारा कल्‍याण होगा। आइए...आइए...बलात्‍कार व हत्‍या के लिए यहां पधारे...दूसरे चैनल पर नहीं। सिर्फ इसी चैनल पर। एनडीटीवी ने डॉयल 100 जैसा कार्यक्रम बंद कर एक मिसाल पेश की है लेकिन दूसरे चैनल आपराधिक न्‍यूज को इतना बढ़ा चढ़ाकर और नाटय रुपांतरण कर पेश करते हैं कि लगता है कि सब कुछ मीडिया ही करवा रहा है। मुझे लगता है यह बकवास बंद होनी चाहिए और इस पर बहस होनी चाहिए कि ऐसे कार्यक्रम चलते रहने चाहिए या नहीं। कही दीर्घकाल में समाज पर विपरीत असर तो नहीं डालेंगे। यदि असर डालते हैं तो इसका नुकसान मीडिया से वसूल करना चाहिए। स्‍वतंत्रता का सदुपयोग होना चाहिए न कि दिन भर अपराध। आज भारत को दुनिया में आर्थिक और राजनीतिक महासत्‍ता के रुप में स्‍थापित करना है तो हमें न्‍यूज और कार्यक्रम भी वैसे ही लाने होंगे जिनसे समाज के हर तबके का भला हो। आप बात कर रहे थे ग्रामीण पत्रकारिता की। कोई मीडिया कर्मी धूल और धूप में क्‍यों नहीं जाता, केवल इसी में लगा रहता है कि सेलिब्रिटी क्‍या कर रहे हैं। कब शादी है, शादी में क्‍या होगा, बुखार आ गया तो कैसे आ गया। कहां नंगा डांस कर रहे हैं आदि आदि। गांवों की सही सुध ली जाती है, नहीं। हिंदुस्‍तान की आत्‍मा गांवों में बसती है, और उसे नजरअंदाज किया जा रहा है। मुझे तो डर है जब सेलिब्रिटी से भी खबर नहीं मिलेंगी तो उससे ही पूछ लेंगे सर यही बात दें कि आज आपने कौनसे कलर की चड्डी पहनी है और फिर दिन भर यही लाइव चलेगा कि फलां हस्‍ती ने आज इस रंग की चड्डी पहनी है और इसके कारण्‍ा क्‍या हैं। एक ज्‍योतिष महाराज आकर बोलेंगे इस कलर की चड्डी से इन्‍हें ये ये लाभ हैं। इनका भविष्‍य यह है। टीआरपी प्रणाली को पूरी तरह बंद कर दिया जाना चाहिए, बलिक बेहतर और क्‍वॉलिटी की खबरों के आधार पर इनकी रेटिंग होनी चाहिए। ये कहते हैं कि जनता यही देखना चाहती है जो हम दिखा रहे हैं, जनता तो नंग धड़ग एंकर देखना चाहते हैं, कर देना सबको नंगा। बैठा देना कुर्सी के बजाय टेबल पर, सब दिखेगा और टीआरपी बढ़ेगी। प्रेस की आजादी के नाम पर जो बेकार का हल्‍ला मचाया गया वह प्रेस की आजादी पर हमला नहीं था। ढोंग कर रहे हैं, ऐसे लोग जो इसे हमला बता रहे हैं। कभी कभी तो लगता है ये लोग न्‍यूज पढ़ रहे हैं या चीख चीख कर हल्‍ला मचा रहे हैं। हथौड़ा मार रहे हैं दर्शकों के सिर पर। धीरे और शालीन तरीके से पढ़ो न खबरें। ये लोग जो हथौंडा मार ब्रांड खबरें सुना रहे हैं वह आम जनता पर हमला है।

MediaYug said...

इसीलिए हमने टीआरपी के बरक्स एसआरपी (सोशल रेस्पांसिबिलिटी प्वाइँट) की वकालत की है। मीडियायुग की पूरी कवायद इसे लागू करवाने की है। आने वाले दिनों में हमें यूके की आफकॉम जैसी संस्थाओं की जरूरत होगी। और होगी निजी राय को शामिल करने की। हमें उम्मीद है कि टीवी चैनल अपनी सीमितता से आगे बढ़ेंगे और समाज के सभी वर्गों की खबरों को शामिल करेंगे। भारत एक द्वीप नहीं है। ये बहुतायत विचारधाराओं का समुच्चय है। और एक पर्दा इसे केवल इसकी विविधता में दिखाकर ही प्रासंगिक हो सकता है। आप सभी पाठकों से उम्मीद है कि आप हमें लगातार अपने राय और लेख भेजते रहेंगे। जिससे हम समाज को टीवी पर एक दिन देख पाएंगे।
You can see our starting by our first post on Mediayug

TRP and Beyond

What is media! A question, which is a simple answer. A tool which gives us information, a source which feels us recognised, by the haves. The have-not's of India has always on the verge of identity crisis, thanks to a birth goal that India achieved through sheer dedication-FREEDOM. From the hands and clutches of English Sun.

Media is communication and dissemination of ideas and problems, which needs implementation of solution. The solution that media never quote directly, is the the Laxmanarekha.

From Udant Martand to Bengal Gazetteer to Grama Swarajya, every time it portrays an ideology. An ideology which is prospers in democracy.

Ethics, morals, objectiveness, questioning, credibility, and 5W1H.Journalism that’s all! Really, consider a situation you get married by a matrimonial advertisement, and always tagged by the advertisement, this is the media what you use. A photo makes you hero and also villain.

The development gives us a Journalism that has audio, radio and later video, Television. So the light is faster than voice. TV sweeps the homes and culminated a bedroom, dining room culture. Lifebuoy, Colgate and Vim are at every shop. People feel the change of packaging.

A story on TV has one angle, one voice over, one ending. So the impact is one! Indulge the life and immerse you thought process for the one views they show. Define is the limit.

Then accidentally we became penniless country, the chance to globalization occurs. Winters of 1990 are chilling. Maruti already gave the power to medium class to drive on four tyres. In a span of time the market become the most strongest influential place.

Media starts it journey from the struggle to the education information and entertainment notion, see a space to galore. ZEE, SUN are indigenous, STAR is a entity of a conglomerate. But the local groups are doing well. ZEE become doyen and starts a News channels to cover information of India, a task which is never covered by any media in a vast propagation. Then Star News, lures the English segment. Really the mass channels logo and identity created by India today group venture Aajtak. It makes a niche space. Then followed by NDTV, SAHARA. This is the national play ground. Simultaneously the regional market is brimming.Westbengal, Andhrapradesh, Kerala, Tamilnadu has starting to cash the regional feelings.SUN , ETV, ZEE ALPHA, ASIANET are making places in regions.

Well the story has a good starting with a sordid present. The responsibility is on the shoulders of this fraternity.

A word that driven the whole TV media is TRP (Television Rating Point), it is a accumulated study of viewing patterns and providing crux information for the advertiser and channels planners. This whole data base functioning is govern by a Multi National Company, who works in many countries.

Current media practices and trends are dictate by TRP, the survey of viewing patterns tend to benefit market. Some media groups are giving priority to advertisement rather content and information. Media planners chalk out the plan to grind the market and make place on media spaces.

Television has immense reach and impact. It needs prior attention. The attention to not succumb in pressures. Business is all right, but the intention always is pure and ethical.

Journalism is today become a glamorous and grabing business. Individual are filling place for money and space, not for service. The root thought of this seva is dying.

Only your voice can change the situation. Demand the space. Only you can change the mediocre. And one fine day you are in the camera saying that I brought up a media that is mine and for haves not.