Thursday, April 05, 2007

जनसंचार माध्यमों की दंतकथा (रेडियो)

तो बात पढ़ने पढ़ाने पर खत्म हुई थी। इसे अब आवाज़ से शुरू करते है। रेडियो की आवाज़। आकाशवाणी। याद होगा आपको। सिलोन रेडियो से गूंजती गंभीर दिल को छू लेने वाली आवाजें। जमाना बदल गया है। ग्रीन पार्क के ढींगरा साहब की मर्सिडीज में रेडियो आज भी बजता है। उनका ड्राइवर उनकी नामौजूदगी में एफएम सुनता रहता है। रेडियो बजता रहता है। आज महानगरों में रेडियो का संजाल है। रेडियो सिटी, रेड एफएम, रेडियो मिर्ची, बिग एफएम, रेडियो वन, फीवर १०४ और साथ में खड़ा है आकाशवाणी का एफएम। निजी रेडियो कंपनियों ने हर शहर को गानों की गूंज से गुजांयमान कर दिया है। ये अलग बात है कि एक पर सुना गाना ज्यादातर दूसरे पर कुछ घण्टों में बजता है। रेडियो ने पहचान ढूंढ ली है। उसका पुनर्जागरण हो चुका है। ये अलग बात है कि पहचान में समरूपता हावी है। दरअसल जिस रेडियो को पहले आप दिन भर अपनी दिनचर्या का हिस्सा मानते थे, वो अब मनोरंजन भर बन गया है। घर में काम के साथ धुन बज रही है तो गाड़ी में चलने के साथ। खैर ये वो समय है जब हर यंत्र संगीत देने में जुटा है। मोबाइल से लेकर एमपी थ्री प्लेयर तक। वैसे आकाशवाणी से गानावाणी तक पहुंचने के बीच रेडियो ने एक दौर ऐसा भी देखा है जब ये गांव देहात तक सीमित हो चुका था। या क्रिकेट की कमेंट्री सुनने का सस्ता और फीजिबिल माध्यम। रेडियो को अपनाना बीच के दौर में गरीबी और निम्न वर्ग का प्रतीक सा था। जैसे बंबई से कमाकर हाथ में रेडियो लेकर लौटता एक गांव का छोरा। रेडियो ने भारत के प्रसव काल को देखा, जन्म काल को सुनाया और विकासकाल में गुम सा गया। अब दोबारा ये पुनर्जन्म ले चुका है। एक नए कलेवर में। बाजार में इसका सुनना सुनाना अब शौक है। और इसे अपनाना फैशन। मोबाइल वाला रेडियो बिकता है। और कार में विदेशी प्लेयरों में देशी आवाज राग अलापती है। ये अलग बात है कि इस नए जन्म ने रेडियो के इतिहास में खास योगदान नहीं दिया है। क्योंकि बाजार में पैठ बनाने और एकरसता के शिकार रेडियो चैनल क्या परोस रहे है, ये समझ के परे है। रात को नौ बजे लड़के लड़को की सेटिंग या दिल की बात बताते लवुगुरू। ऐसे में आप केवल गानों को सुनना ही पसंद करते है। पर एक बात है कि नए अवसर और नए नाम बन रहे है। पर ये नाम इतिहास में दर्ज होने वाले नहीं है। ये बरसाती मेढ़क जैसे नाम है। रेडियो चैनलो की बरसात और तकनीकी सम्पन्न चैनलो में माइक पर चिक चिक करते रेडियो जॉकी।

नए रेडियो चैनलो ने गंभीर प्रयास के तौर पर नामी समाचार माध्यमों से करार किए। पर वहां भी नामी गिरामी लोगों के इंटरव्यू में पूछा गया फिल्म कौन सी अच्छी लगती है, गाना कौन सा। खैर ये नया कदम कब गांव देहात की सुनाएगा, इसका इंतजार है।

देखा जाए तो भविष्य मोबाइल के कालर ट्यून जैसा लगता है। तब नया गाना आए को ट्यून बदल लीजिए। लोगों ने फ्रीक्वेंसियों पर रेडियों ट्यून करना अब सीख लिया है। लोग सुन रहे है। जो बज रहा है। लेकिन एक हल्की याद्दाश्त के साथ

सूचक
soochak@gmail.com

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3 comments:

Anonymous said...

अच्छी जानकारी दी है सरलता से!

Anonymous said...

बढ़िया है जी आपका राग भी हमने सुन लिया बड़ा अच्छा लगा।
वैसे ऐसे रेडियो चैनल्स में गाने चलें तो ही ठीक लगता है बाकी की बातें तो कान फोड़ू लगती हैं।

Anonymous said...

Hi

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Hari