Wednesday, February 07, 2007

न्यूज चैनलों का 'अकेलापन'

कहां है संवाददाता। टीवी पर वो बोलता दिखता है। लोगों से दूर। ये बहस आज की वर्चुअल दुनिया में मौजूं है। दरअसल टीवी चैनलों को दिन भर आगे बढ़ाने वाले 'कर्ताधर्ता' कैसे करते है अपना काम। समझिए। टीवी न्यूज़ चैनल एक ऐसी संस्था होती है, जो तकरीबन दो सौ से पांच सौ लोगों से चलने वाला पेशा है। पेशा। इस पेशे में अब आंतरिक संबंध नहीं बनते। जिंदगिया नहीं बांची जाती। बांची जाती है तो लफड़े औऱ चक्कर। न्यूज चैनलों के आफिस में हर आदमी तन्हा है। काम के संबंध पनपने लगे है। बरसात के जोंक की तरह। दरअसल एक न्यूज चैनल में मुख्यत चार से पांच इकाइयां होती है। इनपुट, आउटपुट, एसाइनमेंट, पीसीआर एवं टेक्निकल। ये सब एक निकाय की तरह काम करते है। मतलब इनपुट रिपोर्टरों से मिलने वाली खबरों को तय करता है। आउटपुट उन्हे पेश करने का काम करता है। मसलन स्क्रिप्टिंग, वीडियो एडिटिंग आदि। एसाइंमेंट संवाददाताओं और खबरों के लिए चीजों का इंतजाम करता है। मसलन ओबी-डीएसएनजी वैन या अतिथियों को लाइन-अप करना आदि। और पीसीआर यानि प्राइमरी कंट्रोल रूम से लाइव-रिकार्डेड जा रहे प्रसारणों को नियंत्रित किया जाता है। मतलब मशीनों का संजाल। मशीनों से कार्यक्रमों और समाचारों को प्रसारित करने की फाइनल स्टेज। रही बात टेक्निकल स्टाफ की तो मशीनों- कम्प्यूटरर्स, स्विचिंग, इनकोडर डीकोडर, लाइटों आदि का ख्याल रखने वाले। वैसे एक बात सीधे तौर पर समझ लीजिए, जो एक चीज आपको किसी भी न्यूज चैनल के दफ्तर में सबसे ज्यादा दिखेगी, इंसान से ज्यादा, वो है कम्प्यूटर्स। सारा खेल मशीनी हो चली है। संवाददाता भी। आप अब खबरों में भी इसकी झलक देख सकते है। भीड़ में अब संवाददाता कम दिखता है। उसे असहजता महसूस होती है। वो 'आकवर्ड' महसूस करता है। इसीलिए खबरों में भी आपको दिखावटीपन दिखने लगा है। दिन भर में चलने वाली अस्सी से सौ खबरों में से आठ से दस खबरो में ही चलने वाली बाइट (वो बात जो टीवी के माइक पर कोई कहता है) खुले तौर पर ली जाती है। भीड़ भडक्के में। अब तर्क ये भी है कि चैनलों की अपनी खबरें होती है, इसलिए बाइटें तन्हा होती है। पर संवाददाता भीड़ में खोता हुआ महसूस होता है, सो एसी जर्नलिज्म करता है। जैसा वे एडिटर करते है, जो कमरों में बैठकर, अंग्रेजी में सोचकर, लैपटाप पर बुनकर हिंदी समाचरा की गाथा को आगे बढा रहे है। वे कुछ शब्दों से बंधे है, उनमें एक शब्द 'टीआरपी' है। टेलिविजन रेटिंग प्वाइंट। ये वो आंकड़ा है जो हर शुक्रवार को आता है किसने कितनी देर देखा आपका चैनल। औऱ इसक सीधा संबंध होता है एडवर्टाइटिंग रेवेन्यू से। यानि चैनल चलाने के लिए पैसा। जो समाचारों के बीच दिखने वाले प्रचार से आता है। पर संवाददाता अपने भीड़ में प्रचार से दूर होता जा रहा है। गुटों में वे दिखते है। कभी सुप्रीम कोर्ट के बाह तो कभी किसी प्रेस कांफ्रेस में। पर वे पत्रकार कम नजर आने लगे है। सवाल कम दागने लगे है। अकेले में बाइट सब लेना चाहते है। और यही वजह है कि टीवी पर अकेलापन दिखने लगा है। वो पूरे समाज, देश औऱ संस्कृति का नहीं, बल्कि कुछ वर्गों का टीवी हो चला है।

"सूचक"
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