Monday, February 12, 2007

क्या देश सांपों से प्यार करता है!

"क्या देश सांपों से प्यार करता है"। पिछले हफ्ते दो बार शाम को टीवी देखने का मौका मिला। दोनों बार सांप ही दिखा। ये अजब संजोग था। पिछले महीने एक साहित्यिक पत्रिका ने अपना इलेक्ट्रानिक मीडिया का अंक छापा था। एक चैनल के प्रमुख ने लिखा था कि दूसरे चैनल पर ज्यादा देर तक चलने वाली खबर का पीछा करना मजबूरी है। चाहे खबर कोई भी हो। तो भई दो चैनल एक साथ सांप - सांप खेल रहे थे। एक बाबा के शरीर में नागमणि को खोज रहा था, तो दूसरा एक सांप से डरे एक व्यक्ति की कथा बाच रहा था। न जाने कौन सा उत्पाद किसे जानकारी दे रहा था। पर एक बात तो साफ हो रही थी, कि जनता यही देखना चाहती है। क्यों है न। खेद है। रूकावट है, जैसे जुमले अब नदारद हो चले है। जनता की राय अब उन्ही मु्द्दों पर ली जाती है, जो लुभावनी बातें ही निकालने वाली है। जैसे - क्या शिल्पा शेट्टी के साथ जो हो रहा है वो सही है या गलत। अमेरिका और इजराइल की देशभक्ति के बरक्स खड़ी हमारी राष्ट्रीयता और देशभक्ति में केवल इतना अंतर है कि वो बुरे वक्त में भी खड़े होने का साहस नहीं खोती। और यही नजर आता है टीवी देखने वाले में। मतलब बेबसी में दर्शक अपने बच्चे को कार्टून के आगे सिमटता पाता है। बेबसी में वो घर की बीवी और बेटी को अपने परिवार से ज्यादा सोप ओपेरा के किरदार की ज्यादा सोचते पाता है। बेबसी में वो खबरों को देखना चाहता है, पर क्या परोसा जाएगा ये उसे पता नहीं। एमएमएस को दिखाने के दौर में वो बेटी बेटे के सामने कैसे खबरों को देखता होगा। या निठारी कांड के बाद, वहशियाना ढंग से लिखी गई टीवी कथाओं को वो कैसे अपने बच्चों के सामने देखे। बेबसी। जैसी मतदाता को है। कि सही नेता नहीं है, दल नहीं है। वैसी ही दर्शक को है। सही प्रोग्राम नहीं है, चैनल नहीं है। ये अतिश्योक्ति नहीं है। आप दिन भऱ डिस्कवरी या हिस्ट्री चैनल नहीं देख सकते है। हंसने के लिए हमेशा लाफ्टर चैंलेज नहीं देखा जा सकता। और समय बिताने के लिए हमेशा फिल्में नहीं। ये निराशावाद भी नहीं है। क्योंकि आपके पास देखने के लिए कुछेक ही विकल्प ही है। सुबह में भक्ति, दोपहर में सीरियल और रात में सोप ओपेरा। बचा पांच से दस मिनट समाचार। या कहें तो अचार। नतीजा क्या होगा। इसका। देखना कम होगा। ये बना भी इस वजह से है कि घर में घर नहीं है। आपस में प्यार नहीं है। आफिस के बाद समाज नहीं है। घर में समय नहीं है। और टीवी में कम से कम चैनल तो है, वो आपके रिमोट पर बदल तो जाता है। पर इसका प्रभाव दिखने लगा है। हम बदल सकते है, पर आधारविहीन बदलना हमारी फितरत नहीं है। सो हमें बदलाव जड़ वाले भाते है। हमें देखना अच्छा लगता है। पर जब इसमें सार खो जाता है, तो हम बदलना जानते है। ये बदलाव ही बदलेगा। ये मानना बेवकूफी होगी कि अचानक सब कुछ देशज हो जाएगा, और उसमें वो दिखेगा, जो सचाई है। बाजार दिखेगा, लेकिन खरीदार के अनुरूप। क्रेडिट कार्ड के हिसाब से नहीं। बाजार लुभाए, पर समाज के बड़े वर्ग को ध्यान में ऱखकर, तो बेहतर। वैसे टीवी बदल सकता है। और सांप को दिखाने में जो मिलता है, वो इंसान की पीड़ा, खुशी, उम्मीद, सपने दिखाकर भी तो पाया जा सकता है। क्यों क्या कहना है।

सूचक
soochak@gmail.com


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