मीडिया में सत्य की अभिव्यक्ति के माध्यम सीमित होने की परिचर्चा जोरों पर है। जिन नए माध्यमों में विचार और अभिव्यक्ति तलाशी जा रही है, वे या तो सीमित दायरें में विकास पा रहे है या तो वे उनकी पहुंच सीमित है। ब्लागों की सफलता में सभ्य समाज अगर नए द्वार तलाश रहा है तो वजह जनसंचार के माध्यमों में आने वाली दुरभिसंधि है। अखबार, रेडियो, टीवी में संपादन में बाजार का असर साफ दिखता है। जिस बात को जनता पढ़ना, सुनना या देखना चाहती है, वो कही दबी छुपी ही रह जाती है। कभी कहा जाता था कि जिसे कोई दबाना या छुपाना चाहे वो ही खबर है। आज दिखाने और जताने पर जोर है, बहलाने और अनजाने में की गई गलतियां अब नजअंदाज की जाने लगी है। जर्नलिज्म में जिस धार की कामना जम्हूरियत में की जाती है वो अब एड की दुनिया में गुम हो चुकी है। खबर के मायने दिखाने वाले चैनल किसी विषय को या तो इतना खींच देते है, कि अर्थ बिखर जाता है या तो इतना जल्दी निपटाते है कि वो खबर असर नहीं छोड़ पाते। पूरे भारत के भौगोलिक धरातल को नापने की चाह रखने वाले ये खबरिया चैनल खबर की सीमा खुद नहीं जान पाते। राजनैतिक मायने, सामाजिक संदर्भ औऱ आर्थिक हित में इतना घालमेल हो चला है कि खबर पेश क्यों की जा रही है ये स्पष्ट नहीं है। विचारधारा की आंच में पली, बढ़ी और तपी बौद्धिकता को जिस निष्कर्ष की जरूरत है वो मीडिया में मौजूद ही नहीं है। क्या आम आदमी के सरोकार को दिखाना बाजार को रास नहीं आ रहा है। क्या टीआरपी आंकड़े इतने मजबूत हो चले है कि चैनल सामाजिक भूमिका और विश्ववसनीयता की चिंता करना छोड़ चुके है। चिंचा अब जताई जा रही है। खुले मंचों से जारी विमर्शो में ये कहा जा रहा है कि मीडिया को आत्ममंथन करने की जरूरत है। वहीं मीडिया कहता है कि वक्त बदला है, माहौल बदला है, तो हम क्यो नहीं चले बाजार की राह पर। दरअसल बाजार सचाई है, उत्पाद उससे बड़ा सच है और स्पासंर की नियति है कि वो उसपर बोली लगाए जो बिक रहा है। चैनलों की होड़ में ये भी काबिलेगौर है, कि क्या कुछ ही नामी गिरामी चैनल ही देखे जा रहे है। क्या बाजार भी इसी को बढ़ावा दे रहा है। अगर ये सिंडीकेट है तो भी ये बाजार का ही फैला फलसफां ही तो है। खैर आंकड़ो में कौन जीता कौन हारा, ये निश्चित ही, ये तय नहीं करता कि जम्हूरियत में चौथा स्तंभ किस दिशा में जा रहा है। दशा-दिशा तय की जानी बाकी है औऱ इस विमर्श की संभावना भी कि क्या टीवी चैनल हमें खबर दे रहें है....
'सूचक'
soochak@gmail.com
Send your write-ups on any media on "mediayug@gmail.com"
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
10 comments:
This blog seriously has some grave frustration problems. I made a mistake by visiting it. its a serious timewaste
Good work media yug. This anonymous guy is an upper caste rich male and does not like truth.
मीडियायुग वालों, एक कमेंट आपने डिलीट कर दिया है। ये माइनगुरुजी का कमेंट भी डिलीट क्यों नहीं कर देते। ऐसे लोग देश को धर्म और जाति के नाम पर तोड़ने पर क्यों उतारू हैं। upper caste rich male का क्या मतलब है। अपनी नाकाबिलियत को छुपाने के लिए कब तक इस गाली का सहारा लेते रहोगे। सच्चाई का सामना करो। अगड़े हो या पिछड़े... देश तो सबका एक ही है। हम सारे एक ही क्रिकेट टीम की जीत की दुआएं करते हैं, एक ही महात्मा गांधी हैं जिनकी इज्जत हम सभी करते हैं। फिर ये बार-बार जाति का हवाला क्यों दिया जाता है। अब समस्या छोटी और बड़ी जाति की नहीं, बल्कि दलित मानसिकता की दिक्कत है। इस खोल से बाहर निकलो। शर्म करो। ये देश हम सबका है। अपना हिस्सा लेने के लिए हर किसी को कंपिटीशन से गुजरना होता है। इसका सामना करने की हिम्मत खुद में लाओ।
मीडियायुग वालों बार-बार वॉर फॉर न्यूज पर जाकर आप लोग अपना प्रचार क्यों करते रहते हैं, जबकि वहां पर आपके लिए जमकर गालियां बकी जाती हैं। क्या आप हिंदी के वॉर फॉर न्यूज बनना चाहते हैं?
anonymous ko gussa kyon aata hai.
Well the manner in which prabal pratap singh interviewed Julie, the lovebird of JNU, it was evident that he has grown too large for his wings. Without any manner, style, knowledge of culture and philospohy, he proved to an idiotic person and a poor journalist. People like this are blots on this profession.
He smacked of an elitist pride and all knowing attitude.
प्रबल प्रताप सिंह अगड़ा है। तुम मीडिया में आरक्षण का इंतजार करो, जब तुम्हें भी कहीं जगह मिल जाए। फिर अपनी भंड़ास निकालना। तुम्हारे जैसे लोगों का कुछ नहीं हो सकता। ज्यादा अच्छा हो कि अगड़े पत्रकारों की गलतियां गिनाने से बेहतर, कुछ दलित पत्रकारों की तारीफ लिखना शुरू करो। इससे धीरे-धीरे तुम्हारी नेगेटिव मानसिकता में कुछ सुधार आएगा।
Anonymous, yar gussa mat dilao, prabal pratap ke tarike ko agar tum thik kahte ho, to mujhe afsos hai.
Yar kisi ki mohabbat ka mazak udhana, kahan ki insaniat hai.
uske sathi ka nam yad nahi, usne bhi prabal ko shant rahne aur samjhne ke liya kaha.
Yeih kahan ka journalism. Agda ho yan pichde, love sab karte hain. Woh alag bat hai ki intercaste marriage karne par, agde honour killings karte hain.
तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता। प्रबल प्रताप ने जो किया वो उसके प्रोफेशन की जरूरत बन चुका है। वैसे मुझे हंसी आ रही है कि तुम बुढ्ढे ठर्की प्रोफेसर की लव स्टोरी को प्रेम बोल रहे हो। प्रबल प्रताप बेवकूफ है, मैं जानता हूं लेकिन कोई और मिसाल देते तो ठीक होता। और जिस ऑनर किलिंग की तुम बात कर रहे हो, यही जातिवादी मीडिया उसे दिखाता है तो दुनिया को पता चलता है। वरना ये हत्याएं पांच साल पहले भी होती थीं, और किसी को कानोकान खबर तक नहीं होती थी। सोसाइटी को बदलने के लिए थोड़ा वक्त दो। इंटरकास्ट मैरिज के लिए तो अब सुप्रीम कोर्ट ने भी हरी झंडी दे दी है। मेरे ख्याल से जातिवाद की दीवार तोड़ने में ये चीज आरक्षण से लाखगुना कारगर साबित होगी। प्रोफेसर अगड़ा है, कम से कम इसी वजह से उससे नफरत करो ;-)
what makes you think that budda is tharki and you are not. Are you god. Dont you enjoy beautiful woman, why can an old man not love. Whats this mentality, i cant understand you.
on some things you look to west, but on some other you wish they dont exist.
If the Budda pays his wife her share of money, he is free to pursue her lady love.
Post a Comment