ये आकाशवणी है। इन शब्दों में कितनी ताकत है ये सुनने वाला जानता है। कभी मर्फी और फिलिप्स के रेडियो से निकलने वाली आवाज को जब आकाशवाणी का नाम दिया गया तो, गरिमा नाम को ही नहीं, प्रसाऱण को भी मिला। वक्त के साथ रेडियो का रूप बदला औऱ बदला बाजार और श्रोता। आज हर बड़े शहर में एफएम रेडियो की धूम है, चार पांच सेवा प्रदाता है, विविध आवाजें है औऱ है मनोरंजन। लगभग इसका उपयोग आम हो गया है। ये अलग बात है कि कोई रेडियो एफएम सुनने के लिए तो कोई क्रिकेट कमेन्ट्री सुनने, तो कुछ लोग केवल समाचार सुनने के लिए रेडियो का इस्तेमाल करते है। उद्देश्य चाहे जो भी हो एक बात तो साफ है कि तमाम नई तकनीकों के आने के बावजूद रेडियो अब भी चलन में है। हालांकि रेडियो को अब तगडी प्रतियोगिता झेलनी पड़ रही है। पर रेडियो के खाते में कुछ ऐसी खासियतें है जो किसी भी जनसंचार माध्यम से ज्यादा प्रभावी है। रेडियो का वृहत कवरेज वो पहला कारण है, जिसकी वजह से ये भारत के चप्पे चप्पे में मौजूद है। दूसरा कारण है रेडियो की कम कीमत , जिसके कारण ये आम भारतीय के हाथ में है। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण, जिसके बिना कोई चीज अधिक दिनों तक प्रतिस्पर्धा में बनी नहीं रह सकती है, वो है रेडियो कार्यक्रमों की गुणवत्ता। मनोरंजन को ही लें, जितनी बड़ी लाइब्रेरी विविध भारती के पास होगी, क्या इतना किसी और तकनीक प्रदाता के पास होगी। सूचना पर आधारित कार्यक्रमों को ही लें, आज भी तमाम न्यूज चैनल वो विश्वसनीयता नहीं बटोर पाएं है, जो बीबीसी और एआईआर के समाचारों की है। लेकिन आने वाला समय रेडियो के लिए नई चुनौतियों का है। नई तकनीक अब आम आदमी तक पहुंच रही है। अब रेडियो एफएम केवल शहरों का शब्द न होकर, गावों और कस्बों में भी तरंगे पैदा कर रहा है। गांवों में कम्प्यूटर सीखे जा रहे है, इंटरनेट सुलभ हो रहा है। सो सैटेलाइट रेडियो भी एक आवाज में कई चैनल परोस रहे है। ऐसे में जिस संस्कृति का विकास ताजा समय में एफएम रेडियो ने किया है, वो फिलवक्त में ही खारिज होता महसूस हो रहा है। अस्सी फीसदी मनोरंजन और आधुनिक खबरों का कचरा परोस कर एक सीमित बाजार को कलर कर रहे ये रेडियो चैनल अभी भी भारतीय संस्कृति और स्थानीयता से दूर है। खैर रेडियो के सामाजिक राजनैतिक प्रभाव के लिए नेपाल का परिदृश्य ही पर्याप्त होगा। जिस संख्या में इस छोटे से देश में सामुदायिक रेडियो का विकास हुआ है, वो अभूतपूर्व है। बाजार में रेडियो के आने वाले तीन सौ के करीब चैनलो से उम्मीद है कि वे अलग अलग जगहों के हिसाब से सामग्री परोसेंगे। प्रचार भी उन्हे स्थानीय ही मिलेगा। सो नीति क्या हो ये मौजूं सवाल है। आज की बाजारीय रेडियो केवल मनोरंजन तक सीमित नजर आता है, वहीं अपनी उपयोगिता को समय के अनुकूल ढालने में सरकारी उपक्रम भी लगे है। श्रोता की उम्मीदों की बात कही नजर आ रही है। सर्वे अगर हुए है तो सामने नहीं आ रहे है। बड़े खिलाड़ी खेलने को तैयार है, पर क्या गांवों, नगरों, कस्बों और छोटे शहरों का रेडियो थामने वाला सुन रहा है। यानि काफी कुछ सुनना अभी बाकी है.....
पंकज तिवारी(9873766841) औऱ 'सूचक'
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