किस खबर में क्या सच है, क्या बुना हुआ झूठ, ये पता लगाना मुश्किल हुआ जा रहा है। खबर जनता के लिए है या सत्ता के लिए इसका भी निर्धारण मुश्किल है। कितनी सूचना चाहिए ये भी तय नहीं है। किसे चाहिए ये भी नहीं। मानिए कि बम हादसा होता है...तो क्या हो पहली सूचना, ये कि सात बम फटे, कई सौ मरे, आतंकी हमला या ये कि लोग अपने हताहतों को 'यहां' पा सकते है। पहली तस्वीर, पहला निष्कर्ष, पहली पहचान कितना मायने रखती है, जब हर किसी को केवल अपनो की चिंता हो...दो सौ लोग जो हादसे में जान दे बैठे, उनके रिश्तेदारों को क्या सूचना चाहिए। जाहिर है खबर होने के दो दिन बाद तस्वीरों के दिखाए जाने से लोग मर्माहत ही होंगे। बार बार अपनों के जाने का गम बार बार हादसों के दिल दहलाते तस्वीरों को देखने की मजबूरी। कौन से मुहाने तलाशे जा रहे है। किसे पेश की जा रही है खबरें। क्यों मीडिया ये दिखाने को आतुर है कि वो ही सही दिखा रहा है, वो सही जा रहा है। बहरहाल अभी भी ये तय नहीं है कि क्या क्या दिखाया जाना है, क्या दिखाया जा है और क्या किस वक्त। आप शाम को टीवी देख रहे हो और कोई ऐसा विषय छिड़ा दिखे जो न तो जानकारी दे पाए और न तो निष्कर्ष तो चैनल बदलना आपकी जरूरत ही होगी। खैर मुंबई हादसों में की और भी पहलू है जिनपर हम चर्चा को आगे बढाएंगे। यानि आपकी सहभागिता जरूरी है।
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