एक 'जान' की कीमत क्या होती है, ये हमें पिछले दो दिनों में टीवी न्यूज चैनलों ने लगातार समझाया है। एक बालक जो किसी गलती के कारण एक बोरवैल के गड्ढे में गिर गया; और ये मुद्दा मिल गया, उन्हे जो ये कभी कभी जताते है कि वे सामाजिक सरोकार से चलने वाले चैनलों की फेहरिस्त में शामिल है। जान की कीमत उनसे पूछी जानी चाहिए जो अपनों को रोजाना खो देते है, ऐसी घटनाओं में जिनका सीधा साबका जीने और जीवन के अधिकार से होता है। कही भूख, कही कर्जा, कही बाढ़, कही सूखा औऱ कही नियम कानून रोजाना मारते है लोगों को, पर खबरें कितनी मिल पाती लोगों को? ये सवाल आम भारतीय अब नहीं पूछता नहीं है? पूछते है कभी कभार जनसंचार के माध्यम, जो इतना पूछते है कि आपकों लगें कि हां जान ती कीमत है! लेबनान में भले ही हजारों जान फँसी हो, मुंबई में भले ही कई सौ कुछ मिनटों में काल के गाल में समां जाते हो, विदर्भ में किसान भले हर दिन तीन की संख्या में सिधार जाते हो, पर किसे चिंता है कि क्या मारता है इंसान को। जिस दर से टीवी ने असंवेदनशीलता को बढ़ाया है, उसी दर से उसने 'अतिवादिता की पत्रकारिता' को आगे बढाया है। लोकतंत्र में एक जान की कीमत उतनी ही है, जितनी प्रजातंत्र में शासक के जीवन की। पर खबरों की दुनिया मुहिम चलाने को दौड़ रहा है। कौन दोषी है ये तलाशना कभी कभी गैरजरूरी हो जाता है। खुशी के आंसु टीवी पर बहाए जाने से अनमोल नहीं हो जाते। भावनाओं को दिखाने के लिए कैमरों की जरूरत उस समाज में होगी जहां रिश्ते नाते बेमानी हो चुके है। हमें एक ऐसे जनसंचार माध्यम की जरूरत है जो संवेदनशील करें और सवाल पूछे। पूरे मामले में किसे बचाना है ये साफ नहीं हो पाया, बालक को या लोकतंत्र को?
'सूचक'
soochak@gmail.com
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Monday, July 24, 2006
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1 comment:
please dont be boring
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